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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 29 मई 2010

गीत--सखि! गुनुगुनाओ आज एसा गीत कोई....


कवि ! गुनुगुनाओ आज.....

सखि ! गुनगुनाओ आज ,
एसा गीत कोई ।

बहने लगे रवि रश्मि से भी,
प्रीति की शीतल हवाएं ।
प्रेम के संगीत सुर को-
लगें कंटक गुनगुनाने |
द्वेष द्वंद्वों के ह्रदय को -
रागिनी के स्वर सुहाएँ.

वैर और विद्वेष को ,
बहाने लगे प्रिय मीत कोई ||

अहं में जो स्वयं को
जकडे हुए |
काष्ठवत और लोष्ठ्वत
अकड़े खड़े |
पिघलकर -
नवनीत बन जाएँ सभी |
देश के दुश्मन , औ आतंकी यथा-
देश द्रोही और द्रोही-
राष्ट्र और समाज के ;
जोश में भर लगें वे भी गुनगुनाने,
राष्ट्र भक्ति के वे -
शुच सुन्दर तराने |

आज अंतस में बसालें ,
सुहृद सी ऋजु नीति कोई ||

वे अकर्मी औ कुकर्मी जन सभी
लिप्त हैं जो
अनय और अनीति में |
अनाचारों का तमस-
चहुँ ओर फैला ;
छागये घन क्षितिज पर अभिचार के |
धुंध फ़ैली , स्वार्थ, कुंठा , भ्रम तथा-
अज्ञान की |
ज्ञान का इक दीप
जल जाए सभी में |
सब अनय के भाव , बन जाएँ -
विनय की रीति कोई ||



-----------हस्त लिखित गीत को पढ़ने के लिए उसके ऊपर क्लिक करें |

डा श्याम गुप्त की कविता--- कवि बन जाओ समय बांसुरी.....

कवि बन जाओ समय बांसुरी

कवि बन जाओ समय बांसुरी ,
एसे राग सुनाओ।
देश राष्ट्र जन विश्व जगे, कवि-
ऐसी तान सजाओ ।

बनो प्रीति की प्रणय पांखुरी
सौंधी गंध लुटाओ।
बनो अभय की सुदृढ़ आंजुरी
सत आचमन कराओ।

तोड़ प्रथाओं की कारा , और-
छोड़ तृषाओं को तुम।
मोड़ समय की धाराओं को ,युग-
क्रंदन बन लहराओ।

ज्ञान-रश्मि बन जन जन सोई
मानवता को जगाओ।
जन जन मन में काव्य-रश्मि की
जगमग ज्योति जलाओ।

नव विहान लाओ अब हे कवि !
नवल रागिनी गाओ ।
बनो समय की सुमधुर स्वर ध्वनि
जीवन राग सुनाओ ॥

गुरुवार, 27 मई 2010

प्राचीन निष्क्रिय तारे कहाँ जाते हैं ...ग्लोबल वार्मिंग !!


चित्र में देखिये नासा के वैज्ञानिकों ने चित्र लिया है कि हमारी आकाशगंगा के एक अत्यंत गर्म ग्रह को( शायद अक्रिय होने पर ? ) उसका स्वयं का सूरज ही ख़त्म कर रहा है। क्या अत्यधिक ग्लोबल वार्मिंग हमारी पृथ्वी की भी यही दशाकरेगी।
इसी सन्दर्भ का एक ऋग्वेदीय श्लोक ( १०/८८/९७७४-१३ ) देखिये.....
"वैश्वानरं कवयो याज्ञियासो sग्नि देवा अजन्यन्नजुर्यम । नक्षत्रं प्रत्नम मिनच्चरिष्णु यक्षस्याध्याक्षम तविषम बृहन्तम""
---क्रान्तिदर्शी यज्ञार्थी देवों ने अजर वैश्वानर को प्रकट किया। जिस समय अग्नि देव विस्तृत व महिमामय होते हैं ,उस समय वे अंतरिक्ष में प्राचीन काल से विहार करने वाले नक्षत्रों को देवताओं के सामने ही निष्प्रभावी बना देते हैं । अर्थात अति प्राचीन व निष्क्रिय नक्षत्र व ग्रह मूल ऊर्जा द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं ।

बुधवार, 26 मई 2010

"अभी कालित्रा -यहशब्द आप ने कभी सुना था क्या. .हिन्दी में ..

....... ..... .......... .......... ................... ........... चित्र १......... चित्र २.....>






हिन्दी हिन्दुस्तान पत्र हिन्दी का या अंग्रेज़ी का..


.--- क्या आपने इस हिन्दी भाषा को कभी पढ़ा , लिखा या सुना या प्रयोग किया है जो चित्र में दी गयी है। यह हिन्दी अखवार काप्रचार है....
----आज कल आप शहर में बड़े बड़े पोस्टरों पर भी एक नया शब्द "" अभीकालित्रा "" देख रहे होंगे। हिन्दी - हिन्दुस्तान समाचार पत्र में इसका अर्थ कम्प्युटर की हिन्दी कहा जारहा है , क्या आपने कभी सुना किसी को यह शब्द प्रयोग करते ? वस्तुतः यह हिन्दी हिन्दुस्तान की अंग्रेज़ी भाषा को सिखाने के लिए एक मुहिम ( चित्र २। )है, जो हिन्दी भाषा एक कठिन भाषा है जैसी हिन्दी की बुराइयां समझाकर किया जारहा है। अर्थात हिन्दी विरोध व अंग्रेज़ी प्रसार का एक नया तरीका | क्या हम इसे हिन्दी के विरुद्ध एक षडयंत्र कहें | जिस तरह से काफी पहले भी इस तरह की भाषा का प्रचार करके किया गया था।

सोमवार, 24 मई 2010

अखिल भारतीय साहित्य परिषद् , उत्तर प्रदेश की प्रांतीय बैठक सम्पन्न --

------दिनांक २३ जून, २०१० रविवार को (शुद्ध बैसाख शुक्ल १० सं २०६७ ) को अखिल भारतीय साहित्य परिषद् उत्तर प्रदेश की प्रांतीय बैठक ,एवं परिषद् द्वारा आयोजित संत कंवर राम के १२५ वें जयन्ती श्रंखला का समारोह , शिव शक्ति आश्रम , आलमबाग लखनऊ पर आयोजित किया गया । अधिवेशन दो सत्रों में हुआ जिसमें 'समाज सुधार में संतसाहित्य का योगदान' विषय पर चर्चा संगोष्ठी एवं काव्य गोष्टी का भी आयोजन किया गया।
प्रथम उदघाटन सत्र में --श्री ज्वाला प्रसाद कौसिक "साधक' सदस्य राष्ट्रीय कार्यकारिणी , अ भा सा परिषद् की अध्यक्षता में हुआ , मुख्य अतिथि श्री राम नारायण त्रिपाठी, महामंत्री राष्ट्रीय का कारिणी, विशिष्ट अतिथि डा कौशलेन्द्र पांडे, अध्यक्ष लखनऊ नगर कार्यकारिणी एवं श्री किशनलाल जी व्यवस्थापक शिव शक्ति आश्रम थे। संचालन हरदोई के संस्कृत विद्यालय के विद्वान् श्री पुष्पमित्र शास्त्री जी द्वारा किया गया।
दीप प्रज्वलन के बाद प्रांतीय संयोजक श्री विनय दीक्षित जी ने सरस्वती वन्दना की समस्त उत्तर प्रदेश से आये हुए परिषद् के सदस्यों का परिचय कराया गया।
अपने उद्बोधन में पुष्पमित्र शास्त्रीजी जी ने बताया कि साहित्य का उद्देश्य समाज में सत्य की स्थापना करना होता है , समाज का मार्गदर्शन करना होता है जो सत्य, शिव तत्व द्वारा सौन्दर्य के समन्वय से होना चाहिए। पर्यटक जी ने साहित्य परिषद् न्यास के उद्देश्य व संगठन के बारे में बताया कि न्यास का उद्देश्य देश की माटी से जुड़े साहित्य की रचना है , हिन्दी सहित देश की सभी भाषाओं में परिषद् साहित्य रचना के लिए कृत संकल्प है , परिषद् की पत्रका सभी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होती है विभिन्न भाषाओं के हिन्दी भाषी साहित्यकारों के लिए विशेषांक प्रकाशित किये जाते हैं।
अध्यक्ष कौशिक जी ने अपने वक्तव्य में कहा--साहित्यकार अखवार, पत्रिका, पुस्तक या विश्वविद्यालयों में नहीं बनते , साहित्य रचना आपके अंतस में होती है जो पारिवारिक संस्कारों से परिपक्व होती है। अधिभौतिक, अधिदैविक व अध्यात्मिक ज्ञान ही संस्कृति का आधार होता है और उसके बिना सच्चा साहित्यकार नहीं बन सकता । उन्होंने कहा आज साहित्यकार मंच व अर्थ के पीछे भाग रहे हैं अतः सु साहित्य नहीं रचाजारहा,एसे लोगों का मष्तिस्क साफ़ करना पडेगा, सत्साहित्य रचना से। 'हितेन सहितं स "--शिवम् से इतर साहित्य कहाँ हो सकता है। अमंगल तत्वों का नाश, राष्ट्र समाज के मंगल की कामना ही साहित्य का मूल उद्देश्य है उदघाटन सत्र का अंत विनय जी की भारत माँ वन्दना से हुआ।
परिषद् की प्रांतीय बैठक सत्र की अध्यक्षता परिषद् के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डा यतीन्द्र तिवारी जी ने की मुख्य अतिथि सिंधी कवि व सिंधी काव्य परिषद् के प्रदेश अध्यक्ष श्री सच्चिदानंद साधवानी जी थे। श्री विनय दीक्षित ने पिछली प्रांतीय बैठक की कार्यवाही से अवगत कराया । डॉ तिवारी जी ने साहित्य की स्थिति पर बोलते हुए कहा कि देश की आज़ादी से पूर्व एक लक्ष्य था स्वतन्त्रता अतः साहित्य व कविता लेखन ,लक्ष्य पूर्ण, जागृति से परिपूर्ण, सोद्देश्य था । परन्तु स्वाधीनता के उपरांत साहित्य में कुंठा,असंतोष, निराशा, घुटन संत्रास , जिजीविषा क़ा मंडन व वर्णन किया जाने लगा । 'कलम चुक गयी ' ' साहित्य की आवश्यकता नहीं ' आदि वाक्य उछाले गए। भिन्न भिन्न चिंतन विरोधी विचार धाराएं समाज में घर करने लगीं। आज नारी विमर्श, दलित विमर्श , भोगी हुई पीड़ा की ,स्वयं की पीड़ा कथा , अभिव्यक्ति आदि वैशिष्ट्य भावों एवं विचार धाराओं की कविता व साहित्य रचना से कविता समाज की समग्रता व जीवन मूल्यों से कटने लगी एवं जन मानस से दूरी बढ़ने की मुख्य कारण बनी हुई है। अतः समग्र चिंतन , समग्र सामाजिक सरोकार सहित जीवन मूल्यों एवं राष्ट्रीय भावों से सम्पन्न व उचित समाधान पूर्ण साहित्त्य की रचना इस अखिल भारतीय साहित्य परिषद् क़ा उद्देश्य है , और यही साहित्य क़ा वास्तविक उद्देश्य भी है।
द्वितीय संगोष्ठी सत्र में --सरस्वती वन्दना कवयित्री श्रीमती शर्मा के सुमधुर स्वरों में हुई। 'समाज सुधार में संत साहित्य क़ा योगदान व संत कंवर राम' पर विषय प्रवर्तन करते हुए प्रोफ नेत्रपासिंह ने कहा कि संत सदा आत्म श्लाघा से दूर रहते हैं , साहित्य में भी सत्साहित्य्कार इस प्रवृत्ति से दूर रहते हैं , वे मंचों , प्रशंसाओं से दूर ही रहते हैं । वेदों से लेकर , महाभारत, रामायण ,मानस -बाल्मीकि, वेदव्यास, तुलसी से होते हुए संत कंवर राम जी तक सभी कालजयी साहित्य संत परम्परा से ही है , समाज को सदैव ही संत साहित्य ने ही उबारा है । गोष्ठी क़ा समापन करते हुए डॉ यतीन्द्र तिवारी जी ने कहा हमारी संस्कृति की सनातनता संतों संत साहित्य के पुनः पुनः प्रादुर्भाव से ही तो हैमन से बड़ा अपराधी कौन है ! मन क़ा निर्मलीकरण ही तो समाज क़ा निर्मलीकरण है और संत साहित्य व सच्चा साहित्य यही तो करता है।
संत कंवर राम मिशन के राष्ट्रीय सचिव साधक जी ने संत कंवर राम के विश्वबंधुत्व भाव, भाई चारा, उनकी अलौकिक आवाज़ में गायन , लीलाएं आदि क़ा विस्तार में वर्णन किया । उन्होंने बताया कि , संतजी पर डाक टिकिट क़ा प्रकाशन जिसका लोकार्पण महामहिम राष्ट्रपतिजी श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने दरवार हाल में किया, जो संतों के सम्मान की अच्छी परम्परा है।

संत आसूदाराम ट्रष्ट व शिव शान्ति आश्रम के पीठाधीश्वर महाराज द्वाराआशीर्वचन के रूप में संत कंवर राम की अध्यात्मक शक्तियों की चर्चा की , एवं सभी उपस्थित जन को प्रसाद वितरण किया गया।

काव्य गोष्ठी सत्र में --राष्ट्र वाद , अध्यात्म एवं संत साहित्य परम्परा पर सरस काव्यमय रचनाएँ पढी गईं । जिसकी अध्यक्षता प्रोफ नेत्र पाल सिंह ने की।

----डा श्याम गुप्त

शनिवार, 22 मई 2010

जीन व कृत्रिम जीवन की रचना...

जीवन की रचना---कृत्रिम जीवन -कोशिका की प्रयोगशाला में उत्पत्ति...

----अमेरिकी जीन वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोगशाला में जीवन की उत्पत्ति की सफलता , मानव की सफलताओं की कथा में एक और मील का पत्थर है | इस पर किसी धार्मिक आचार्य का कथन सटीक ही है कि सभी कुछ उस ईश्वर का ही कृतित्व है -मानव भी- अतः मानव द्वारा यह खोज भी ईश्वर की खोज का ही, ईश्वर द्वारा प्रदत्त, एक भाग हैजो मानव जीवन के ध्येयों में एक लक्ष्य है, अपने रचयिता की , विश्व के मूल प्रश्नों की खोज; एवं धर्म से इसका कोई विरोधाभाष नहीं है।
----इसके साथ ही विश्व भर में इस खोज की नैतिकता पर भी प्रश्न उठ खड़े हुए हैं, स्वयं वैज्ञानिक समुदाय द्वारा ही। इसके दुरुपयोग के भयंकर परिणामों, भयंकर अनुशासन हीन दुर्मानवों, अतिकाय मानव व जीवों की उत्पत्ति , मानवता के संकट के रूप में । यद्यपि टी वी समाचारों , समाचार पत्रों आदि में दिखाए गए अतिकाय मानवों के दृश्य , कथन आदि सिर्फ पाश्चात्य कथाएँ , सीरिअल्स , पिक्चर आदि से प्रभावित है जो स्वाभाविक है क्योंकि आज भारतीय प्राच्य ज्ञान की कोई पूछ ही नहीं है। जबकि भारतीय पुरा ज्ञान, वैदिक साहित्य में यह सब पहले से ही वर्णित है |
-----सृष्टा -ब्रह्मा का ही एक सहयोगी था 'त्वष्टा' जिसने यज्ञ द्वारा यह विद्या प्राप्त कर ली थी परन्तु वह उसकादुरुपयोग करने लगा था । वह यज्ञ द्वारा- हाथी का सिर -मानव का धड ; मानव का सर -जानवरों-पक्षियों का धड , विशालकाय मानव व पशु पक्षी उत्पन्न करने लगा था | त्रिशिरा नामक अति बलशाली दैत्य(तीन सिर वाला मानव=देव=दैत्य)
उसी का पुत्र था जिसका अत्याचार लिप्त होने पर इन्द्र ने वध किया था। तत्पश्चात ब्रह्मा द्वारा त्वष्टा ऋषि का ब्रह्मत्व ( ज्ञान ) छीन कर उसे निष्प्रभ कर दिया गया ।
----हमें सदुपयोग दुरुपयोग के मध्य की क्षीण रेखा का ध्यान रखना होगा , इतिहास से सबक लेकर।

संत साहित्य पर गोष्ठी....

अखिल भारतीय साहित्य परिषद् , उत्तर प्रदेश द्वारा संत साहित्य पर गोष्ठी ......


--अखिल भारतीय साहित्य परिषद् , उ प्र द्वारा संत कंवर राम के १२५ वें पुन्य तिथि पर दि- २३-५-१० रविवार को लखनऊ स्थित शिव शक्ति आश्रम, वी आई पी रोड , आलमबाग पर एक गोष्ठी का आयोजन किया गया है जिसका विषय है ॥" समाज सुधार में संत साहित्य का योगदान एवं संत कंवर राम "--आप सब आमंत्रित हैं । देखिये उपरोक्त आमंत्रण पत्र.

शुक्रवार, 21 मई 2010

वाल कविता ---क्या है?..

---- ९ वर्ष की एक बच्ची ने कविता लिखी ---"भोला किसान, बनिया शेतान " और वह कविता बाल कविता मान कर कोर्स की पुस्तकों में लगा भी दी गयी, यद्यपि अब सरकार ने उसे हटाने का निर्णय लेलिया है परन्तु प्रश्न उठाता है कि यह सब क्यों हुआ?---अज्ञान, भ्रमित ज्ञान , भ्रष्टाचार .
---हम पहले ही कह चुके हैं , कहरहे हैं कि "बाल कविता" का अर्थ --बालकों द्वारा लिखी कविता नहीं होता (वह "बालकों की कविता" है उसे प्रोत्साहन देना चाहिए लिखने के लिए उचित सीख द्वारा पर वह 'बाल-कविता'नहीं ) अपितु बड़ों द्वारा बालकों के लिए लिखी कविता होता है जिसमें बच्चों को खेल खेल में, या अन्य कथाओं , वर्णनों आदि से कोइ सीख दी जाय ।
---आज कल कुछ ब्लॉग लेखक , स्वयंभू बाल कविताकार , निरर्थक कवितायें व बच्चों द्वारा लिखी कविताओं को बाल कविता रूप में छाप कर बड़ा आनंद मना रहे हैं उन्हें सीख लेनी चाहिए इस घटना से ।

हम गुलामी नहीं भूलेंगे ----अंगरेजी पढ़िए -आगे बढिए ..वाह!!! क्या बात है हिन्दुस्तान ...

एक नयी मुहीम छेड़ी गयी है---अंग्रेज़ी को बढाने की हिन्दी को मिटाने की----तर्क यह है कि , रोज़गार पाना , अंग्रेज़ी का ग्लोब में एक खिड़की समझना , अंग्रेज़ी ज्ञान की बदौलत पूरी दुनिया में अपनी क्षमताओं का झंडा बुलंद करना--- ---अंग्रेज़ी चश्मे वाले लोग यदि हिन्दी अखवारों के , पत्रिकाओं के, संस्थानों के अन्दर प्रवेश कर लेंगे ( जोड़-तोड़ से) तो यही तो होगा , यही वे लोग हैं जो मैकाले के अनुसार -शक्ल से हिन्दुस्तानी व विचार, अक्ल, तर्क व ज्ञान से अँगरेज़ होंगे--एसे लोगों के कारण ही आज तक हिन्दी ( जो आज़ादी से पहले ही सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषा बन चुकी थी कहीं कोइ विरोध नहीं था , बाद में आगे नहीं बढ़ पाई और आज तक अंग्रेज़ी से पिछड़ती रही है ) राष्ट्र -भाषा नहीं बन पाई है। यह एक सुनियोजित षडयंत्र है हिन्दी के विरुद्ध ----
.---हिन्दी में प्रयोग होने वाले शब्दों का अखबार में खुले आम प्रदर्शन-जनता में भ्रम उत्पन्न करने का प्रयत्न है हिन्दी के विरोध में -( लोह पथ गामिनी =रेल ; दूरभाष यंत्र =फोन ;कंठ लंगोट =टाई ; अभी कालित्रा =कम्प्युटर ) क्या दिखाता है कि हिन्दी कठिन भाषा है ---कौन आज हिन्दी में इन शब्दों को प्रयोग करता है -- क्या हमने सीधे सीधे इन शब्दों को लेकर हिन्दी का मान व उसकी शब्दावली नहीं बढ़ाई है |
रोज़गार ---जिन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद विदेश जाना हो , विदेशियों की सेवा करने हो वे अंग्रेज़ी का ज्ञान प्राप्त करें --कितने लोग एसे हैं और क्यों हों, क्यों सब अंग्रेज़ी पढ़ें , क्यों घर में भी बातचीत अंग्रेज़ी में करें ? --भारत की सोफ्ट वेयर कम्पनियां क्या अमेरिका की टाइपिंग , मनेजिंग गुलामी ही नहीं कर रहीं | गुलामी की खीर अच्छी या अपनी रोटी |
।- ग्लोबल खिड़की ---समझना अंग्रेज़ी को--आज हिन्दी में दुनिया भ्रर का साहित्य , विज्ञान , ज्ञान मौजूद है ;हमारी अपनी भाषा संस्कृत उच्चतम खिड़की मौजूद है क्यों न हम उस खिड़की को अपना बनाकर देखें ; फिर हम क्यों दुसरे की खिड़की से झांकें अपनी खिड़की क्यों न बनाएं , पकी पकाई खीर क्यों खाए । दूसरे की खिड़की से झांकने के साथ दूसरे की सभ्यता, संस्कृति, बुराइयां आती हैं जिसका कुफल आज भारत भारतीय समाज भोग हा है | क्यों नहीं हम --बुद्ध के, भारतीय मनीषा के घोष नाद को अपनाते --" अप्प दीपो भव "
.-अपनी क्षमता का डंका या अच्छी तरह गुलामी करने की क्षमता ---आज सारा देश, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नौकरी कर रहा है , सारा देश , आई टी क्षेत्र , अमेरिका अन्य देशों की क्लर्की कर रहा है , प्रोजेक्ट उनके पूरा हम करें , काम उनका -कम्प्युटर पर टाइप हम करें , कौन सी क्षमता की बात की जारही है --जी तोड़ कर , रात रात जाग कर गुलामी करके पैसा कमाने की क्षमता , जो वे इसलिए हमें देते हैं कि उनके यहाँ मजदूरी बहुत अधिक है, वे अपने लोगों को अन्य उच्च क्षमता वाले कार्य में लगा सकें एवं हम सदा मज़दूरी ही करतें रहें |आज कौन सा सोफ्टवेयर इंजीनियर हैएक कम्प्युटर क्लर्क का काम नहीं कर रहा और इतरा रहा है कि हम इंजीनियर हैं ,अमेरिका रिटर्न हैं |
---वस्तुतः यह एक नवीन षडयंत्र है अंग्रेज़ी का हिन्दी के विरुद्ध --हमें सावधान होजाना चाहिए | इस पोस्ट का अगला भाग ---कविता" - हिन्दी यह रेल जाने चलते चलते क्यों रुक जाती " लखनऊ ब्लोगर्स अस्सोसिएशन । के ब्लॉग पर देखें |

बुधवार, 19 मई 2010

डा श्याम गुप्त की कविता ---भरम....

भरम

जहां पर शब्द रुक जाए , अशब्द स्वर भाष होता है।
मूक जब वाच्य होजाए,जन्म अभिनय का होता है।
नहीं होती जहां भाषा, मुखर तब मौन होजाता,
जहां आलेख चुक जाए, वहां संकेत होता है ॥

प्रेम में भाव धारण हो, भक्ति आकार लेती है।
भक्ति से, प्रेम तप से , साधना साकार होती है
नहीं होती कोइ भाषा, ईश के कार्य कारण की ,
भक्त तन्मय हो तन-मन से,कामना पूर्ण होती है


गर्व जब प्रेम-भक्ति का, ज्ञान- अध्यात्म का होता।
वहां सब कुछ सभी हो पर, वहां ईश्वर नहीं होता।
एक तिनका बनाने की , तुझे हिम्मत नहीं रे नर !
बता किस बात का तुझको, तू सब कुछ है भरम होता ॥

मंगलवार, 18 मई 2010

जेीन, उम्र व सन्स्कार ....


आज विग्यान ने जीन की खोज की है कि -जिसका जैसा जीन उसकी उतनी उम्र- वाह क्या खोज है? दुनिया जाने कब से जानती है कि जिन खानदानों में पुरखे जैसी (लम्बी या कम ) उम्र के होते हैं वैसे ही उनके पीढी के बच्चे |
----बचपन में हमारे ननिहाल मे कलुआ धोबी चचा कहा करता था कि ( हम शहर के बच्चों को अक्सर वहुत सी बातों का गुरु ज्ञान देता रहता था ) बबुआ, जैसा बाप वैसा पूत , ये तो बाप-दादों के गुन बच्चों में आते ही हैं संस्कार, मन व काया में समाये रहते हैं और बोलते हैं |
---युगों पहले अथर्व वेद का ऋषि कह गया है--" त्रिते देवा अमृजतै तदैवस्त्रित एत्न्मनुश्येषु ममृजे |" मनसा, वाचा, कर्मणा से किये गए कार्यों को देव ( इन्द्रियाँ ) त्रित ( मन ,बुद्धि, अहंकार ) में रखतीं हैं | ये त्रित इन्हें मनुष्य की काया में आरोपित करते हैं । तथा----"द्वादशधा निहितं त्रितस्य पापभ्रष्टं मनुष्येन सहि |" अर्थात त्रित -मन, बुद्धि, अहंकार -का कृतित्व बारह स्थानों में --- दश इन्द्रियाँ , (मन के) चिंतन व स्वभाव---संस्कार ( जेनेटिक करेक्टर ) में आरोपित होता है; वही मनुष्य की काया में आरोपितहोता है व प्रभावी होता है |

शुक्रवार, 14 मई 2010

डा श्याम गुप्त की कविता ---मैं आत्म हूँ.....

मैं आत्म हूँ ,
सर्व भूतेषु आत्मा ;
जड़ जंगम जीव में अवस्थित
उनका स्वयं , उनका अंतर ।

प्रत्येक भूत का लघुतम अंश या कण
विज्ञानियों का एटम या परमाणु ,
मैं ही हूँ ;
मैं एटम का भी आत्म हूँ ,
उसकी क्रियाशीलता, क्षमता, आत्मा
मैं आत्म हूँ ।

सब मुझमें है, मैं सब में हूँ ,
परिभू, स्वयं भू ;
सृष्टि से पहले भी ,सृष्टि के अंतर में,सृष्टि के बाद भी,
मैं आत्म हूँ।

अक्रिय,अकर्मा, अव्यक्त, अविनाशी ,असद चेतन सत्ता,
कारणों का कारण , कारण ब्रह्म, परब्रह्म ;
दृष्टियों की दृष्टि,दृष्टा, परात्पर,
'वेदानामपि गायन्ति'
मैं आत्म हूँ।

सृष्टि हितार्थ भाव संकल्प मैं ही हूँ,
आदि नाद से व्यक्त सगुण ब्रह्म -
ईश्वर, परमात्मा , हिरण्यगर्भ मैं ही हूँ ;
मैं आत्म हूँ।

'एकोहम बहुस्याम ' जनित -ओउम ,
व्यक्ति आदि शक्ति,अपरा , माया -
प्रकृति व जगत की प्रसविनी शक्ति -
मैं ही हूँ , और-
परा रूप में -
प्रत्येक जड़, जीव, जंगम में प्रविष्ट ,
उनका स्वयं , उनका अहं म चेतन तत्व , आत्म तत्व मैं ही हूँ ;
मैं आत्म हूँ ।

जीवधारी, प्राणधारी रूप में-
जीवात्मा, प्राण, आत्मा ,
कर्मों का कर्ता ,
सुख-दुःख लिप्त फलों का भोक्ता
संसार चक्र उपभोक्ता मैं ही हूँ ,
मैं आत्म हूँ।

सत्कर्म संचित -
ज्ञान, बुद्धि, मन ,संस्कार प्राप्त -
मानव, मैन ,आदम, मनुष्य मैं ही हूँ;
मुक्ति,मोक्ष,कैवल्य आकांक्षी ,
मुक्ति प्राप्त, आत्मलीन,हिरण्यगर्भ लीन
परमात्व तत्व मैं ही हूँ ।
लय में -'अनेक से एक' इच्छा कर्ता-
प्रकृति , संसार, माया को स्वयं में लीन कर,
पुनः -अक्रिय, असत,अव्यक्त,सनातन,
परब्रह्म मैं ही हूँ।

ईश्वर, जीव , माया,ब्रह्म ,
सार,असार, संसार
शिव विष्णु ब्रह्मा
सरस्वती लक्ष्मी काली
शिव और शक्ति
पुरुष और प्रकृति
जड़ जीव जंगम --मैं ही हूँ
मैं आत्म हूँ,
मैं आत्म हूँ ॥

सोमवार, 10 मई 2010

वाह..भई वाह... माँ..

--क्या मां ने इन्हें एसे कपडे पहनने को कहा था ------->
तो फिर क्या याद करना क्या भूलना।







----माँ के बहाने पूरी दुनिया को जीतने का अहं -प्रचार , मौत से हारने जैसी सुनुश्चित बात का क्या कहना क्या प्रचार, बस कुछ कहना है चाहे कोइ अर्थ निकले या न निकले ?------->

शनिवार, 8 मई 2010

सामाजिक सरोकार-नारी शक्ति --डा सरोज चूडामणि --कुलपति चिकित्सा महा विद्यालय .....

--आज जहां अधिकाँश चिकित्सक , चिकित्सा अफसर , चिकित्सा -अध्यापक - इस प्रकार के गैर चिकित्सकीय , स्वयं के लिए नॉन-प्रोडक्टिव कार्यों से बच कर अपनी प्राइवेट -प्रेक्टिस में अधिक रूचि रखने में रूचि रखते हैं ; वहीं चिकित्सा महाविद्यालय की वर्त्तमान कुलपति की प्रशंसा करनी होगी कि वे लगातार आकस्मिक निरीक्षण करके कुछ उचित दिशा दे रही है। टाइल्स उखाड़ने वाले जैसे कार्य की जांच का कार्य उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता व अन्य चिकित्सकों के लिए दिशा देने जैसा कार्य है, वे बधाई की पात्र हैं।
अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर ख्याति प्राप्त जनरल सर्जन व बाल रोग सर्जन कुलपति डा सरोज चूडामणि - भारत की प्रथम महिला जनरल सर्जन व प्रथम महिला बाल-रोग सर्जन है। वे कुलपति के गुरु-गंभीर दायित्व के साथ साथ अपना चिकित्सक व अधिकारी का दायित्व कुशलता से निभाना जानती हैं , जो उनके समय समय पर किये गए कार्यों से परिलक्षित होता रहता है। मैंने उन्हें अपने चिकित्सा -विद्यालय - एस.एन. मेडीकल कालेज आगरा के सीनियर के रूप में ,कालेज दिनों से ही देखा है कि वे सदैव ही धुन की पक्की , कठोर परिश्रमी प्रतिभाशाली क्षात्र, सहृदय व्यक्तित्व , कुशल व सक्षम चिकित्सक एवं अनुशासक अधिकारी रही है। ऐसी नारी शक्ति को सलाम।

शुक्रवार, 7 मई 2010

चेतना, चिंतन और अंतःकरण चतुष्टय .....डा श्याम गुप्त का .आलेख

चेतना, चिंतन और अन्तःकरण चतुष्टय अध्यात्म वृत्तियों का महत्त्व

सार्वभौम सत्ता परब्रह्म परा व अपरा सत्ताओं में स्वयं को व्यक्त करती है। अपरा अर्थात प्रकृति या माया से समस्त तत्वों का निर्माण होता है जिससे जड़ व जीव जगत की उत्पत्ति होती है। परा, पुरुष या चेतन -स्वयं को प्रत्येक तत्त्व में चेतन रूप में स्थापित है तभी तत्व क्रिया योग्य होता है एवम निर्जीव सृष्टि से मानव तक का विकास क्रम बनता है।सृष्टि महाकाव्य में कवि वर्णन करता है---
"शक्ति और इन भूत कणों के ,
संयोजन से बने जगत के,
सब पदार्थ और उनमें चेतन,
देव रूप में निहित होगया;
भाव तत्व बन,बनी भूमिका-
त्रिआयामी सृष्टि कणों की।।" ......अशांति खंड से ( सृष्टि महाकाव्य )
अतः निर्जीव व जीव प्रत्येक पदार्थ में चेतन सत्ता( जिसे वस्तु का अभिमानी देव,स्वत्व या आत्म कहते हैं ) विद्यमान होती है। बस उसका स्तर भिन्न भिन्न होता है । ब्रह्माण्ड, ब्रह्म की चेतना का अपार भण्डार है।
चेतना के चार स्तर होते हैं -- आत्म चेतना,अचेतन, अवचेतन ,चेतन। निर्जीव पदार्थों में चेतना सिर्फ आत्म स्तर तक होती है अतः वे शीत, गर्मी आदि के अनुभव पर प्रतिक्रया व्यक्त नहीं करते। वनस्पतियों में अचेतन तक दो अवस्थाएं होने वे प्राणियों के भावों को नहीं समझ पाते एवं सिर्फ जीवन क्रियाएं व गति तक सीमित रहते हैं ।
पशु पक्षियों में अवचेतन सहित तीन स्तरों तक चेतना होती है परन्तु चेतन स्तर न होने से चिंतन की चेतना नहीं होती। मानव में चेतना के चारों स्तर होने से वह चिंतन प्रधान प्राणी व सृष्टि में ईश्वर या विकास की सर्वश्रेष्ठ कृति है।
मानव में चिंतन --जाग्रति व सुषुप्ति , दोनों अवस्थाओं में चलता रहता है। सुचिन्तन से नए-नए विचार व परमार्थ चिंतन से उत्तरोत्तर प्रगति व विकास की प्रक्रिया बनती है। परन्तु वही चिंतन यदि ,तनाव पूर्ण स्थिति में हो व स्वार्थ चिंतन हो वह चिंता में परिवर्तित होजाता है, जो शारीरिक, मानसिक अस्वस्थता का व जीव के नाश का कारण बनता है। इसीलिये चिंता को चिता सामान कहागया है।
मानवी अन्तः करण को चेतन प्रधान होने के कारण चित या चित्त, सूक्ष्म शरीर स्व ( सेल्फ) भी कहा जाता है। इसी को व्यक्ति की मानसिक क्षमता भी कहते हैं। मन, बुद्धि, अहं -इसकी वृत्तियाँ हैं । इन चारों को सम्मिलित रूप में अन्तः करण चतुष्टय कहा जाता है, जो मानव शरीर में चेतना की क्रिया पद्धति है। किसी कार्य को किया जाय या नहीं ,यह निर्धारण प्रक्रिया चेतना की क्रमशः मन, बुद्धि, चित, अहं की क्रिया विधियों से गुजरकर ही परिपाक होती है।
मन--की प्रवृत्ति सुख की उपलब्धि व दुःख की निवृत्तिमय होती है। मन , आकर्षण व भय के मध्य ,अन्तःवर्ती इच्छाओं , सरस अनुभूतियों व ज्ञान की परिधि के भीतर रहकर किसी कार्य के पक्ष या विपक्ष में विभिन्न कल्पनाओं द्वारा , संकल्पों व विकल्पों की एक तस्वीर प्रस्तुत करता है, ताकि चेतना का अगला चरण बुद्धि उचित निर्णय ले सके।
मन के तीन स्तर होते हैं--चेतन, अवचेतन, अचेतन | चेतन स्तर की क्रियाएं अहं भाव से युक्त व मानसिक क्षमता का १०% होती हैं। अवचेतन अचेतन स्तर में अहं भाव लुप्त रहता है एवं इसकी क्षमता असीमित होती है। जब मन शुद्ध व निर्मल होकर चेतना के उच्चतम शिखर पर पहुंचता है तो वह आत्म-साक्षात्कार,ईश्वर प्राप्ति व समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर पाता है। कुछ लोग ( यथा-महर्षि अरविंद ) इसे अति चेतना का स्तर भी कहते हैं।
मन अपने तीन गुणों -सत्व, तम, रज एवं पांच अवस्थाओं --सुषुप्ति, जागृत, एकाग्र,तमोगुनात्मक एवं विक्षिप्ति -के अनुसार चेतना के स्तर के समन्वय से किसी कार्य का संकल्प या विकल्प बुद्धि के सम्मुख प्रस्तुत करता है।
बुद्धि---मन के द्वारा सुझाए गए संकल्पों व विकल्पों का उचित मूल्यांकन करके उचित, उपयोगी व ग्राह्य का निर्णय करती है, जो बुद्धि के पांच स्तरों के अनुरूप होते हैं --. साधारण--सामान्य ज्ञान जो पशु-पक्षियों में होता है। .सुधी-पशु-पक्षी से ऊपर विचार शीलता जो सभी मानवों में होती है . मेधा --विद्वता, संकल्पशीलता,उच्चा वचार, सद-विचार , धर्म-कर्म परमार्थ भाव सम्पन्न करने वालों की बुद्धि | . प्रज्ञा -हानि-लाभ में सामान रहने वाले भाव -युत ,समत्व भाव से युक्त बुद्धि | .- ऋतंभरा ( धी )--जिसमे मात्र औचित्य आदर्श ही प्रधान रहता है; समाधि अवस्था, विदेह,कैवल्य या ब्रह्मानंद अवस्था
चित या चित्त---आत्मा का वह स्वरुप है जिसका मुख्य स्वरुप स्मृति व धारणा है। बुद्धि द्वारा उचित ठहराए जाने पर भी वह कार्य क्रिया रूप में परिणत नहीं होता | विचार को प्रयास में परिणत चित्त करता है। विभिन्न विचारों व कार्यों को चिरकाल तक करते रहने के फलस्वरूप उनके समन्वय से जो स्वभाव , भले-बुरे संस्कार ,आदतें , धारणाएं बनती हैं उन्हीं की स्मृति के अनुरूप बुद्धि द्वारा दिए गए निर्णय को चित्त प्रयास में परिणत करता है | यही चित्त स्वायत्तशासी संस्थानों ( ओटोनौमस बोडी सिस्टम्स ) काया संचालन व आतंरिक क्रियाएं --ह्रदय, आंत्र,रक्त-संचार, श्वशन आदि का संचालन करता है जो अचेतन स्तर पर होता है। योग व हठयोग में इन्ही वृत्तियों का निरोध किया जाता है।
अहं ---चेतना की इस पर्त में स्वयं के सम्बन्ध में मान्यताएं व धारणाये स्थित होती हैं। आत्म-अस्तित्व , ईगो ,अपना दृष्टिकोण , स्व-सत्ता की अनुभूति व व्यक्तित्व इसी को कहते हैं। आस्था व निष्ठा का यही क्षेत्र है। विभिन्न इच्छाएं ,ज्ञान , अभ्यास व वातावरण आदि के कारण जीवात्मा के ऊपर जो आवरण चढ़ा होता है वह यही अहं है। यह चित्त की धारणाओं व निर्णयों को भी प्रभावित करता है। यह अहं अथवा आत्म बोध , अन्तः करण का प्रतिरक्षा तंत्र है जो आतंरिक द्वंद्वों को अवचेतन स्तर पर भांपकर उस कार्य से ( चाहे चित्त ने मान्यता दे दी हो) पलायन, दमन, शमन ,युक्तिकरण,रूपांतरण , उन्नयन, अवतरण या तादाम्यीकरण द्वारा प्रतिरक्षा के उपाय करता है, तथा अंतर्द्वंद्वों का निरोध कर लेता है। कुंठा, असफलता के कारण -बहाने बनाना , झूठ बोलना, शेखी बघारना, विभिन्न मनोरोग अदि इसी अहं के निर्बल होने से होती हैं। स्वभावगत शौर्यता, खतरा उठाने की क्षमता, सरलता, सज्जनता आदीं इसी अहं के सुद्रड होने के चिन्ह हैं।सन्क्षेप में चेतना की प्रतिक्रियाओं का बाह्य प्रतिफलन रूप जो व्यक्तित्व को विखंडित होने से बचाती है अहं है। जिसका कार्य रूप में प्रतिफलन , सुद्रडता या दुर्बलता के कारण , अकर्म, दुष्कर्म या सत्कर्म कुछ भी होसकता हो।
योग आदि द्वारा सुद्रड़ निर्मल अहं में कुसंस्कारों का उन्मूलन व सुसंस्कारों का प्रतिष्ठापन व श्रृद्धा, भक्ति आदि भावों के संचार किये जा सकते हैं। भक्ति द्वारा ईश्वर को आत्म समर्पण में इसी अहं को नष्ट किया जाता है। ईश्वर चिंतन अध्यात्म, आत्म-ज्ञान द्वारा इसी अहं को सुद्रड़, सन्तुष्ट व सुकृत किया जाता है।
अंतःकरण के इन चारों स्तरों से छन कर ही मानव के विचार कार्य रूप में परिणत होते हैं| ईश्वर,ज्ञान, योग, भक्ति, परहित चिंतन आदि का उद्देश्य चेतना के प्रत्येक स्तर को सुद्रिड, सबल , निर्मल व अमल बनाकर अहं को नियमित करना है ,ताकि कर्म का प्रतिफलन सुकर्म के रूप में ही प्रवाहित प्रस्फुटित हो, और मानव का उत्तरोत्तर विकास हो | यही अध्यात्म वृत्तियों की महत्ता है।

सामाज़िक सरोकार,--रिश्ते , तोड़ना-बनाना ....


---अब देखिये एक सुन्दर, आवश्यक, सामयिक, सामाज़िक विषय पर लिखी गई यह पुस्तक भी है तो क्या "कम बिफ़ोर ईवनिन्ग फ़ाल्स"---क्या खाप , पन्चायत, हरियाणा की व देश की सामान्य जनता के लिये लिखी गई ( यदि यही मंशा है तो) यह पुस्तक -अन्ग्रेज़ी मै है( पता नहीं चला रहा समाचार से ) क्यों ? हिन्दी में है तो शीर्षक अंग्रेज़ी में क्यों ? होगया सारा किया कराया 'गुड-गोबर' लेखिका का कथन भीस्वयम भ्रामक है- -" यह हमारा भ्रम है किहम रिश्ते बनाते और तोडते हैं, सच तो यह है कि रिश्ते हमें तोडते और बनाते हैं॥" --- महोदया--- क्या रिश्ते आपको तोडने -बनाने के लिये स्वयम बनजाते हैं? पहले कुछ रिश्ते आप ही बनाते हैं, अन्य स्वयम बनजाते हैं, जन्म के रिश्ते स्वयम बनते हैं जो मनुश्य को तोडते नहीं, जोडते हैं। हां, मनुष्य द्वारा अवैधानिक, लालच वश, भ्रम वश, स्वार्थ वश बनाये गये-तोडे गये रिश्ते, उसे अवश्य ही तोडते हैं ।---क्या-क्या कहादेते है झोंक में या....

गुरुवार, 6 मई 2010

साहित्य में आलोचना की अनुपस्थिति ----आलोचना/समालोचना/ त्रुटियाँ .....

एक समय था जब बड़े बड़े साहित्यकार व कवि एक साथ बैठकर एक दूसरे की कविता/रचना सुनते थे एवं समालोचनात्मक विचार विनियम , बहस करते थे |एक दूसरे की कविता में मौजूद कलापक्ष की, भाव पक्ष की, अर्थ -भाव , कथ्य व तथ्यात्मक त्रुटियों को इंगित करते थे, इससे साहित्य , कविता व कवि के ज्ञान, काव्य कला व स्वयं की त्रुटियों का ज्ञान होता था । आजकल कवि व साहित्यकार अपनी आलोचना ज़रा भी नहीं सुनना चाहते अपितु त्रुटि बताने वाले से अनुचित व्यवहार तक पर उतर आते हैं, मूलतः अधिकांस कवि तो कौन बुरा बने के अनुसार वाह वाह व ताली पीट कर्म व एक दूसरे की पीठ थपथपाने में रहते हैं , वे और उनकी त्रुटि व कविता जाय भाड़ में हमें क्या लेना-देना | अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने की हवा में , एवं कवि सबकुछ लिख सकता है की गलत फहमी में वे अन्यान्य तथ्यात्मक त्रुटि किये जाते हैं , एवं तमाम व्यर्थ की त्रुटियों से पूर्ण रचनाएँ व कृतियाँ प्रकाशित होरही हैं। | यही कारण है कि आज कविता, न तो श्रेष्ठ ऊंचाई पर जा पा रही है न श्रेष्ठ साहित्य की रचना हो पा रही है, न जन-जन तक नहीं पहुँच पा रही है। ये कवि प्राय: अधिकार व लाभ की स्थिति पर, सोर्स वाले होने से स्वयं को श्रेष्ठ दिखाना चाहते हैं एवं सुधार नहीं करना चाहते। उदाहरण के लिए एक कवि महोदय गरीबी का भावुक वर्णन करते हुए लिखते हैं---" पेट पीठ मिल एक होगये किन्तु हँसपाए "-- अब बताइये क्या भूख से बेहाल ,कंकाल होजाने पर हंसना चाहिए , जो वे न हँस पाए। पर वे नहीं मानेंगे क्योंकि तुक नहीं बैठेगी और सारी कविता ही बदलनी पड़ेगी क्योंकि यह कविता का मुखड़ा है।

चांद को दर्पण !!


एक कोई स्वयम्भू तथाकथित साहित्यकार है -राजेन्द्र यादव, जिनका कहना है( देखिये संलग्न चित्र-कथन)- कि कोई रासो, मतिराम , बिहारी को क्यों पढे--गालिव व मीर को ही साहित्य में पढाना चाहिये| डेढ सौ साल से पुराना साहित्य ताले में बन्द करदेना चाहिये। और तुलसी को अल्मारी में । ये लोग वास्तव में अपने मस्तिष्क को अल्मारी में बन्द रखकर आते हैं । क्या इन्हें पता नहीं कि गालिव की अधिकतर गज़लें कठिन फ़ारसी मिश्रित भाषा में हैं जिसे समझना टेडी खीर है, अधिकतर साहित्यकार उनके हिन्दी अनुवाद ही पढकर खुश हो लेते हैं।---वास्तव में तो एसे लोगों को डर है कि जब तक सूर-तुलसी जगमगाते रहेंगे इन जुगुनुओं ( साहित्य में सूर, तुलसी, केशव पहले ही सब स्थान घेरे हुए हैं), तिनकों , पत्तों को कौन पूछेगा।---पुरानी कविता है---: " सूर सूर तुलसी शशी, उडुगन केशव दास, अब के कवि खद्योत सम जहं तहं करहिं प्रकाश "---अबसोचिये वे कहां हैं आजकल इतने जुगनुओं में , इसी का डर है, तुलसी से। अब मेरी नई कविता सुनिये, आज ही बनी है-----
"एक ज़र्रा चलपडा है, चांद को दर्पण दिखाने,
कोई
जुगनूं चाहता है, सूर्य को ही चौंधियाने।
सूर
-तुलसी की वे तुलना, गालिवों से कर रहे,
मसखरे
वे कौतुकों को काव्य-कविता कहरहे॥"

बुधवार, 5 मई 2010

सामाज़िक सरोकार---- अंधी गलियां..ये भी कोइ केरिअर है...तथा नाटक .

.--दुनिया के सबसे पुराने धंधे -अदाएं दिखाकर व शरीर दिखाकर पुरुष या जग को लुभाना ( ग्लेमर)--के प्राचीन , पुराने रूप को समाप्त करने के लिए जाने क्या-क्या नहीं किया गया | अब उसी का नवीन , आधुनिक रूप, माडलिंग --करियर बनकर--बनाकर- सामने आरहा है, लाया जारहा है !!!! क्यों ?? इसी के भयावने प्रभाव ---कभी माल से गिरती क्षात्रा, कभी कवयत्री का मर्डर, कभी महिला क्षात्रावासों,सुधार गृहों में सेक्स रेकिट के रूप में बार-बार आपके सामने आता है। ----उंगली पकड़ कर हाथ पकड़ना पुरानी कहावत है ।

२.---आप चिल्लाते रहिये हिन्दी-हिन्दी-- आपके हिन्दी प्रदेश में ही, हिन्दुस्तानी जनता के लिए , हिन्दी का नाटक हम तो अंगेरजी शीर्षक में ही दिखाएँगे---डांस लाइक मैन---डेथ गेम ---सेल्स मेन राम लाल | तुर्रा यह कि हम सामाजिक सरोकारी लोग हैं | जब अंग्रेजों की ही कापी वाले नाटक हैं तो शीर्षक का क्या दोष |

सोमवार, 3 मई 2010

सेक्स-काम , मोरेलिटी-सदाचरण व खजुराहो पर प्रतिबन्ध ......


<--चित्र १... एवं ............चित्र २------>
---"सेक्स मोरालिटी एंड सेंसरशिप " भला ये भी कोइ नाटक या पब्लिक शो का विषय हुआ?
ये सेक्स से अनभिग्य , काम कुंठित, अकिंचन, निच्च -दर्जे की विचार धारा वाले ( अपितु बिना विचार धारा वाले , विदेशी सोच व अंग्रेज़ी में सोचने वाले ) स्वयं में कुंठित व दयनीय स्थिति वाले लोग , जिन्हें करने को कोइ और उत्तम कार्य व विषय व धंधा नहीं मिल पाता --इसी प्रकार के मूर्खतापूर्ण कार्यों को धंधा बनाकर , मूर्खतापूर्ण, कृत्य , वक्तव्य व मांगें करते रहते हैं ,अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर समय वर्वाद करते हैं , लाइम लाईट में आने , अखबारों में छाने के लिए.।
---ये लोग प्राय: खजुराहो के नाम पर देश समाज को ब्लेकमेल गुमराह करते हैं। परन्तु वे यह नहीं सोच पाते कि खजुराहो एक विशिष्ट स्थान पर , गुफाओं में जन सामान्य से, बच्चों से दूर बना हुआ है , बाज़ार , मंच या पब्लिक में नहीं | अपने बेड रूम में सभी नंगे होते हैं , सोते हैं, सब कुछ करते हैं, पढ़ते, विचारते , देखते व आपस में डिस्कस करते हैं ; परन्तु मंच पर यह सब करना गैर कानूनी है | काम स्वयं में एक पवित्र भावना व अत्यावश्यक कर्म है परन्तु उचित स्थान, समय , तरीके से।
----- अब देखिये/पढ़िए चित्र -. इसी काम, काम वासना , कामेश्वर, कामेश्वरी, को कितने सुन्दर , सार्थक, विवेकमय रूप से करना मंगलमय व धर्म सम्मत कहा गया है, ललिता सहस्र नाम में |
----इसे कहिये---- ईस्ट इज ईस्ट , वेस्ट इज वेस्ट--सोच की ऊंचाई व नीचाई ; उथलापन व गहराई ; सिर्फ सतही -ज्ञान और प्रज्ञा-विवेक का फर्क ।

रविवार, 2 मई 2010

डा श्याम गुप्त की गज़ल..

                     गज़ल

उनके अश्कों को पलकों से चुरा लाये हैं ।
उनके गम को हम खुशियों से सजा आये हैं ।

आप मानें या न मानें ये तहरीर मेरी,
उनके अशआर ही गज़लों में उठा लाये हैं।

उस दिये ने ही जला डाला आशियां मेरा,
जिसको बेदर्द हवाओं से बचा लाये हैं ।

याद करने से तो दीदार न होता उनका,
यूं ही यादों में तडपने की सज़ा पाये हैं ।

प्यार में दर्द का अहसास कहां होता है,
प्यार में ज़ज़्ब दिलों को ही ज़ख्म भाये हैं ।

प्रीति है भीनी सी बरसात, क्या आलम कहिये,
रूह क्या अ्क्स भी आशिक का भीग जाये है ।

श्याम, करते हैं सभी शक मेरे ज़ज़्बातों पै,
हमने तो दर्द के नगमे सदा ही गाये हैं ॥


शनिवार, 1 मई 2010

सामाजिक सरोकार --२...बालश्रम-अपराध का अधुनातम रूप ---खतरे में बचपन...

-----हमें सदैव भिखारी, होटलों में कार्यरत, बर्तन मांजते हुए गरीब बच्चे ही बाल श्रम के अत्याचार सहते हुए दिखाई देते हैं | ज़रा गौर फरमाइए ---स्कूलों में टीचरों की अनावश्यक बेगार करते हुए बच्चे, टी वी पर जबरदस्ती माँ बाप द्वारा अनजाने में , शौक में , गर्व व शान प्रदर्शन में, शीघ्रातिशीघ्र मोटी कमाई व प्रसिद्धि के चक्कर में भेजे गए बच्चे --हारने पर रोते हुए , जीतने पर गर्व करतेहुए , व्यर्थ के प्रोग्राम बनाने व चलाने वालों की जी हुजूरी करते हुए, जबरदस्ती बिना सोचे समझे सेक्सी गीत गाते हुए, सेक्सी ड्रेस पहनते हुए , दिन -रात रगड़ कर श्रम करते हुए , अपना बचपन, खेलना -खाना, मस्त रहना खोते हुए बच्चे--- क्या बाल श्रम के अत्याचार से पीढित नहीं लगते |
क्या आपको नहीं लगता कि बच्चों के बचपन को नष्ट करके उन पर अत्याचार किया जा रहा है| बच्चों की कीमत पर सभी( सम्बद्ध संस्था, लोग, कलाकार आदि ) अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं व मोटा- माल कमा रहे हैं | अब तो विकलांग बच्चों के प्रदर्शन से भी पैसा कमाने के तरीके खोज लिए गए हैं ।