ब्लॉग आर्काइव

डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

मेरी फ़ोटो
Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

सामाजिक सरोकार -१...समाचार पत्र में खबरें....






<---फ्रंट पेज पर ---





<---पीछे के पेज पर चित्र ...



----क्या इतना अति- आवश्यक है सबसे हॉट व सेक्सी हसीना होना व ये समाचार कि अखवार के फ्रंट पेज टॉप पर छापे जायं एवं पेंसन की लड़ाई सबसे पीछे के पेज पर ??

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

डॉ श्याम गुप्त की कविता --ब्लॉग .....

आजकल ,
बड़े बड़े लोग अपने ब्लॉग बना रहे हैं ,
बहाने से एक दूसरे को गरिया रहे हैं,
चिलमन से वाग्बाण चला रहे हैं;
ब्लॉग को अपनी बात कहने का -
बड़ा आधुनिक तरीका एवं ,
बहुत बड़ी उपलब्धि बता रहे हैं।

हमारे साहित्यकार बन्धु तो-
न जाने कब से ब्लॉग बना रहे हैं ।
जब महादेवी , निराला ,प्रसाद को,
समकालीन आचार्यों के आचार नहीं भाये ;
तो सभी ने -
खेमेबाज़ भूमिका लिखने वालों को -
अंगूठे दिखाए।
अपनी रचनाओं में -
अपने अपने ब्लॉग छपवाए ;
स्वयं भूमिकाएं लिखीं , व-
लम्बे-लम्बे आत्मकथ्य प्रकाशित कराये।

आज भी ,
मेरे जैसे अकिंचन साहित्यकार भी ,
जब स्वनाम धन्य आचार्यों ,
अखाड़े बाजों ,खेमेबाजों को नहीं सुहाते हैं , तो-
स्वयं अपनी रचनाएँ प्रकाशित कराते हैं ।
भूमिकाएं हों या न हों,
आत्मकथ्य रूपी ब्लॉग अवश्य छपवाते हैं।
कोइ माने या न माने-
अपनी बात इसतरह कहे जाते हैं।

हाँ ,इन ब्लागों में ,
समाज, साहित्य व कविता हिताय ,
नवीन प्रगतिशील विचारों को ,
रखा जाता है;
किसी को गरियाकर ,
उसका दिल नहीं दुखाया जाता है ॥

अगीतोत्सव -२०१० में परिचर्चा पर पढ़ा गया आलेख ---- डा श्याम गुप्त


मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

श्याम सवैया ....परमार्थ....

परमार्थ

(श्याम सवैया छंद—६ पन्क्तियां )

प्रीति मिले सुख-रीति मिले, धन-प्रीति मिले, सब माया अजानी।

कर्म की, धर्म की ,भक्ति की सिद्धि-प्रसिद्धि मिले सब नीति सुजानी ।

ग्यान की कर्म की अर्थ की रीति,प्रतीति सरस्वति-लक्ष्मी की जानी ।

रिद्धि मिली,सब सिद्धि मिलीं, बहु भांति मिली निधि वेद बखानी

सब आनन्द प्रतीति मिली, जग प्रीति मिली बहु भांति सुहानी

जीवन गति सुफ़ल सुगीत बनी, मन जानी, जग ने पहचानी


lang="EN-US">

जब सिद्धि नहीं परमार्थ बने, नर सिद्धि-मगन अपने सुख भारी ।

वे सिद्धि-प्रसिद्धि हैं माया-भरम,नहिं शान्ति मिले,हैंविविध दुखकारी।

धन-पद का, ग्यान व धर्म का दम्भ,रहे मन निज़ सुख ही बलिहारी।

रहे मुक्ति के लक्ष्य से दूर वो नर,पथ-भ्रष्ट बने वह आत्म सुखारी ।

यह मुक्ति ही नर-जीवन का है लक्ष्य, रहे मन,चित्त आनंद बिहारी ।

परमार्थ के बिन नहिं मोक्ष मिले,नहिं परमानंद न क्रष्ण मुरारी ।।


जो परमार्थ के भाव सहित, निज़ सिद्धि को जग के हेतु लगावें ।

धर्म की रीति और भक्ति की प्रीति,भरे मन कर्म के भाव सजावें ।

तजि सिद्धि-प्रसिद्धि बढें आगे, मन मुक्ति के पथ की ओर बढावें ।

योगी हैं, परमानंद मिले, परब्रह्म मिले, वे परम-पद पावें

चारि पदारथ पायं वही, निज़ जीवन लक्ष्य सफ़ल करि जावें

भव-मुक्ति यही, अमरत्व यही, ब्रह्मत्व यही, शुचि वेद बतावें

--रचयिता- डा. श्याम गुप्त

सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ-२२६०१२.

मो- ०९४१५१५६४६४.

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

वैदिक युग में दाम्पत्य बधन ----डा श्याम गुप्त ....


वैदिक युग में दाम्पत्य बधन ----

(डा श्याम गुप्त )


विशद रूप में दाम्पत्य भाव का अर्थ है,दो विभिन्न भाव के तत्वों द्वारा अपनी अपनी अपूर्णता सहित आपस में मिलकर पूर्णता व एकात्मकता प्राप्त करके विकास की ओर कदम बढाना। यह सृष्टि का विकास भाव है ।प्रथम सृष्टि का आविर्भाव ही प्रथम दाम्पत्य भाव होने पर हुआ । शक्ति-उपनिषद क श्लोक है—“ स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयमैच्छत। सहैता वाना स। यथा स्त्रीन्पुन्मासो संपरिस्वक्तौ स। इयमेवात्मानं द्वेधा पातपत्तनः पतिश्च पत्नी चा भवताम।“

अकेला ब्रह्म रमण न कर सका, उसने अपने संयुक्त भाव-रूप को विभाज़ित किया और दोनों पति-पत्नी भाव को प्राप्त हुए। यही प्रथम दम्पत्ति स्वयम्भू आदि शिव व अनादि माया या शक्ति रूप है जिनसे समस्त सृष्टि का आविर्भाव हुआ। मानवी भव में प्रथम दम्पत्ति मनु व शतरूपा हुए जो ब्रह्मा द्वारा स्वयम को स्त्री-पुरुष रूप में विभाज़ित करके उत्पन्न किये गये, जिनसे समस्त सृष्टि की उत्पत्ति हुई। सृष्टि का प्रत्येक कण धनात्मक या ऋणात्मक ऊर्ज़ा वाला है, दोनों मिलकर पूर्ण होने पर ही, तत्व एवम यौगिक एवम पदार्थ की उत्पत्ति व विकास होता है।

विवाह संस्था की उत्पत्ति से पूर्व दाम्पत्य-भाव तो थे परन्तु दाम्पत्य-बंधन नहीं थे;स्त्रियां अनावृत्त स्वतन्त्र आचरण वाली थीं, स्त्री-पुरुष स्वेच्छाचारी थे। मर्यादा न होने से आचरणों के बुरे व विपरीत परिणाम हुए। अतः श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह संस्थारूपी मर्यादा स्थापित की। वैदिक साहित्य में दाम्पत्य बंधन की मर्यादा,सुखी दाम्पत्य व उसके उपलब्धियों का विशद वर्णन है। यद्यपि आदि युग में विवाह आवश्यक नही था, स्त्रियां चुनाव के लिये स्वतन्त्र थीं। विवाह करके गृहस्थ- संचालन करने वाले स्त्रियां-सद्योवधू- व अध्ययन-परमार्थ में संलग्न स्त्रियां –ब्रह्मवादिनी- कहलाती थी। यथा—शक्ति उपनिषद में कथन है—

“द्विविधा स्त्रिया ब्रह्मवादिनी सद्योवध्वाश्च। अग्नीन्धन स्वग्रहे भिक्षाकार्य च ब्रह्मवादिनी।

पुरुष भी स्वयं अकेला पुरुष नहीं बनता अपितु पत्नी व संतान मिलकर ही पूर्ण पुरुष बनता है। अतः दाम्पत्य भाव ही पुरुष को भी संपूर्ण करता है। यजु.१०/४५ में कथन है—

“एतावानेन पुरुषो यजात्मा प्रतीति। विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सांस्म्रतांगना ॥“

दाम्पत्य जीवन में प्रवेश से पहले स्त्री पुरुष पूर्ण रूप से परिपक्व, मानसिक, शारीरिक व ग्यान रूप से , होने चाहिये। उन्हे एक दूसरे के गुणों को अच्छी प्रकार से जान लेना चाहिये। सफ़ल दाम्पत्य स्त्री-पुरुष दोनों पर निर्भर करता है, भाव विचार समन्वय व अनुकूलता सफ़लता का मार्ग है। ऋग्वेद ८/३१/६६७५ में कथन है—“या दमती समनस सुनूत अ च धावतः । देवासो नित्य यशिरा ॥“- जो दम्पत समान विचारों से युक्त होकर सोम अभुसुत ( जीवन व्यतीत) करते हैं, और प्रतिदिन देवों को दुग्ध मिश्रित सोम ( नियमानुकूल नित्यकर्म) अर्पित करते है, वे सुदम्पति हैं।

पति चयन का आधार भी गुण ही होना चाहिये। ऋग्वेद १०/२७/९०६ में कहा है—कियती योषां मर्यतो बधूनांपरिप्रीत मन्यका। भद्रा बधूर्भवति यत्सुपेशाः स्वयं सामित्रं वनुते जने चित ॥---कुछ स्त्रियां पुरुष के प्रसंशक बचनों व धनसंपदा को पति चयन का आधार मान लेती हैं, परन्तु सुशील, श्रेष्ठ, स्वस्थ भावनायुक्त स्त्रियांअपनी इच्छानुकूल मित्र पुरुष को पति रूप में चयन करती हैं। पुरुष भी पूर्ण रूप से सफ़ल व समर्थ होने पर ही दाम्पत्य जीवन में प्रवेश करें—अथर्व वेद-१०१/६१/१६०० मन्त्र देखिये-

“ आ वृ षायस्च सिहि बर्धस्व प्रथमस्व च । यथांग वर्धतां शेपस्तेन योहितां मिज्जहि ॥“

हे पुरुष! तुम सेचन में समर्थ वृषभ के समान प्राणवान हो, शरीर के अन्ग सुद्रढ व वर्धित हों। तभी स्त्री को प्राप्त करो।

पति-पत्नी में समानता ,एकरूपता, एकदूसरे को समझना व गुणो का सम्मान करना ही सफ़ल दाम्पत्य का लक्षण है। ऋग्वेद -१/१२६/१४३० में पति का कथन है—

“ अगाधिता परिगधिता या कशीकेव जन्घहे। ददामि मह्यंयादुरे वाशूनां भोजनं शताः॥“ मेरी सहधर्मिणी मेरे लिये अनेक एश्वर्य व भोग्य पधार्थ उपलब्ध कराती है, यह सदा साथ रहने वाली गुणों की धारक मेरी स्वामिनी है। तथा पत्नी का कथन है—

“ उपोप मे परा म्रश मे दभ्राणि मन्यथाः। सर्वाहस्मि रोमशाः गान्धारीणा मिवाविका ॥“-१/१२६/१६२५.

मेरे पतिदेव मेरा बार बार स्पर्श करें, परीक्षा लें, देखें; मेरे कार्यों को अन्यथा न लें । मैं गान्धार की भेडो के रोमों की तरह गुणों स युक्त हूं ।

नारी पुरुष समानता , अधिकारों के प्रति जागरूकता, कर्तव्यों के प्रति उचित भाव भी दाम्पत्य सफ़लता का मन्त्र है। पत्नी की तेजश्विता व पति द्वारा गुणों का मान देखिये—.ऋग्वेद १०/१५६/१०४२० का मन्त्र-

“अहं केतुरहं मूर्धामुग्रा विवाचनी। ममेदनु क्रतु पति: सेहनाया आचरेत॥“ ----मैं गृहस्वामिनी तीब्र बुद्धि वाली हूं, प्रत्येक विषय पर विवेचना( परामर्श)देने में समर्थ हूं; मेरे पति मेरे कार्यों का सदैव अनुमोदन करते हैं। तथा—“अहं बदामि नेत तवं, सभामानह त्वं बद:। मेयेदस्तंब केवलो नान्यांसि कीर्तियाशचन॥“---हे स्वामी!

सभा में भले ही आप बोलें परन्तु घर पर मैं ही बोलूंगी; उसे सुनकर आप अनुमोदन करें। आप सदा मेरे रहें अन्य का नाम भी न लें। पुरुषॊ द्वारा नारी का सम्मान व अनुगमन भी सफ़ल दाम्प्त्य का एक अनन्य भाव है, तेजस्वी नारी की प्रशन्सा व अनुगमन सूर्य जैसे तेजस्वी व्यक्ति भी करते हैं—रिग.१/११५ में देखें-“

“सूर्य देवीमुषसं रोचमाना मर्यो नयोषार्मध्येति पश्चात। यत्रा नरो देवयंतो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रय॥

प्रथम दीप्तिमानेवम तेजश्विता युक्त उषा देवी के पीछे सूर्य उसी प्रकार अनुगमन करते हैं जैसे युगों से मनुष्य व देव नारी का अनुगमन करते हैं । समाज़ व परिवार में पत्नी को सम्मान व पत्नी द्वारा पति के कुटुम्बियों व रिश्तों क सम्मान दाम्पत्य सफ़लता की एक और कुन्जी है-रिग.१०/८५/९७१२ का मन्त्र देखें---

सम्राग्यी श्वसुरो भव सम्राग्यी श्रुश्रुवां भवं ।ननन्दारि सम्राग्यी भव, सम्राग्यी अधि देब्रषु ॥“ –हे वधू! आप सास, ससुर, ननद, देवर आदि सबके मन की स्वामिनी बनो।

ऋग्वेद के अन्तिम मन्त्र में, समानता का अप्रतिम मन्त्र देखिये जो विश्व की किसी भी क्रिति में नहीं है— ऋग्वेद -१०/१९१/१०५५२/४---

समानी व आकूति: समाना ह्रदयानि वा। समामस्तु वो मनो यथा वः सुसहामति॥----हे पति-पत्नी! तुम्हारे ह्रदय मन संकल्प( भाव विचार कार्य) एक जैसे हों ताकि तुम एक होकर सभी कार्य- गृहस्थ जीवन- पूर्ण कर सको।

इस प्रकार सफ़ल दाम्पत्य का प्रभाव व उपलब्धियां अपार हैं जो मानव को जीवन के लक्ष्य तक ले जाती है। ऋषि कहता है—पुत्रिणा तद कुमारिणाविश्वमाव्यर्श्नुतः। उभा हिरण्यपेशक्षा ॥. ऋग्वेद ८/३१/६६७९ –इस प्रकार वे दोनों( सफ़ल दम्पति ) स्वर्णाभूषणों व गुणों ( धन पुत्रादि बैभव) से युक्त होकर र्संतानों के साथ पूर्ण एश्वर्य व आयुष्य को प्राप्त करते हैं। एवम—८/३१/६६७९—वीतिहोत्रा क्रत्द्वया यशस्यान्ताम्रतण्यकम”—देवों की उपासना करके अन्त में अमृतत्व प्राप्त करते हैं।

------- डा श्याम गुप्ता, सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ-२२६०१२. मो-०९४१५१५६४६४.

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

पानी की बूँद --जलचक्र .....

में पानी की वही बूँद ,
इतिहास मेरा देखा भाला |
मैं शाश्वत विविध रूप मेरे,
सागर घन वर्षा हिम नाला। 1

धरती इक आग का गोला थी,
जब मार्तंड से विलग हुई।
शीतल हो अणु परमाणु बने,
बहु विधि तत्वों की सृष्टि हुई । 2

आकाश व धरती मध्य बना,
जल वाष्प रूप में छाया था।
शीतल होने पर पुनः वही,
बन प्रथम बूँद इठलाया था । 3

जग का हर कण कण मेरी इस ,
शीतलता का था मतवाला
मैं पानी की वही बूँद,
इतिहास मेरा देखा भाला।। 4

फिर युगों युगों तक वर्षा बन,
मैं रही उतरती धरती पर ।
तन मन पृथ्वी का शीतल कर,
मैं निखरी सप्त सिन्धु बनकर। 5

पहली मछली जिसमें तैरी,
मैं उस पानी का हिस्सा हूँ।
अतिकाय जंतु से मानव तक,
की प्यास बुझाता किस्सा हूँ। 6

रवि ने ज्वाला से वाष्पित कर,
फिर बादल मुझे बना डाला।
मैं पानी की वही बूँद,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ 7

मैं वही बूँद जो पृथ्वी पर,
पहला बादल बनकर बरसी।
नदिया नाला बनकर बहती,
झीलों तालों को थी भरती। 8

राजा संतों की राहों को,
मुझसे ही सींचा जाता था।
मीठा ठंडा और शुद्ध नीर,
कुओं से खींचा जाता था। 9

बन कुए सरोवर नद झीलें ,
मैंने सब धरती को पाला।
मैं वही बूँद हूँ पानी की ,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ 10

ऊँचे ऊँचे गिरि- पर्वत पर,
शीतल होकर जम जाती हूँ।
हिमवानों की गोदी में पल,
हिमनद बनकर इठलाती हूँ। 11

सविता के शौर्य रूप से मैं,
हो द्रवित भाव जब बहती हूँ।
प्रेयसि सा नदिया रूप लिए,
सागर में पुनः सिमटती हूँ। 12

मैं उस हिमनद का हिस्सा हूँ,
निकला पहला नदिया नाला।
मैं पानी की वही बूँद,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ 13

तब से अब तक मैं वही बूँद,
तन मन मेरा यह शाश्वत है।
वाष्पन संघनन व द्रवणन से ,
मेरा यह जीवन नियमित है। 14

मैं वही पुरातन जल कण हूँ ,
शाश्वत हैं नष्ट न होते हैं ।
यह मेरी शाश्वत यात्रा है,
जलचक्र इसी को कहते हैं। 15

सूरज सागर नभ महि गिरि ने,
मिलकर मुझको पाला ढाला।
मैं ही पानी बादल वर्षा,
ओला हिमपात ओस पाला। 16

मेरे कारण ही तो अब तक,
नश्वर जीवन भी शाश्वत है।
अति सुखाभिलाषा से नर की,
अब जल थल वायु प्रदूषित है । 17

सागर सर नदी कूप पर्वत,
मानव कृत्यों से प्रदूषित हैं।
इनसे ही पोषित होता यह,
मानव तन मन भी दूषित है। 18

प्रकृति का नर ने स्वार्थ हेतु,
है भीषण शोषण कर डाला।
मैं पानी की वही बूँद ,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ 19

कर रहा प्रदूषण तप्त सभी,
धरती आकाश वायु जल को।
अपने अपने सुख मस्त मनुज,
है नहीं सोचता उस पल को। 20

पर्वतों ध्रुवों की हिम पिघले,
सारा पानी बन जायेगी।
भीषण गर्मी से बादल बन,
उस महावृष्टि को लायेगी। 21

आयेगी महा जलप्रलय जब,
उमड़े सागर हो मतवाला।
मैं वही बूँद हूँ पानी की ,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ २२.

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

बड़े खुश हैं आप----




बड़े खुश हैंआप, हम, सब --ये क्या देख- दिखारहे हैं हम सब,क्या दिखा-सिखा रहे हैं बच्चों को , सामान्य जन को , क्या यही है आने वाले देश की तस्वीर, नंगी तस्वीर? क्या ये सब भड़काऊ, कामनाएं उभारू, अच्छे खासे को बिगाडू तस्वीरें नहीं हैं ? फिर देश, समाज, दुनिया में झगड़े, हिंसा, बलात्कार , नारी-हिंसा , नारी के निंदनीय कर्म में लिप्तता को बढ़ावा दें तो किसका दोष ; तिस पर तुर्रा यह कि हम प्रगतिशील हैं, महिला स्वतन्त्रता के अलमबरदार |---क्या सोच रहे हैं आप........आखिर महिला-नारी स्वतन्त्रता का नाम-काम -नंगी तस्वीरों से ही क्यों शुरू होता है -ख़त्म होता है; क्या अन्य बड़े-बड़े कार्य जो महिलाएं करतीं हैं वे कम हैं समाचारों , चित्रों में दिखाने के लिए , जो एसे चित्रों की आवश्यकता पड़ जाती है।





----मेरा अन्य ब्लॉग .....

vijaanaati-vijaanaati- science

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

डा श्याम गुप्त की लघु नज्में -----

आँख का आंसू

आस का टिमटिमाता दिया
आज बुझ गया;
जब आँख का आंसू
उसपे टपक गया |

आँखों के दिये

सुनसान रात में
दर्द के अहसास में
प्यार की प्यास में
जब तुम नहीं पास में ;
टिमटिमाते हैं ,
मेरी आँख के दिये
बनाकर गेम-इश्क;
उस अहसास को
मिटाने की आस में।

शाश्वत


रात के सन्नाटे में
नाचते हैं,
जलती बुझती बिजलियों की तरह;
कभी चमकते कभी बुझते
ये जुगनूं ;
गोया कि इशारा करते हैं-
उठना गिरना, बनना-मिटना ,
जीना-मरना तो शाश्वत है।

प्यार

हमें तो प्यार से प्यार है
प्यार के अहसास से प्यार है
प्यार के नाम से प्यार है
प्यार को सीने में लिए,
मर सकें तो , हमें -
उस प्यारी मौत से प्यार है

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

दो छोटी बहर की गज़लें ---डा श्याम गुप्त

१-आप आगये

दर्दे दिल भागये।
ज़ख्म रास आगये।

तुमने पुकारा नहीं,
हमीं पास आगये।

कोइ तो बात करो,
मौसमे इश्क आगये।

जब भी ख्वाब आये,
तेरे अक्स आगये।

इबादत की खुदा की,
दिल में आप आगये ॥

२- हलचल होजाए ......
क्या ना किस पल होजाए।
जाने क्या कल होजाए।

रोकलो अश्क अपने,
यहाँ न दलदल होजाए।

अदाएं और न बिखेरो,
मन ना चंचल होजाए।

पुकारो न इतना दूर से,
श्याम 'न हलचल होजाए॥

----मेरा अन्य साहित्यिक ब्लॉग--- साहित्य श्याम ।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

आलोचना ---विचार व कथन के गहन तत्वार्थ ----


---प्रस्तुत विचार प्रसिद्ध कवि, साहित्यकार श्री हेमंत शेष के हैं । एसे विचार प्राय: हम सभी भावना वश, करूणावश कहाजाते हैं परन्तु उनकी वास्तविकता नहीं सोचपाते।
--क्या विद्वान् कवि या हम यह नहीं समझते कि मनुष्य पक्षी नहीं है जो झुण्ड या समुदाय या भीड़ तंत्र से चलते हैं , उनमें विवेक , प्रगति की इच्छा, सामाजिकता, उच्च कोटि के विचारों भावों के उचित चयन शक्ति एवं मौके नहीं होते । सिर्फ आत्म-सुविधा जीविता होती है। कोइ भी और जीवधारी चारों पुरुषार्थ के लायक नहीं है -धर्म, अर्थ, काम , मोक्ष के-; आपसबने युवा तोते( या पक्षी) को अपने बच्चे को दाना खिलाते देखा होगा , पर क्या कभी किसी युवा तोते को बूढ़े तोते के मुख में दाना देते देखा है ? मनुष्य की तरह । नहीं , मनुष्य के अलावा कहीं भावनाएं नहीं होतीं । वृद्ध होने का अर्थ -भूखा -प्यासा मरना। यदि हमें चिड़ियों से सीखना है तो प्रगति के पीछे जाकर चिड़िया ही बनना होगा । फिर हम प्रगति क्यों करें , जानवर ही न बने रहें । ये सारे कथन एकपक्षीय , सीमित दृष्टि वालों के हैं | उदाहरण देने का उचित तरीका यह है कि---"कुत्ता भी पूंछ हिला कर बैठता है " हम कुत्ते को महिमा मंडित नहीं वरन मनुष्य को कुत्ते से ऊंचा होने का स्मरण दिलारहे हैं। न कुत्ते से सीख लेने की बात हैअपितु स्वयं अपने प्रज्ञा-विवेक को जानने की बात है ।
--बच्चों से बड़ों को सीख लेना चाहिए या बच्चे भी बहुत कुछ बड़ों को सिखा सकते हैं --वाक्य भी इसी तरह का वाक्य है।

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

शूर्पनखा प्रसंग व सीता हरण ---एक विस्तृत दृष्टि से व्याख्या .....

---लक्षमण ने जब दंड स्वरुप शूर्पनखा की नाक काट ली , इसका अर्थ यह है कि राम-लक्षमण -सीता द्वारा किये गए प्रगति पूर्ण कार्य से स्थानीय निवासियों द्वारा आर्थिक समृद्ध , स्वतंत्र वअधिकारों के प्रति सचेष्ट और ज्ञान वान होकर शूर्पनखा व खर आदि के स्वामित्व को, रावण द्वारा विजित भारतीय दक्षिण भूभाग से नकारा दिया जाना है जिससे इस भूभाग की अधिष्ठात्री शूर्पनखा की नाक ( इज्ज़त) कट गयी। रावण ने क्रोध में आकर समस्त जनपद की उर्वर जोतने योग्य भूमि पर ( सीता =जोतने योग्य भूमि , हल से बनी लकीर आदि , सीता इसीलिये भूमि पुत्री थी) अधिकार करलिया एवं स्थानीय लोगों से भूमि का अधिकार छीन लिया ( हरण करलिया ) ताकि वे जीवन यापन से मजबूर होकर विद्रोह भूल जाएँ व राम के विरुद्ध होकर रावण की शरण में आजायं , सीता हरण का यही अर्थ है

साहित्य में आलोचना --अर्थ दोष ....

<--- इस चित्र में अंतिम शब्द है --" हिचकीनि सौं" -जिसका अर्थ लेखक ने लगाया है---हिचकिचाहट के माध्यम से ; जबकि मेरे ख्याल से यह होना चाहिए - हिचकियों के माध्यम से | आपका ख्याल क्या है?- इसे कहा जाता है --अर्थ दोष , जो आजकल बहुधा कविताओं में पाया जाता है--भाषा का उचित ज्ञान न होने से. .विज्ञ जन टिप्पणी दें .

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

जन साधारण से अपील -सर्वोच्च पदों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ .


<------यह एक अपील है, जो देश के सर्वोच्च पद पर रह चुके महानुभावों द्वारा, सेवा निवृत्ति के बाद बनाई गयी एक संस्था द्वारा जन साधारण के लिए है , भ्रष्टाचार निवारण हेतु, इन लोगो की आम राय है कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे चलता है ,(कौन सी नयी राय है --सदा से कहावत है--यथा राजा तथा प्रजा) -----क्या इन महानुभावों को जन सामान्य को यह नहीं बताना चाहिए कि --
१। जब वे स्वयं सर्वोच्च पदों पर थे तब उन्होंने इस दिशा में क्या किया , क्या क्या कदम उठाये ।व्यक्तिगत स्तर पर एवं आधिकारिक स्तर पर ।
२। आई आर आई का क्या अर्थ है , हिन्दी नाम क्यों नहीं ।
३। आपका क्रियात्मक पक्ष क्या होगा .

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

डा श्याम गुप्त की दो गज़लें ----

हंसी
एक मज़ेदार  हंसी होती है ।
एक  वेज़ार   हंसी होती है।

हंसी खुशी में भी होती है ,
एक  नागवार हंसी होती है ।

हंसी की क्या बात यारो,
हंसी बस यार ! हंसी होती है।

हंसते हैं,   हंसाने वाले भी,
वो कैसी अजाब हंसी होती है।

खिलखिलादे जो हसीना कोई,
वो तो  नायाब हंसी होती है।

हंस के  चलदे जो हसीना ,
वो खुशगवार हंसी होती है ।

हंसी पै पलट के हंस दे कोई ,
श्याम' कामयाब हंसी होती है॥


प्रेम प्याला पीते रहो

नेकियाँ यूंही करते रहो।
ज़िंदगी यूंही जीते रहो।

कंकड़ पूजो, पत्थर पूजो,
प्रभु का नाम लेते रहो।

मूरत पूजो तीरथ जाओ,
गंगा यमुना नहाते रहो ।

काबा जाओ , काशी जाओ ,
प्रेम-प्याला पीते रहो।

खुदा कहो, ईश्वर, रब यारा,
जीने दो, श्याम' जीते रहो॥

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

पंचजन--पंचजन्य व तीन तरह के लोग ----

शास्त्रों -पुराणों आदि में प्रायः पंचजन शब्द प्रयोग होता है ; मेरे विचारानुसार इसका अर्थ है--पांच प्रकार के जन होते हैं---१- जो पथप्रदर्शक-पथ बनाने वाले होते हैं -जो सोचने-विचारने वाले -नीति-नियम निर्धारक , ज्ञानवान , अनुभवजन्य ज्ञान के प्रसारक व उन पर स्वयं चलकर( या न भी चलें -लोग उनका अनुकरण करते हैं ) सोदाहरण, ; लोगों को चलने के लिए प्रेरित करने वाले होते हैं | महान जन , विचारक, आदि. " महाजना येन गतो पन्था" " के महाजन , विचारक, क्रान्ति दृष्टा , ऋषि -मुनि भाव , साधक लोग ।

--२- जो महान जनों द्वारा निर्धारित पथ पर विचार कर उत्तम पथ निर्धारण करके उस पर चलने वाले होते हैं , क्रियाशील व्यक्ति "महाजना येन गतो पन्था " पर चलने वाले , क्रियाशील लोग, जीवन मार्ग के पथिक, उत्तम संसारी लोग । |
--३- अनुसरण कर्ता ---पीछे पीछे चलने वाले -फोलोवर्स-- जिन्हें पथ देखने व समझने, विचारने की आवश्यकता नहीं होती | जो क्रियाशील लोग करते हैं वही करने लगते हैं।
--------दो अन्य प्रकार के व्यक्ति और होते हैं --
--४.-विरोधी -- जो विचारकों , चलने वालों , स्थिर -स्थापित पथों का विरोध करते हैं । इनमें (अ)-जो सिर्फ विरोध के लिए विरोध करते हैं,विना सटीक तर्क या कुतर्क सहित - वे विज्ञ होते हुए भी समाज के लिए हानिकारक होते हैं , उन्हें यदि तर्क या साम, दाम दंड ,विभेद द्वारा राह पर लाया जाय तो उचित रहता है|--(ब)- जो वास्तविक बिन्दुओं पर सतर्क विरोध करते हैं वे ज्ञानी जन --'निंदक नियरे राखिये .. "' की भांति समाजोपयोगी होते हैं ।
--५- उदासीन -न्यूट्रल -- जो कोऊ नृप होय हमें का हानी ...वाली मानसिकता वाले होते हैं ; यही लोग समाज के लिए सर्वाधिक घातक , ढुलमुल नीति वाले, किसी भी पक्ष की तरफ लुढ़कने वाले , अविचारशील होते हैं , जिनके लिए प्रायः कठोर नियम क़ानून बनाने व उन पर चलाने की आवश्यकता होती है।

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

आलोचना २.----वचन दोष व जन सामान्य व कविता -----

---उपरोक्त कवितायेँ पंजाब के सुप्रसिद्ध कवि श्री सुरजीत सिंह 'पातर' की हैं, जिन्हें हाल ही में सरस्वती सम्मान दिया गया है | दोनों कवितायेँ क्या आप की समझ में आती हैं ? सामान्य जन क्या उनका अर्थ समझा पायेगा?
--पहले आदिका को लें ---यह मेरे रक्त के लिपि के उदास अक्षर......(यह= ये होना चाहिए क्योंकि कवि सब कुछ बहुबचन में प्रयोग कररहा है --हो सकता है यह पंजाबी से हिन्दी अनुवादक महोदय के हिन्दी ज्ञान का उदाहरण हो )...क्या सामान्य व्यक्ति ( वास्तव में जिसे समझाने के आवश्यकता है ) इस कठिन कविता के अर्थ को समझ पायेगा ? अब विद्वान् साहित्यकार सोचेंगे व कहेंगे कि--रक्त की लिपि ...=कवि या जनता के परेशान मन से उठे सवाल, लेख आदि; अँधेरे के शब्द= मन व समाज में फैले अन्धकार के आवाज़; उदास उपनिषद् = शास्त्रीय मर्यादाओं का हनन .......आदि-आदि |
----बूढ़ी जादूगरनी को लें --क्या आप कुछ समझ पाए, क्या जन सामान्य इसके गूढार्थ समझ पायेगा | अब शास्त्रकार , साहित्याचार्य --कह सकते हैं कि यह बूढ़ी जादूगरनी- अमर्यादा, अनैतिकता, आतंकवाद, या कुत्सित राज़नीति , या फिर किस्मत आदि आदि हो सकती है , जो पुनः पुनः नए-नए रूप धरकर आती रहती है , चिर युवा --क्या सामान्य जन समझा पायेगा ? या उसके पास इतना समय, धैर्य,ज्ञान है ?-------साहित्य में इसी प्रकार के विद्वता प्रदर्शन , दूरस्थ भाव प्रचलन से साहित्य जन सामान्य से दूर होता जारहा है | सूर-तुलसी-कबीर-मीरा-आदि के शाश्वत -चिर जीवी शब्दों में कौन से दूरस्थ भाव हैं , तभी वह जन-जन के निकट है व समाज व मानव को आज तक दिशा प्रदान कर रहे हैं |कविता अभिधात्मक भाषा में जन सामान्य के निकट होगी तभी वह जनता के समीप पहुंचेगी और जन उसके समीप |

रविवार, 4 अप्रैल 2010

सानिया की शादी व मन्त्री जी का गाउन उतारना......

----आज दो ज्वलंत समाचार हैं-----एक, सानिया की शादी ; दो-मन्त्री जी का गाउन उतारना।
-----(१) कोई शशि शेखर हैं जो जब से हिन्दुस्तान के मुख्य संपादक बने हैं अपने बडे से कालम में कुछ न कुछ लिखते रहते हैं; वे सानिया की शादी ( जो एक व्यक्तिगत मामला है समष्टिगत व देश का नहीं-उन्हें क्यों लिखने की आवश्यकता हुई ) पर वे जोधाबाई का उदाहरण पेश कर के कहते हैं कि मान सिंह ने बहन देकर अपने क्षेत्र में युद्ध बचा लिये।----क्या उनकी निगाह में औरतें--बहन, बेटियां, मां आदि वस्तुयें हैं जिन्हें देकर अपने को, अपने राज्य को, प्रज़ा को बचाया जा सकता है---नारी की कोई अपनी गरिमा, इच्छा नहीं है। बेचारे राणा प्रताप यूंही-मूर्खता में- दर-दर भागते फ़िरे , वे भी कोई बहन -बेटी अकबर को देकर अपने को बचा लेते। धन्य हैं आज के पत्रकार, संपादक।
----(२)-मन्त्रीजी के गाउन उतारने पर तमाम लोग-विद्यार्थी,सामान्य लोग,अन्ग्रेज़ी दां इन्फ़ोटेकी, व्यापारी -नाराज़ हें--कोई गाउन पहनने को गरिमा बता रहा है, कोई संस्क्रिति की पहचान, कोई पढे लिखे समाज़ की शोभा पहनना परम्परा की खिल्लीउडाना कहरहा है,-----क्या गाउन हमारी भारतीय परम्परा है जो हम उसे शोभा या सम्मान मानें। यह अन्ग्रेज़ों की दी हुई परम्परा है, इसे समाप्त करना ही चाहिये।
कुछ लोगों का कथन है कि उन्हें समारोह में भाग ही नही लेना चाहिये, पहनना ही नही चाहिये पर गाउन का अपमान ( गोया अन्ग्रेज़ों/काले अन्ग्रेज़ों का अपमान होगया) । वर्षों पहले मैने स्वयम अपने कालेज के दीक्षान्त समारोह का बहिष्कार इसीलिये किया था कि मुझे अन्ग्रेज़ी परम्परा /गाउन का से विरोध था, इसका मैने प्रचार भी किया था परन्तु क्या हुआ यह आज तक चलरहा है। मैं शक्ति सम्पन्न नहीं था अतह चुपचाप विरोध था।
तुलसी दास ने कहा है कि --"हरिहर निन्दा सुनहि जो काना, होइपाप गौघात समाना।
काटिय जीभ जो बूत बसाई, आंखि मूंदि नतु चलिय पराई॥"
----- मैने चोपाई के अन्तिम पद का अनुसरण किया था, मन्त्री जी ने तीसरे पद का ; मन्त्री जी समर्थ हैं उन्हें इस प्रकार का व्यवहार करना ही चाहिए । जबतक समर्थ लोग सशक्त व स्पष्ट विरोध नहीं करेंगे स्थितियां नहीं बदलेंगी।

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

यूंही राहों में----डा श्याम गुप्त का गीत---

यूं बिछुड करके फ़िर से यूं मिल जायंगे,
प्रीति के बंधन फ़िर से यूं जुड जायंगे।
यह तो हमने कभी भी था सोचा नहीं,
चलते चलते यूं राहों में मिल जायंगे॥

मैं समझता रहा बस यूंही आज तक,
जाने फ़िर से मुलाकात हो या न हो ।
ये तो कुदरत की ही है कुछ बाज़ीगरी,
हमको है ये यकीं तुम को हो या न हो॥

दो कदम ही तेरे साथ चल पाये थे,
बस कदम अपने यूं लडखडाने लगे।
जब से राहें ही सारी, जुदा होगईं,
गुनुगुनाने लगे, गीत गाने लगे ॥

मैने सोचा न था चलते सीधी डगर,
फ़िर से तेरी ही गलियों में मुड जायंगे।
मैने सोचा नहीं था जुदा रास्ते,मुड के-
इस मोड पर फ़िर से मिल जायंगे॥

श्याम गुप्त केी कविता.....परिस्थिति और व्यवस्था

परिस्थिति और व्यवस्था

पकडे जाने पर चोर ने कहा-
मैं एसा था ,
परिस्थितियों ने मुझे एसा बनाया है ,
व्यवस्था , समाज व भाग्य ने-
मुझे यहां तक पहुंचाया है।
मैं तो सीधा साधा इन्सान था
दुनिया ने मुझे एसा बनाया है ।

दरोगा जी भी पहुंचे हुए थे,
घाट-घाट का पानी पीकर सुलझे हुए थे;
बोले, अबे, हमें फ़िलासफ़ी पढाता है,
चोरी करता है, और-
समाज की गलती बताता है।
परिस्थितिया भी तो इन्सान ही बनाता है,
व्यवस्था और समाज़ इन्सान ही तो चलाता है।
इसी के चलते तेरा बाप तुझे दिनिया में लाया है;
मां बाप व समाज ने पढाया है, लिखाया है।
फ़िर भाग्य और परमात्मा भी तो इन्सान ने बनया है,
घर में, पहाडों में मन्दिरों में बिठाया है।

व्यवस्था के नहीं, हम मन के गुलाम होते हैं,
व्यवस्था बनाते हैं फ़िर गुलाम बनकर उसे ढोते हैं।
परिस्थितियों से लडने वाले ही तो इन्सान होते हैं,
परिस्थितियों के साथ चलने वाले तो जानवर होते हैं।
तू भी उसी समाज़ का नुमाया है,
फ़िर क्यों घबराया है;
तू भी इसी तरह फ़िर उसी व्यवस्था को जन्म देगा;
अतः पकडा गया है तो,
सज़ा तू ही भुगतेगा ॥

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

हिन्दी भाषियों के दिमाग ज्यादा तंदुरुस्त ---एक समाचार ...


---हिन्दी वालों के लिए खुशखबरी , एक वैज्ञानिक खोज के अनुसार हिन्दी वालों का मष्तिस्क अधिक सक्रीय रहता है।
<-----पढ़ें एक समाचार ।
---यद्यपि यह इसलिए भी होसकता है कि अपनी मातृभाषा में व्यक्ति प्राकृतिक भाव से अधिक सहज, संवेदनशील, व क्रियाशील -विचार शील -मननशील होता है , और यह सभी जननी भाषाओं के लिए सत्य होता होगा |

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

डा श्याम गुप्त की गज़ल-जाने क्यों....

जाने क्यों होते हैं इतने गम जमाने में |
क्या क्या सहते हैं जीने को हम जमाने में ।

दर्द का इक सहरा है दूर दूर तक कायम ,
वो चमन खुशियों के हैं कितने कम जमाने में।

खाकसारी पे मेरी, हंस तो लेगी दुनिया,
कौन करता है भला आंख नम ज़माने में।

जो मिला, जिसने दिया,दर्द दिया, गम ही दिया,
कौन गमख्वारी का भरता है दम ज़माने में ।

दर्द का उमडा है तूफ़ान, दिल के सागर में,
वो नहीं दम-खम, जो जाये थम, ज़माने में।

श्याम’ इन झील सी आंखों में कैसे खोपायें,
कौन खुशियों का भला पाले भ्रम, जमाने में ॥