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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

बुधवार, 27 अगस्त 2008

मैं का त्याग एवं अहम् का नाश .

मैं को मारें ,अहम् का नाश करें ,सभी धर्म व नीति ग्रंथों मैं कहागया है,तभी भगवत्प्राप्ति होती है। आख़िर 'मैं क्या है? जो वस्तुआपके पास है ही नहीं उसे छोड़ने का प्रश्न ही कहाँ उठता है।' अतः पहले आप अपने 'मैं 'को तो उत्पन्न करें, अहम् का ज्ञान प्राप्त करें ,अपने को कुछ कहने और कहलाने योग्य बनाएं ,तब मैं एवं अहम् को त्यागें


अपने को 'मैं' कहने योग्य बनाने का अर्थ है किअपने मैं मानवीय गुणउत्पन्न करना व सदाचार,सत्कर्म, युक्तियुक्त नीतिधर्म द्वारा सांसारिक सफलता प्राप्तकरना, सिद्दिप्रसिद्दि प्राप्त करके ईश्वरीय गुणों से तदनुरूपता
श्री कृष्ण ने तभी गीता मैं 'मैं' का प्रयोग किया है। इसप्रकार फ़िर इस मैं तथा अहम् का त्याग करके सत्पुरुषों संतों
जेसी एकरूपता के साथ जीवन गुजारना ,विदेह होजाना , निर्लिप्त होजाना ही ईश्वरसे तदनुरूप होना ही भगवत्प्राप्ति
है। तभी ईशोपनिषद कहता है-
"विद्या चाविद्या च यस् तद वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्यं तीर्त्वा विध्य्याम्रिताम्श्नुते ॥ '

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