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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

स्त्री -पुरुष विमर्श गाथा --भाग ३ --स्त्री सत्तात्मक समाज ....

                                                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

   चित्र-१..मातृ-देवी ---             चित्र-२-मातृ-देवी व पुजारी -              चित्र-३--मातृ-देवी द्वारा पशु से युद्ध- 









चित्र४- -- स्त्री सत्ता की स्वच्छान्द्चारिता












                         इस प्रकार मानव द्वारा सहजीवन अपनाने के पश्चात अपनी प्रकृतिगत कार्य दक्षता, कार्य-लगन ,तीक्ष्ण-बुद्धि, दूरदर्शिता व प्रत्युत्पन्नमति एवं संतान के प्रति स्वाभाविक अधिक लगाव के कारण स्त्री ने स्वयं ही श्रम विभाजन की आवश्यकतानुसार संतान-परिवार-समूह- कबीला -के साथ गुफा, बृक्ष-आवास या एक स्थान पर स्थित आवास पर( घर पर ) ही रहकर ही समस्त आतंरिक व वाह्य प्रबंधन व्यवस्था स्वीकार की | इस प्रकार स्त्री-प्रवंधन समाज का गठन हुआ |  समाज मूलतः खाद्य-वस्तु एकत्रक (फ़ूड-गेदरर) था |  बाहर जाकर अन्न, फल, या शिकार एकत्र करना पुरुष का व उसका प्रबंधन, वितरण, संरक्षण व समस्त आतंरिक प्रबंधन स्त्री का कार्य हुआ| स्त्री-पुरुष सम्बन्ध स्वच्छंद थे | मूलतः समाज "लिव इन रिलेशन शिप " के रूप में था | स्त्रियाँ व पुरुष स्वच्छंद थे व अपनी इच्छानुसार किसी भी एक या अधिक पुरुष-स्त्री के साथ सम्बन्ध रख सकते थे |
               ज्ञान बढ़ा, मानव गुफाओं से झोपडियों में आया | घुमंतू से स्थिर हुआ | वह प्रकृति के अंगों ...सूर्य, चन्द्र, वर्षा आदि की आश्चर्य, भय व श्रृद्धा वश आराधना तो करता था परन्तु ईश्वर का कोई स्थान न था न पुरुष देवताओं का | स्त्री सत्ता अधिक दृढ हुई और स्त्री प्रबंधन से स्त्री-सत्तात्मक समाज की स्थापना हुई |सभी पुरुष पूर्णतया स्त्री-सत्ता के अधीन होकर ही कार्य करते थे | पुरुष धीरे धीरे सिर्फ आज्ञापालक की भांति होता गया | संतान आदि .माताओं के सन्दर्भ से ही जाने व माने जाते थे ..., वन-देवी , आदि-माता, माँ , मातृका , सप्तमातृका , प्रकृति-देवी के साथ, वन देवी आदि विभिन्न देवियों की पूजा स्त्री सत्तात्मक समाज की ही देन है | उस काल में किसी पुरुष देवता की पूजा या मूर्ति -लिंग का उल्लेख नहीं मिलता | सबसे प्राचीन मूर्तियां पुरुष देवताओं की न होकर , देवी के थान -(स्थान-सिर्फ चबूतरा बिना किसी मूर्ति के ) व मातृका , सप्तमातृका की ही मूर्तियां हैं |
                  इस प्रकार स्त्रियाँ शासक व पुरुष प्राय: सैनिक की भांति -सुरक्षा व कार्मिक व सलाहकार - हेतु उपयोग होने लगे...स्वच्छंदता व सामूहिकता के दुष्परिणाम आने लगे , स्त्रियाँ अत्यंत स्वच्छंद व स्वेच्छाचारी होने लगीं तो पुरुष द्वारा भी बल प्रयोग की घटनाएँ होने लगीं |  दोनों के आचरण से द्वंद्व बढ़ने लगे|  धीरे धीरे शक्ति- सलाहकार-सैनिक-सेनापति के रूप में पुरुष के हाथ में आती गयी | गर्भावस्था के दौरान अक्रिय रहने व संतति -पालन के दौरान शक्तिहीन होने के कारण पुरुष स्त्री का सुरक्षा -भाव बनने लगा | शारीरिक शक्ति व बल का बर्चस्व बढ़ा और समाज का प्रबंधन पुरुष के हाथ में चलागया| इस प्रकार पुरुष प्रवंधित समाज की स्थापना हुई | यद्यपि आवागमन आदि के संसाधन न  होने से सुदूर स्थानों से तारतम्य,आदान प्रदान  व आपसी संपर्क  होने की दुष्करता व असंभवता  के  फलस्वरूप  दोनों ही व्यवस्थाएं अपने अपने क्षेत्रों में साथ साथ चलती रहीं |

स्वतन्त्रता दिवस पर...ड़ा श्याम गुप्ता ...

....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


 १-दोहा...
हम स्वतंत्र एडवांस हैं ,मन में गर्व असीम |
पर इस सब में बिक गया, दरवाजे का नीम |

२- त्रिपदा अगीत ....
मौसम श्रृंगार नख शिखों की,
बातें   पुरानी  होगईं  हैं;
कवि ! गीत गाओ राष्ट्रके अब |

 ३- अगीत ..खून सना धागा....
अब वो हिन्दोस्तां ,
कभी वापस नहीं आएगा ;
खून सना धागा ,
कहाँ इतने टुकड़ों को ,
जोड़ पायेगा |

४- अगीत - विकास ...
बिकास की
कुलाचें मारता मेरा देश ,
व्यक्ति को धकियाकर
चढ गया ऊंचा,
होकर निर्धनों का धनी देश |