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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 31 दिसंबर 2011

.....वर्ष की अंतिम ग़ज़ल....डा श्याम गुप्त

        आज वर्ष २०११ का अंतिम दिवस है.... कल से नववर्ष का प्रारम्भ है....यदि हम एक गुणात्मक सोच के साथ, एक सुनिश्चित लक्ष्य लेकर  ज़िंदगी की राहों को  ज़िंदादिली, प्रेम , भाईचारा , सौहार्द , अनुशासन व सहज़ता के साथ  तय करें तो ...आने वाला समय अवश्य ही शुभ होगा | देखिये इसी भाव पर वर्ष की अंतिम ग़ज़ल.... 

         राहों के रंग न जी सके.....

राहों के रंग न जी सके, कोई ज़िंदगी नहीं |
यूँही चलते जाना, दोस्त कोई ज़िंदगी नहीं |


कुछ पल तो रुक के देख ले क्या-क्या है राह में ,
यूँ ही राह चलते जाना,  कोई ज़िंदगी नहीं |


चलने का कुछ तो अर्थ हो, कोई मुकाम हो ,
चलने के लिए चलना, कोई ज़िंदगी नहीं |


कुछ ख़ूबसूरत से पड़ाव, यदि राह में न हों ,
उस राह चलते जाना, कोई ज़िंदगी नहीं |


ज़िंदा -दिली से, ज़िंदगी को जीना चाहिए,
तय, रोते सफ़र करना कोई ज़िंदगी नहीं |


इस दौरे भागम-भाग में, सिज़दे में प्यार के,
कुछ पल झुके तो, इससे बढ़कर बंदगी नहीं |


कुछ पल ठहर, हर मोड़ पर, खुशियाँ तू ढूंढ ले,
उन पल से बढ़कर श्याम' कोई ज़िंदगी नहीं || 


                             

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

लघु कथा ----समस्या का हल और लोकपाल....

                                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...      

              सुबह ही सुबह हमारे एक चिकित्सक मित्र घर पधारे और बोले...यार एक केंडीडेट  को पास कराना है, अपने  अच्छे  मित्र का लड़का है |  कल तुम्हारा टर्न है और अगर तुमने कुछ  उलटा -सीधा रिकार्ड कर  दिया तो फिर कुछ नहीं होपायगा, अतः सोचा सुबह ही सुबह  मुलाक़ात कर ली जाय |
      ' पर इतनी चिंता क्यों ठीक होगा तो पास हो ही जायगा |' मैंने कहा |
     ' नहीं', वे बोले, 'थोड़ी  सी विज़न में कमी है | और पैसे ले लिए गए  हैं |'
     ' तो क्या हुआ', मैंने कहा, 'लौटा देना कि काम नहीं होसकता |'
      अरे यार ! लिए हुए पैसे तो काम में भी  लग गए | खर्च भी होगये | अब घर से पैसे देने में तो बुरा लगता है, कि आई हुई लक्ष्मी क्यों लौटाई जाय |  बड़ा धर्म संकट होजाता है |
        मैं जब तक कुछ सोच पाता, वे बोले,  यार ! अब अधिक न सोचो, कभी तुम्हारा काम भी पडेगा तो मैं भी टांग नहीं अडाऊंगा | यह काम तो करना ही पडेगा, तुम्हारा हिस्सा पहुँच जायगा | और मुझे न चाहते हुए भी उनका काम करना पडा |
         मैं सोचने लगा, क्या लोकपाल इस समस्या का कोई हल निकाल पायगा ?

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

फुरसत किसे अब यार... डा श्याम गुप्त की ग़ज़ल...

                                        ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
दिल की किताब को पढ़े फुरसत किसे अब यार |
आदमी तो चाँद पर जाने को  अब  तैयार |                


वो चाँद तारे तोड़कर लाने की रस्में कब रहीं ,
अब फलक को ही जमीं पर लाने को हम तैयार |


अब धड़कनों की बात क्या, क्या दिल के दर्द की,
 है  दर्दे-दिल पै आदमी मिटने को कब तैयार |


ऊपर बहुत ऊपर बहुत ऊपर मैं उठ सकूं ,
उड़ने की चाह में बहुत गिरने को सब तैयार |


सपनों की एक दुनिया में उलझा है आदमी,
कब प्यार के सपनों में भरमाने को वह तैयार |


आतंक का पर्याय गीता,राम इक कल्पित कथा,
इतिहास को ही वह तो झुठलाने को अब तैयार |


विज्ञान के तर्कों से श्रृद्धा-भक्ति सब मजबूर,
भावों के खजाने को लुटाने को हम तैयार |


जब दिल की बात ही नहीं ना दिलरुबा की घात ,
क्या फ़ायदा मिलने को हो सारा फलक  तैयार |


है नयी पीढी से गुजारिश आसमां चाहें मगर,
धरती की गज़लें भी रहें गाने को सब तैयार |


भौतिक सुखों में श्रृद्धा भक्ति प्यार लुट चले ,
क्या श्याम' तू भी दर्दे-दिल गाने को अब तैयार ?

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

पुरुषत्व व स्त्रीत्व का प्राकृतिक-संतुलन तथा आज की स्थिति.....डा श्याम गुप्त

                             ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
        



       पुरुषत्व,स्त्रीत्व का प्राकृतिक-संतुलन तथा आज की स्थिति  
        
        सृष्टि का ज्ञात कारण है ईषत-इच्छा…..’एकोहं बहुस्याम”….. यही जीवन का उद्देश्य भी है । जीवन के लिये युगल-रूप की आवश्यकता होती है । अकेला तो ब्रह्म भी रमण नहीं कर सका….”स: एकाकी, नैव रेमे । स द्वितीयमैच्छत ।“  तत्व दर्शन में ..ब्रह्म-माया, पुरुष-प्रकृति …वैदिक साहित्य में ..योषा-वृषा …संसार में……नर-नारी…।  ब्रह्म स्वयं माया को उत्पन्न करता है…अर्थात माया स्वयं ब्रह्म में अवस्थित है……जो रूप-सृष्टि का सृजन करती है, अत: जीव-शरीर में-- माया-ब्रह्म अर्थात पुरुष व स्त्री दोनों भाव होते हैं।  शरीर - माया, प्रकृति अर्थात स्त्री-भाव होता है । अत: प्रत्येक शरीर में स्त्री-भाव व पुरुष-भाव अभिन्न हैं। आधुनिक विग्यान भी मानता है कि जीव में ( अर्थात स्त्री-पुरुष दोनों में ही) दोनों तत्व-भाव होते हैं। गुणाधिकता (सेक्स हार्मोन्स या माया-ब्रह्म भाव की)  के कारण….स्त्री, स्त्री बनती है…पुरुष, पुरुष ।
        तत्वज्ञान एवं परमाणु-विज्ञान के अनुसार इलेक्ट्रोन- ऋणात्मक-भाव है …स्त्री रूप है । उसमें गति है, ग्रहण-भाव है।  प्रोटोन..पुरुष है….अपने केन्द्र में स्थित, स्थिर, सबसे अनजान, अज्ञानी-भाव रूप, अपने अहं में युक्त, आक्रामक, अशान्त …धनात्मक भावस्त्री- पुरुष के चारों ओर घूमती हुई उसे खींचती है,यद्यपि खिंचती हुई लगती है, खिंचती भी है,आकर्षित करती है,आकर्षित होती हुई प्रतीत भी होती है| इसप्रकार वह पुरुष की आक्रामकता, अशान्ति को शमित करती है, धनात्मकता को….नयूट्रल, सहज़, शान्ति भाव करती है….यह परमाणु का, प्रकृति का सहज़ सन्तुलन है।
          वेदों व गीता के अनुसार शुद्ध-ब्रह्म  या पुरुष अकर्मा है, मायालिप्त जीव रूप में पुरुष कर्म करता है | माया व प्रकृति की भांति ही स्त्री- स्वयं कार्य नहीं करती अपितु पुरुष को अपनी ओर खींचकर, सहज़ व शान्त करके कार्य कराती है परन्तु स्वय़ं कार्य करती हुई भाषती है, प्रतीत होती है। नारी –पुरुष के चारों ओर घूमते हुए भी कभी स्वयं आगे बढकर पहल नहीं करती, पुरुष की ओर खिंचने का अभिनय करते हुए उसे अपनी ओर खींचती है। वह सहनशीला है। पुरुष आक्रामक है, उसी का शमन स्त्री करती है, जीवन के लिये, उसे पुरुषार्थ प्राप्ति हेतु, मोक्ष हेतु । 
        भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन के चार पुरुषार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष….  स्त्री –धर्म (गुणात्मकता) व काम (ऋणात्मकता) रूप है, पुरुष….अर्थ (धनात्मकता) व काम (ऋणात्मकता ) रूप है….स्त्री-- पुरुष की धनात्मकता को सहज़-भाव करके मुक्ति की प्राप्ति कराती है। यह स्त्री का स्त्रीत्व है। कबीर गाते हैं….“हरि मोरे पीउ मैं हरि की बहुरिया…”…अर्थात मूल-ब्रह्म पुरुष-रूप है अकर्मा, परन्तु जीव रूप में ब्रह्म ( मैं ) मूलत:…स्त्री-भाव है ताकि संतुलन रहे। अत:  यदि पुरुष अर्थात नर…भी यदि स्वयं नारी की ओर खिंचकर स्त्रीत्व-भाव धारण करे, ग्रहण करे तो उसके अहम, धनात्मकता, आक्रामकता का शमन सरल हो तथा जीवन, पुरुषार्थ व मोक्ष-प्राप्ति सहज़ होजाय ।
    
        प्रश्न यह उठता है कि यदि नारी स्वयं ही पुरुष-भाव ग्रहण करने लगे, अपनाने लगे तो ? यही आज होरहा हैपुरुष तो जो युगों पहले था वही अब भी है । ब्रह्म नहीं बदलता, वह अकर्मा है, अकेला कुछ नहीं है। ब्रह्म का मायायुक्त रूप, पुरुष जीवरूप तो  नारीरूपी पूर्ण स्त्रीत्व-भाव  से ही बदलता है, धनात्मकता, पुरुषत्व शमित होता है, उसका अह्म-क्षीण होता है, शान्त-शीतल होता है, क्योंकि उसमें भी स्त्रीत्व-भाव सम्मिलित है। परन्तु स्त्री आज अपने स्त्रीत्व को छोडकर पुरुषत्व की ओर बढ रही है।  आचार्य रज़नीश (ओशो)- का कथन है कि- ’यदि स्त्री, पुरुष जैसा होने की चेष्टा करेगी तो जगत में जो भी मूल्यवान तत्व है वह खोजायगा ।
        हम बडे प्रसन्न हो रहे हैं कि लडकियां, लडकों की भांति आगे बढ रही है। माता-पिता बडे गर्व से कह रहे हैं कि हम लडके–लडकियों में कोई भेद नही करते खाने, पहनने, घूमने, शिक्षा सभी मैं बराबरी कर रही हैं, जो क्षेत्र अब तक लडकों के, पुरुषों के माने जाते थे उनमें लडकियां नाम कमा रही है। परन्तु क्या लडकियां स्त्री-सुलभ कार्य, आचरण-व्यवहार कर रही हैं? परन्तु मूल भेद तो है ही...सृष्टि महाकाव्य में कहा गया है ....
                     ' भेद बना है, बना रहेगा,
                      भेद-भाव व्यवहार नहीं हो | '
           क्या आज की शिक्षा उन्हें नारीत्व की शिक्षा दे रही है? आज सारी शिक्षा-व्यवस्था तथा समाज भी भौतिकता के अज्ञान में फ़ंसकर लडकियों को लड़का बनने दे रहा है। यदि स्त्री स्वयं ही पुरुषत्व व पुरुष-भाव की  आक्रमकता, अहं-भाव, धनात्मक्ता ग्रहण करलेगी तो उसका सहज़ ऋणात्मक-भाव, उसका कृतित्व, उसका आकर्षण समाप्त हो जायगा। वह पुरुष की अह्मन्यता, धनात्मकता को कैसे शमन करेगी? पुरुष-पुरुष अहं का टकराव विसन्गतियों को जन्म देगा। नारी के स्त्रीत्व की हानि से उसके आकर्षणहीन होने से वह सिर्फ़ भोग-उपभोग की बस्तु बनकर रह् जायगी ।  पुरुषों के साथ-साथ चलना, उनके कन्धे से कन्धा मिला कर चलना एक पृथक बात है आवश्यक भी है परन्तु लडकों जैसा बनना, व्यवहार, जीवनचर्या एक पृथक बात।  आज नारी को आवश्यकता शिक्षा की है, साक्षरता की है, उचित ज्ञान की है। आवश्यकता स्त्री-पुरुष समता की है, समानता की नहीं, स्त्रियोचित ज्ञान, व्यवहार जीवनचर्या त्यागकर पुरुषोचित कर्म व व्यवहार की नहीं…..।

                                     .... चित्र -गूगल ..साभार 

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

डा श्याम गुप्त की ग़ज़ल.....आज आदमी....

                                                ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...       

हर  आदमी के सर पै बैठा आज आदमी ।
छत ढूँढता अपने ही सर की आज आदमी |


आलमारियों में बंद हों बहुरंगी खिलौने ,
आकाशी मंजिलों में बंद आज आदमी |


वो चींटियों की पंक्तियों की भांति सड़क पर,
दाने  जुटाने  रेंगता  है आज  आदमी |

लड़ते थे पेंच पतंग के, अँखियों के पेच भी | 
वो खेल और  खिलाड़ी ढूंढें आज  आदमी |


वो खोया खोया चाँद और खुला असमान ,
ख़्वाबों में ऊंचे,  भूल बैठा आज आदमी |


रंगीनियाँ छतों की होतीं जो सुबहो-शाम,
भूला वो आशिकी के मंज़र, आज आदमी |



कहने को सुख-साधन सभी,पर लीक में बंधे,
उड़ने की चाह में है  उलझा आज  आदमी |  .


हर आदमी है त्रस्त,  मगर  होंठ बंद हैं,
अपने ही मकड़-जाल बंधा आज आदमी ||


अँखियों के वो झरोखे, सखियों की बातचीत,
बस श्याम' ग़ज़लों में ही पढ़ता आज आदमी ||

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

एक प्रयास यह भी ...हरिओम मंडल ..शान्तिनिकेतन बेंगलोर ....डा श्याम गुप्त ....



                                         ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                  सत्कर्म के प्रसार -प्रचार में यदि एक व्यक्ति भी कहीं प्रयासरत है तो निश्चय ही इसे  घटाटोप अंधकार में  एक दीप जलाना  समझा जाना चाहिए और एक सराहनीय  प्रयास  | एसा ही एक अभिनव  प्रयास बैगलूर स्थित अपार्टमेन्ट प्रेस्टिज शान्तिनिकेतन के कुछ सक्रिय निवासियों द्वारा  'हरिओम मंडल ' की स्थापना करके किया जारहा है |
प्रेस्टिज शान्तिनिकेतन
क्लब हाउस 


हरिओम  मंडल की सदविचारयुक्त  दैनिक प्रार्थना
क्लब हाउस में हरिओम मंडल के सदस्य प्रार्थना करते हुए

                  इस मंडल का नित्य कर्म प्रातः ०६-६३०  से मिलकर भ्रमण, बेडमिन्टन आदि खेलना, योग करना व अंत में भजन -ध्यान, गीत गाना-सुनना आदि रहता है, जो मूलतः तो  स्वांत सुखाय है परन्तु निश्चय ही वातावरण में सदविचारों का प्रसार करता है |               
सदस्यगण योग क्रियाएं करते हुए
              श्री इंदौर के रतन चंद सुराना , नैनीताल के श्री जोशी, राजस्थान से होते हुए चेन्नई से आये श्री प्रकाश सुराना , महाराष्ट्र के श्री रूपवाल , हरियाणा से श्री ओपी गुप्ता , बनारस से श्री एम् पी मिश्रा  आदि , देश के विभिन्न स्थानों व विभिन्न सामाजिक /व्यवसायिक क्षेत्रों से आये व्यक्ति -माता-पिता, पेरेंट्स ,  बेंगलूर में कार्यरत अपने बच्चों के साथ  बेंगलूर में रह रहे हैं | एसे ही क्रियाशील लोगों ने यह हरिओम मंडल स्थापित किया है जो  लगभग ६०-७० वर्ष की वय के हैं |  यह प्रयास  स्वयं उन्हें तो सतत क्रियाशील रखता ही है, आचरण - ह्रास के इस युग में  वातावरण को भी  सदाचरण की और लेजाने के प्रयास में एक बिंदु की स्थापना करता है |




बुधवार, 21 दिसंबर 2011

डा श्याम गुप्त के पद.......

                               ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ.
          
                      १.             
कैसे प्रभु सुनिपाऊँ तेरा पग संचार |
जदपि बसे हो कण कण में बन निराकार साकार |   ....
मैं मूरख अज्ञानी लिपटा माया के संसार |
बिना प्रभु कृपा कैसे जानूं जग में सार असार |
बने मोह ममता के बंधन जीवन के आधार |
बिनु गुरु कृपा मिलै नहीं जग में हरि की कृपा अपार |
श्याम' बिना हरि  कृपा मिले कब सच्चे गुरु का द्वार |
प्रभू कृपा गुरु मिलै मिलावें परम ब्रह्म साकार ||
                     
                             २.
प्रणव ही है जग का आधार |
ॐ ही है ध्वनि नाद-अनाहत, भुवन आदि आधार |
शब्द ब्रह्म है, आदि नाद है, वीणा स्वर झंकार |
शब्द ही माया, शब्द ही ईश्वर, शब्द प्रकृति संसार |
वही कृष्ण की वंशी धुनि है, रघुवर धनु टंकार |
डमरू बन शिव के कर बाजे, गर्जन मेघ मल्हार |
श्याम' परात्पर सदाधार सत, वाणी स्वर का सार ||

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

राधाजी दर्शन--मथुरा -वृन्दावन.... डा श्याम गुप्त

                              ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
                   
         
 यमुना किनारे मथुरा

यमुना जल
          ( श्याम सवैया छंद --छः पंक्तियों का सवैया )

श्रृद्धा जगी उर भक्ति पगी, प्रभु रीति सुहाई जो निज मन मांहीं |
कान्हा की बंसी मन में बजी,  सुख आनंद रीति सजी मन माहीं |
राधा  की मथुरा बुलाने लगी, मन मीत बसें उर प्रीति सुहाई |
देखें चलें कहूँ कुञ्ज कुटीर में, बैठे  मिलें कान्हा, राधिका पांही |
उर प्रीति उमंग भरे मन मांहि, चले मथुरा की सुन्दर  छाहीं |
देखिकें मथुरा की दीन दशा, मन भाव भरे अँखियाँ भरि आईं ||


ऐसी बेहाल सी गलियाँ परीं, दोऊ लोचन नीर कपोल पै आये |
तिहूँ लोक ते न्यारी ये पावन भूमि, जन्मे जहँ देवकीलाल सुहाए |
टूटी पडीं सड़कें चहुँ ओर,  हैं लता औ  पत्ता  भरि धूरि नहाए |
गोप कहाँ कहं श्याम सखा,  कित गोपी कुञ्ज कतहुं नहीं भाए |
न्यारे से खेल कन्हैया के कित, कहुं गोपिन की पग राह न पाए |
हाय यही  मथुरा  नगरी, जहां  लीलाधर, लीला धरि  आये ||

रिक्शा चलाय रहे ब्रज बाल, कित ग्वाल-गुपाल के खेल सुहाए |
गोरस की नदियाँ कित हैं,  गली-राहन कीचड नीर बहाए |
कुंकुम केसर धूरि कहाँ,  धुंआ डीज़ल कौ चहुँ ओर उडाये |
माखन मिसरी के ढेर कितै, चहुँ ओर तौ  कूड़े के ढेर सजाये |
सोचि चले वृन्दावन धाम, मिलें वृंदा- वन बहु भाँति सुहाए |
डोलत ऊबड़ खाबड़ राह,  औ फाँकत धूलि वृन्दाबन आये ||


कालिंदी कूल जो निरखें लगे, मन शीतल कुञ्ज कुटीर निहारे |
कौन सौ निर्मल पावन नीर, औ पाए कतहुं न कदम्ब के डारे |
नाथि कै कालियनाग प्रभो ! जो कियो तुम पावन जमुना के धारे |
करिया सी माटी के रंग कौ जल, हैं प्रदूषित कालिंदी कूल किनारे |
चौड़ी नदिया दो सौ गज की, कटि-छीन तिया सी  बहै बहु धारे |
कौन प्रदूषण नाग कों नाथिकें,  पावन नीर कों नाथ सुधारे ||


गोवर्धन गिरिराज वही, जेहि श्याम धरे ब्रज-वृन्द बचाए |
खोजि थके हरियाली छटा, पग राह कहूं औ कतहुं नहीं पाए |
सूखे से ठूंठ से बृक्ष कदम्ब, कटे-फटे गिरि पाहन बिखराए |
शीर्ण -विदीर्ण किये अंग-भंग, गिरिराज बने हैं कबंध सुहाए |
ताल तलैया हैं कीच भरे,  गिरिराज  परे रहें नीर बहाए |
कौन   प्रदूषण-खननासुर,  संहार  करै  ब्रजधाम बचाए  ||


मंदिर देखि बिहारी लला, मन आनंद शीतल  नयन जुड़ाने |
हिय हर्षित आनंद रूप लखे, मन भाव मनौ प्रभु मुसुकाने |
बोले उदास से नैन किये, अति ही सुख आनंद हम तौ सजाने |
देखी तुमहुं मथुरा की दशा, हम कैसें रहें यहाँ रोज लजाने |
अपने अपने सुख चैन लसे, मथुरा के नागर धीर सयाने |
श्याम कछू अब तुमहि करौ, हम तौ यहाँ पाहन रूप समाने ||


भाव भरे दोऊ कर जोरि कें, भरे मन बाहरि गलियनि  आये |
बांस फटे लिए हाथनि  में, सखियनि संग राधा कौ भेष बनाए |
नागरि चतुर सी मथुरा की, रहीं घूमि नगर में  धूम मचाये |
हौले  से राधा-सरूप नै पाँय, हमारे जो दीन्हीं लकुटिया लगाए |
जोरि दोऊ कर शीश नवाय, हम कीन्हो प्रणाम हिये हुलसाये |
जीवन धन्य सुफल भयो श्याम' सखी संग राधाजी दर्शन पाए ||         

रविवार, 18 दिसंबर 2011

श्याम के दोहे ...... डा श्याम गुप्त

                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
            नीति सप्तक ( ब्रज भाषा )

छंद जो अपनौ  हो लिखौ, माला निज गुँथ पाय,
चन्दन जो निज कर घिसौ, सो अति सोभा पाँय |

छिपौ न कछु कवि दृष्टि तें, कहा न नारि कराय, 
 कहा न बकि है मद्यपा , कौआ कहा न खाय ||

धरम करम व्यौहार हित, बरन बनाए चार,
अज्ञानी और स्वारथी, करहिं भेद व्योहार ||,

कूकुर देखै मांस कों, कामी तिरिया रूप ,
जोगी निन्दित काम सम, देह एक ही रूप ||

सींग धरें औ नख धरें, शस्त्र धरें निज पास ,
राजपुरुष नद नारि कौ, करें नहीं विशवास |,

वेद शास्त्र औ धरम रत, निज की नहिं पहचान ,
जैसे करछी पाक में , सकहि न रस कों जान ||

मन कौ मैल जो धूलि गयो, श्याम सोई स्नान ,
इन्द्रिय सब बस में रहें , सोई शुचिता जान |




 

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

आज का भाव- छिद्रान्वेषण--कविता केवल कला ही नहीं विज्ञान भी है.....डा श्याम गुप्त.....

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

            कविता केवल एक कला ही नहीं अपितु विज्ञान भी है, उच्चतम विज्ञान, सामाजिक मनोविज्ञान , जिसमें कवि-साहित्यकार को  सामयिक, एतिहासिक व  आनेवाले समय के सामाजिक, मनोवैज्ञानिक सत्यों व तथ्यों का तर्कपूर्ण, सत्य व यथातथ्य उदघाटन करना होता है | विज्ञान क्या है...सत्य की खोज,सत्य का निरूपण व सत्य का तर्कपूर्ण कथ्यांकन | अतः काव्य के कलापक्ष के साथ साथ उसके भावपक्ष का गहन महत्व होता है | यथा.... विश्वमान्य सत्य, वैज्ञानिक सत्य व तथ्य, गहन सामाजिक तत्वविचार ,अर्थार्थ, अर्थ-प्रतीति आदि |
              वस्तुतः कविता लिखने का मूल अभिप्रायः ही भाव-संवेदना व सामाजिक-सरोकार व सांस्कृतिक कृतित्व है | अतः भाव-दोषों के दूरगामी प्रभाव होते हैं | कलापक्ष  तो सहायक है, भाव सम्प्रेषण का  जन रंजक पक्ष है | वह क्लिष्ट , गुरु गाम्भीर्य युक्त न होकर जन जन के समझ में आने वाला सहज व सरल ही होना चाहिए |  परन्तु शब्दों का चयन व उनकी अर्थ  व भाव सम्प्रेषणता सहज व स्पष्ट होनी चाहिए अन्यथा गंभीर भाव त्रुटियाँ  रह जाने का भय रहता है | यथा ..हम कुछ उदाहरण देखेंगे...
उदाहरण १- एक सुप्रसिद्ध गीतकार के  सुप्रसिद्ध गीत की पंक्तियाँ देखिये---
           "  जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना ,
             अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाए || "
कितनी सहज व सरल लगती हैं ..यद्यपि कवि का सुमंतव्य सारे जहां को दीपित करने का है परन्तु  छिद्रान्वेषण  करने पर ....भाव क्या निकलता है ....की मनुष्य यदि दिए जलाए तो उसे सारी धरा के अंधेरों को मिटाने का प्रयत्न करना चाहिए " 'वाक्य ..'रहे ध्यान इतना'.. चेतावनीपूर्ण वाक्य लगता है कि ..यदि वह यह नहीं कर सकता तो ..न करे...न जलाए....क्या वास्तव में मानव में इतनी क्षमता है कि वह सम्पूर्ण धरा का अन्धेरा मिटा सके ...यह तो ईश्वर ही कर सकता है ..| जबकि ....माना हुआ सत्य यह है कि....'इक दिया है बहुत रोशनी के लिए '...अर्थात व्यक्ति जो कुछ भी, जितना भी  शुभकर्म कर सके, उसे करते जाना चाहिए, बिना  फल की इच्छा के  | यदि उसने एक कोना भी उजियारा कर दिया तो वह अन्य के लिए स्वयं उदाहरण की लकीर बनेगी.....यहाँ तार्किक-तथ्यांकन की त्रुटि है |
उदाहरण -२-.. ""तितली भौरों की बरात, निकल रही है, 
                        बगिया रूपी कानन से "
.....बगिया व कानन दोनों ही समानार्थक हैं शब्द हैं अतः यहाँ पर शब्दावली -दोष है |
उदाहरण -३-.. " उषा जा न पाए, निशा आ न पाए |".....यद्यपि कवि का भाव है कि ...ज्ञान नष्ट न हो अज्ञान न फ़ैल पाए ....परन्तु विश्वमान्य सत्य के विरुद्ध शब्दावली है ...उषा के जाने पर प्रकाश आता है, सूर्य उदय होता है , निशा नहीं आती वह तो उषा के आने से पहले होती है उषा द्वारा दूर कर दी जाती है | यहाँ विश्वमान्य वैज्ञानिक तथ्य की उनदेखी की गयी है |







शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

मानव सभ्यता के विकास में भाव-तत्व की विकास यात्रा व प्रकृति के प्रयोग .....डा श्याम गुप्त ....

                                 ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

          सृष्टि के विकास में भाव-तत्व का अत्यधिक महत्त्व है |  यही भाव तत्व -चेतन का महत्वपूर्ण गुण है | यद्यपि पाश्चात्य विचार-दर्शन  व अधुना विज्ञान  में चेतन सिर्फ शरीर में ही खोजा जा सकता है, परन्तु भारतीय विचारधारा व दर्शन में चेतन सदैव उपस्थित रहता है  व जड़, जीव ,जंगम सभी में व्यक्त होता है | वह ब्रह्म की भाँति असद से सद, अव्यक्त से व्यक्त होता रहता है |   'कण कण में भगवान ' इसीलिये कहा गया|  सृष्टि महाकाव्य में कहा गया है....
                "श्रुति दर्शन अध्यात्म बताता ,
                 चेतन रहता सदा उपस्थित ;
                 इच्छा रूप में परब्रह्म की
                मूल चेतना सभी कणों की,

                जो गति बनकर करे सर्जना ;
               स्वयं उपस्थित हो कण कण में ||"    ......(.सृष्टि महाकाव्य -८/३१ )..
                               जीव व जड़-जंगम का मूल अंतर है जीव में भाव तत्व की उपस्थिति | विज्ञान के अनुसार -जीव की उत्पत्ति के बाद उसमें भावों आदि की अनुभव के उपरांत उत्पत्ति हुई |  भारतीय विचार धारा के अनुसार -भाव तत्वों की सृष्टि पहले हुई, वे सदैव उपस्थित चेतन के रूप में प्रत्येक जीव में प्रवेश करते हैं | स्नेह इस भाव-तत्व समूह  का सबसे मूल भाव है , जो  'एकोहं बहुस्याम ' के रूप में ब्रह्म की ईषत-इच्छा के रूप में   सृष्टि का मूल आधार बनता है | यही स्नेह प्रकृति के विकास के क्रमिक प्रयोगों  में मानव -विकास व सभ्यता के विकास का मूल आधार है |
          गर्म जल के श्रोतों की गहराई में जीव की प्रथम  आहट- गुनगुनाहट -फुनफुनाहट ( या अंतरिक्ष से जीव के पृथ्वी पर उतरने ) से लेकर  मानव के विकास तक यह विकास सिर्फ शरीर में ही नहीं अपितु  प्रवृत्तियों , मन व भावों का निर्माण व विकास भी हुआ | प्रकृति ने विभिन्न प्रयोग किये |  एक कोशीय जीव से बहुकोशीय जीव ...जल से ....स्थल पर अवतरण ...कीट -कृमि के अवतरण तक प्रकृति ने संख्यासामूहिकता   के बल पर 
विकास का ढांचा अपनाया परन्तु सामूहिकता से वैयक्तिक गुणों का ह्रास हुआ एवं जीव की मूल जैविक प्रेरणा समाप्त प्राय हुई  जिसके कारण यंत्रवत कार्य से उनका विकास रुक गया | कीट व कृमि आज विद्यमान तो हैं परन्तु उनका विकास पचास करोड़ वर्ष पहक्ले रुक गया |
                आगे रीढधारी जंतुओं में ...मत्स्य, उभयचर, सरीसृप, पक्षी व स्तनपायी हैं | प्रथम चार अंडज हैं , स्तनपायी पिंडज  |  प्रथम तीन -मत्स्य, उभयचर, सरीसृप  आदि भी  संख्या के बल पर विकास का प्रतिमान हैं , वे एक ही समय में हज़ारों अंडे देते हैं परन्तु माँ को पता नहीं होता की कहाँ दिए , कितने दिए, एक अंधी चेतना , अचेतन प्रवृत्ति के वश होकर....कई बार वह स्वयं अपने अंडे खाजाती है | वे अपने अनुभवों से सीखते हैं कुछ स्मृति भी होती है परन्तु सिर्फ स्वयं तक मृत्यु के उपरांत वह समाप्त होजाती है |
              .तत्पश्चात प्रकृति ने  एक अन्य प्रयोग किया...शक्ति के बल का ...कि शायद संघर्षमय संसार में शक्तिशाली जीव अधिक टिके....विशालकाय दांत- नख व जिरह-वख्तर युक्त जीव डायनासोरों का आविर्भाव हुआ जो सरीसृप वर्ग के ही थे , परन्तु समय के अनुसार वे भी नष्ट होगये | प्रयोग असफल रहा |
                 तब सृष्टि में प्रकृति ने एक नया आयाम उत्पादित किया, जो क्रांतिकारी था, एक अद्वित्तीय तत्व ....नए भाव तत्व स्नेह का आविर्भाव हुआ | जो पक्षी व स्तनपायी जीवों में हुआ | पक्षी घोंसला बनाकर अण्डों को सेते हैं, उनकी देखभाल -रक्षा करते हैं | बच्चा जन्म के समय कितना असहाय व निर्वल होता है परन्तु माँ-बाप की सुरक्षा में विकासमान रहता है | स्तनपायी चौपायों में भी यही भाव पाया जाता है |  मनुष्य का बच्चा तो काफी समय तक  निरीह रहता है, निर्बल ...पक्षी जिसतरह दाना छोड़कर घोंसले के लिए तिनका उठाकर दुगुना श्रम करते हैं, घूमना छोड़ अंडे को सेते हैं, स्वयं न खाकर बच्चे को देते हैं .....पशु  उसे साथ साथ रखते हैं रक्षा करते हैं, खाना-चारा खिलाते हैं  ...उसी प्रकार मनुष्य  के  माँ-बाप उसे पालते हैं, खाना देते हैं, जीना सिखाते हैं | बच्चे से यह लगाव, अभिन्नता का भाव उसको भी स्नेह, ममता ,त्याग आदि भाव-गुणों को सिखाता है | स्नेह भाव से ही अनेक भाव व गुण उत्पन्न होते हैं , ममता,परिवार , कुटुंब, समाज , राष्ट्र के भाव व समाज -निर्माण के साथ विकास के अनन्य भाव बनाते हैं |
        पक्षी व स्तनपायी अपने अनुभव अगली पीढी को देजाते हैं , पीढी दर पीढी संचित होते हैं एवं भाव उनके साथ संलग्न होजाते हैं | यही संस्कार या  जेनेटिक गुणबन जाते हैं | यह विकासवाद का क्रम है |
         इसीलिये पुरा- भारतीय दर्शन में कर्मवाद व सदाचरण के  उपाख्यान का महत्व है | हम जैसा कर्म व आचरण करते हैं वे संचित होकर पीढी-दर पीढी जाते हैं एवं समाज व सभ्यता के  उन्नतोन्नत विकासवाद की सीढ़ी बनते हैं |  मानव में यह भाव विभिन्न भाव-रूपों में अपने सर्वश्रेष्ठ उपादानों के रूप में विकसित हुआ है । इसीलिये मानव सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है ।


           यूं तो यह मानव,  प्रकृति के सर्वोच्च -गुण संपन्न जीव का विकास है , परन्तुं ' ऋग्वेद के  ' नेति-नेति ...'  के अनुसार देखें आगे प्रकृति क्या नवीन प्रयोग करती है....शायद महामानव के विकास का | परन्तु यह निश्चय है कि यह भी भाव तत्वों के विकास पर ही आधारित होगा ...शायद ..स्नेह...स्नेह ..और स्नेह ....प्राणी का प्राणी के प्रति ....ऋग्वेद के सर्वश्रेष्ठ मन्त्र----
                        " समानी अकूती समानी हृदयानि वा |
                           समामस्तु वो मनो यथा सुसहामती || "
के अनुसार |


       




                








गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

लिलिथ, काली व ललिता----ईस्ट इज़ ईस्ट वेस्ट इज़ वेस्ट......डा श्याम गुप्त....



                                         ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

लिलिथ व सर्प
              ईस्ट इज़ ईस्ट  एंड वेस्ट इज़ वेस्ट, ......सही ही है  .....अब देखिये कितना अंतर है विचारों, अभिव्यक्ति, व्यवहार में | जहां पश्चिम में वस्तुओं को   ऋणात्मकता भाव से अधिक देखा जाता है वहीं पूर्व में, भारत में गुणात्मकता भाव से.....
एडम्स व  ईव व  लिलिथ शैतान सर्प रूप में
             उदाहरण के स्वरुप हम एक नारी-देवी पात्र को लेते हैं ....एक पश्चिमी पात्र है  .लिलिथ ..जो एक सर्प के साथ चित्रित की जाती है इसे विद्वान् लोग भारतीय काली के समकक्ष  कहते हैं | लिलिथ वह है जो शायद  सांवली थी, ईव की सौतन, शायद ईव से पहले आदम या एडम की पत्नी, जिसने ईव को, अपने दुष्ट साथी सर्प के द्वारा बहला फुसलाकर ज्ञान का फल खिलाया था एवं ईव को बहला कर आदम को भी खिलवाया था और दोनों को स्वर्ग से निष्कासित करवा दिया |
कालरात्रि
              लिलिथ पश्चिमी साहित्य में बच्चों को नष्ट करने  वाली, खाजाने वाली, महिलाओं को भटकाने वाली, दुष्ट महिला पात्र है , शैतान की कृति ; व सर्प स्वयं शैतान का रूप | आगे यही अत्यंत भटकाने वाली , कामुक,सौन्दर्य से पुरुषों को लुभाने भट्काने वाली स्त्री ..जिससे ..एसी कुलटा, फ़्लर्ट आदि स्त्रियां..लोलिता ...लोनिटा ...लैला आदि नामधारी हुई जो सदैव निगेटिव भाव में ही मानी जाती है |
शिव व काली -रौद्र रूप
काली व शिव बाल रूप में
                



 









    दूसरी और उसका समकक्ष है भारतीय काली या ललिता, ललिता देवी ....जो  सदा गुणात्मक भाव में ही कही, देखी, सुनी व समझी जाती है क्योंकि वह स्त्री-पात्र है और भारत में जो सदैव ही आदरणीय है , कभी भी बुराई में लिप्त नहीं | यद्यपि भारत में अन्य दुष्ट स्त्री पात्र डाकिनी, शाकिनी, डायन , पिशाचिनी आदि वर्णित हैं परन्तु महत्वहीन, वे पुरुषों को, स्त्रियों को सबको परेशान तो कर सकती हैं परन्तु बच्चों को नहीं |  सर्प भी भारतीय भाव में कभी दुष्ट नहीं है...सबसे दुष्ट सर्प कालिय नाग, तक्षक भी आदरणीय हैं, देव रूप हैं  ....मानव को भटकाने वाले शैतान नहीं | शेषनाग आदि तो स्वयं देव स्वरुप ही हैं |  तक्षक द्वारा स्वयं लकडी बनकर राह में गिर जाने पर, परीक्षित को न मरने देने की निश्चिंतता देने वाले चिकित्सक धन्वन्तरि द्वारा अपना हस्त-दंड बना कर फन रूपी मूठ को पीछे की ओर लगा लेने पर,  तक्षक ने उसको पीठ पर  डस कर राजा परीक्षित की मृत्यु निश्चित की ताकि ऋषि का श्राप सत्य हो | चिकित्सक धन्वन्तरि द्वारा अपना हस्त-दंड बनाने के कारण ही ....चिकित्सा जगत का मूल चिन्ह -'लोगो'- दंड पर लिपटा हुआ सर्प हुआ | जो मानव -कल्याण का प्रतीक है ।
             अब काली को लीजिये | या उसके अन्य विचित्र रूप कालरात्रि को देखिये | अत्यंत भयंकर रूप होते  हुए भी दुष्टों के लिए दलनकारी हैं, स्वयं दुष्ट नहीं | काली तो प्रसिद्द दुष्ट संहारिणी देवी है जिन्हें दुर्गा-पार्वती-आदिमाता -आदिशक्ति का ही प्रतिरूप माना जाता है, आदरणीय |  जो कभी भी अच्छे स्त्री-पुरुषों को तंग या नष्ट नहीं करती |  जो भयानक क्रोध में होते हुए भी पति शिव( कल्याणकारी ) के शरीर पर पैर पड़ते ही शांत होजाती हैं या शिव के बाल रूप में आकर रोने पर तुरंत शांत होकर माँ समान बन जाती हैं | अर्थार्थ है स्वयं कष्ट सहकर भी मानव-कल्याण के कार्य । तभी वे देवी हैं ।

             ललिता देवी तो सौम्यता की देवी है | आदि-माता सती के ह्रदय से निर्मित, सर्व-पूज्य, सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति, जिनसे लालित्य शब्द बनता है  | और ललिता .....श्री कृष्ण- राधा की सर्व-प्रिय  सखी जो प्रेम-भक्ति की प्रतिमूर्ति है, जिसने कभी भी अपने प्रेम को राधा से बांटना नहीं चाहा, कृष्ण को पाना नहीं चाहा | वे आदर्श-प्रेम की सम्पूर्ण-भूता हैं ।
            यही है अंतर लिलिथ व ललिता -काली में,  पाश्चात्य व भारतीय भावों में  |

                                                         -----चित्र गूगल साभार .....




रविवार, 4 दिसंबर 2011

खुदरा बाजार में ऍफ़ डी आई ....डा श्याम गुप्त

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ..
              खुदरा बाजार में ऍफ़ डी आई  पर विरोध  पर मोंटेक सिंह अहलूवालिया  का कथन है कि.... ...मौजूदा आपूर्ति श्रृंखला में कई खामियां हैं ,किसानों को उपज का उचित दाम नहीं मिलता....आपूर्ति-तंत्र में अक्षमता , बिचौलिआपन तथा बरबादी है ...कोल्ड स्टोरेज बगैरह की व्यवस्था नहीं है.....आदि आदि....
            यदि एसा है तो यह तो आपकी सरकार की ही अक्षमता है | उसे ठीक करने के उपाय की बजाय आप विदेशियों को अपने घर में घुसा लेंगे क्या |   फिर तो राजनीति में , नेताओं के चरित्र में , मंत्रियों  के कार्यों में जाने कितनी खामियां हैं ...फिर क्यों हम भारतीय लोगों, नेताओं को ही सत्ता पर काविज़ करें , क्यों न विदेशियों को ही चुनाव में खड़ा होने का न्योता दें, क्यों न उन्हें ही नेता, मंत्री, मुख्य-मंत्री, राष्ट्रपति बनने का न्योता व मौक़ा दें ताकि देश की ये सारी समस्याओं का सरल , बिना कष्ट किये , बिना कठिनाई के हल होजाय |
           आप सब लोगों का क्या ख्याल है.....

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

शीत - ऋतु-------डा श्याम गुप्त

                                       ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
          

              हेमन्त ऋतु की आहट हो चली  है , रात्रि- समारोहों आदि में ठिठुरन से बचने के लिए  अलाव जलाए जाने  का क्रम प्रारम्भ हो चला है | प्रस्तुत है एक ठिठुरती हुई रचना .....

                         १.
(श्याम घनाक्षरी --३० वर्ण , १६-१४, अंत दो गुरु -यगण)
 
थर थर थर थर, कांपें सब नारी नर,
आई फिर शीत ऋतु, सखि वो सुजानी |
सिहरि सिहरि उड़े, जियरा पखेरू सखि ,
उर मांहि उमंगायेपीर  वो  पुरानी |
बाल वृद्ध नारी नरधूप बैठे  तापि रहे ,
धूप भी है कुछ, खोई सोई अलसानी |
शीत की लहर, तीर भांति तन बेधि रही,
मन उठै प्रीति की, वो लहर अजानी ||


                             २.

( श्याम घनाक्षरी -३० वर्ण ,१६-१४, अंत दो गुरु - मगण)
 

बहु भांति पुष्प खिलें, कुञ्ज क्यारी उपवन,
रंग- विरंगी ओढे, धरती रजाई है |
केसर अबीर रोली, कुंकुंम ,मेहंदी रंग,
घोल के कटोरों में, भूमि हरषाई है |
फैलि रहीं लता, चहुँ और मनमानी किये,
द्रुम चढीं शर्मायं, मन मुसुकाई हैं |
तिल मूंग बादाम के, लड्डू घर घर बनें ,
गज़क मंगोड़ों की, बहार सी छाई है ||


                             ३.

( मनहरण घनाक्षरी -३१ वर्ण ,१६-१५,अंत लघु-गुरु -रगण )
 

ठंडी ठंडी भूमि नंगे पाँव लगे हिमशिला ,
जल छुए लगे छुआ बिजली का तार है |
कठिन नहाना नल लगे जैसे सांप कोई,
काँप रहा तन चढ़ा जूडी का बुखार है |
शीत में तुषार से है मंद रवि प्रभा हुई,
पत्तियों पै बहे ओस जैसे अश्रु धार है |
घर बाग़ वन जला आग बैठे लोग जैसे,
ऋषि मुनि करें यज्ञ विविधि प्रकार हैं ||

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

ग़ज़ल -----डा श्याम गुप्त

                                ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 दोस्त सब एक से कब होते हैं |
कुछ अपने लगते हैं, नहीं होते हैं |           

मिल गए आप तो हमने ज़ाना ,
दोस्त कुछ आपसे भी होते हैं |

सितारे  आस्मां पर ही नहीं खिलते ,
कुछ  सितारे जमीं पर भी होते हैं |

दोस्त बस हंसते-खेलते ही नहीं ,
कुछ दोस्त  दर्दे-दिल भी पिरोते हैं |

दोस्त के दुःख दर्द कठिन घड़ियों में ,
दोस्त भी साथ -साथ होते हैं |

दर्द बांटना आसाँ नहीं है 'श्याम ,
दर्दे-दिल दोस्त ही संजोते हैं ||