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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

आलोचना २.----वचन दोष व जन सामान्य व कविता -----

---उपरोक्त कवितायेँ पंजाब के सुप्रसिद्ध कवि श्री सुरजीत सिंह 'पातर' की हैं, जिन्हें हाल ही में सरस्वती सम्मान दिया गया है | दोनों कवितायेँ क्या आप की समझ में आती हैं ? सामान्य जन क्या उनका अर्थ समझा पायेगा?
--पहले आदिका को लें ---यह मेरे रक्त के लिपि के उदास अक्षर......(यह= ये होना चाहिए क्योंकि कवि सब कुछ बहुबचन में प्रयोग कररहा है --हो सकता है यह पंजाबी से हिन्दी अनुवादक महोदय के हिन्दी ज्ञान का उदाहरण हो )...क्या सामान्य व्यक्ति ( वास्तव में जिसे समझाने के आवश्यकता है ) इस कठिन कविता के अर्थ को समझ पायेगा ? अब विद्वान् साहित्यकार सोचेंगे व कहेंगे कि--रक्त की लिपि ...=कवि या जनता के परेशान मन से उठे सवाल, लेख आदि; अँधेरे के शब्द= मन व समाज में फैले अन्धकार के आवाज़; उदास उपनिषद् = शास्त्रीय मर्यादाओं का हनन .......आदि-आदि |
----बूढ़ी जादूगरनी को लें --क्या आप कुछ समझ पाए, क्या जन सामान्य इसके गूढार्थ समझ पायेगा | अब शास्त्रकार , साहित्याचार्य --कह सकते हैं कि यह बूढ़ी जादूगरनी- अमर्यादा, अनैतिकता, आतंकवाद, या कुत्सित राज़नीति , या फिर किस्मत आदि आदि हो सकती है , जो पुनः पुनः नए-नए रूप धरकर आती रहती है , चिर युवा --क्या सामान्य जन समझा पायेगा ? या उसके पास इतना समय, धैर्य,ज्ञान है ?-------साहित्य में इसी प्रकार के विद्वता प्रदर्शन , दूरस्थ भाव प्रचलन से साहित्य जन सामान्य से दूर होता जारहा है | सूर-तुलसी-कबीर-मीरा-आदि के शाश्वत -चिर जीवी शब्दों में कौन से दूरस्थ भाव हैं , तभी वह जन-जन के निकट है व समाज व मानव को आज तक दिशा प्रदान कर रहे हैं |कविता अभिधात्मक भाषा में जन सामान्य के निकट होगी तभी वह जनता के समीप पहुंचेगी और जन उसके समीप |