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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

यूंही राहों में----डा श्याम गुप्त का गीत---

यूं बिछुड करके फ़िर से यूं मिल जायंगे,
प्रीति के बंधन फ़िर से यूं जुड जायंगे।
यह तो हमने कभी भी था सोचा नहीं,
चलते चलते यूं राहों में मिल जायंगे॥

मैं समझता रहा बस यूंही आज तक,
जाने फ़िर से मुलाकात हो या न हो ।
ये तो कुदरत की ही है कुछ बाज़ीगरी,
हमको है ये यकीं तुम को हो या न हो॥

दो कदम ही तेरे साथ चल पाये थे,
बस कदम अपने यूं लडखडाने लगे।
जब से राहें ही सारी, जुदा होगईं,
गुनुगुनाने लगे, गीत गाने लगे ॥

मैने सोचा न था चलते सीधी डगर,
फ़िर से तेरी ही गलियों में मुड जायंगे।
मैने सोचा नहीं था जुदा रास्ते,मुड के-
इस मोड पर फ़िर से मिल जायंगे॥

श्याम गुप्त केी कविता.....परिस्थिति और व्यवस्था

परिस्थिति और व्यवस्था

पकडे जाने पर चोर ने कहा-
मैं एसा था ,
परिस्थितियों ने मुझे एसा बनाया है ,
व्यवस्था , समाज व भाग्य ने-
मुझे यहां तक पहुंचाया है।
मैं तो सीधा साधा इन्सान था
दुनिया ने मुझे एसा बनाया है ।

दरोगा जी भी पहुंचे हुए थे,
घाट-घाट का पानी पीकर सुलझे हुए थे;
बोले, अबे, हमें फ़िलासफ़ी पढाता है,
चोरी करता है, और-
समाज की गलती बताता है।
परिस्थितिया भी तो इन्सान ही बनाता है,
व्यवस्था और समाज़ इन्सान ही तो चलाता है।
इसी के चलते तेरा बाप तुझे दिनिया में लाया है;
मां बाप व समाज ने पढाया है, लिखाया है।
फ़िर भाग्य और परमात्मा भी तो इन्सान ने बनया है,
घर में, पहाडों में मन्दिरों में बिठाया है।

व्यवस्था के नहीं, हम मन के गुलाम होते हैं,
व्यवस्था बनाते हैं फ़िर गुलाम बनकर उसे ढोते हैं।
परिस्थितियों से लडने वाले ही तो इन्सान होते हैं,
परिस्थितियों के साथ चलने वाले तो जानवर होते हैं।
तू भी उसी समाज़ का नुमाया है,
फ़िर क्यों घबराया है;
तू भी इसी तरह फ़िर उसी व्यवस्था को जन्म देगा;
अतः पकडा गया है तो,
सज़ा तू ही भुगतेगा ॥