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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

बुधवार, 25 जनवरी 2012

छेड़ दो अब नव तराने.......गीत....डा श्याम गुप्त....

                    ....कर्म की बाती, ज्ञान का घृत हो, प्रीति के दीप जलाओ...         



ऐ कलम  ! अब छेड़ दो तुम नव तराने ,

पीर दिल की दर्द के नव आशियाने |  

आसमानों  की नहीं है चाह मुझको ,

मैं चला हूँ बस जमीं के गीत गाने ||


आज क्यों हर ओर छाई हैं घटाएं ,

चल रहीं हर ओर क्यों ये आंधियां |

स्वार्थ लिप्सा दंभ की धूमिल हवा में ,

लुप्त  मानवता  हुई है  कहाँ जाने  ||

 

तुम करो तो याद कुछ दायित्व अपना ,

तुम करो पूरा सभी दायित्व अपना |

तुम लिखो हर बात मानव के हितों की,

क्या मिलेगा भला प्रतिफल, राम जाने ||

 

तुम  मनीषी और  परिभू  स्वयंभू  हो  ,

तोड़ कारा  सभी वर्गों की,  गुटों की |

चल पड़ो स्वच्छंद नूतन काव्य पथ पर,

राष्ट्र हित उत्थान के लिखदो तराने ||

 

हर तरफ समृद्धि-सुख की ही धूम है,

नव-प्रगति, नव साधनों की धूप फ़ैली |

चाँद-तारों  पर  जा पहुंचा  आदमी है,

रक्त-रंजित धरा फिर भी क्यों, न जाने ?


व्यष्टि सुख में ही जूझता हर आदमी,

हित समष्टि न सोच पाता आदमी अब | 

देश के अभिमान, जग सम्मान के हित,,

देश  के  उत्थान   के लिख दो  तराने ||


राष्ट्र-हित सम्मान के लिख दो तराने,

आज नव-उत्थान के लिख दो तराने |

तुम लिखो तो बात मानव के हितों की,

फल व प्रतिफल,तुम न सोचो, राम जाने ||


मैं चला हूँ   इस जमीं के  गीत गाने|

पीर  दिल  की  दर्द के  नव आशियाने |

ऐ कलम ! अब छेड़ दो तुम नव तराने || 

 

 

 हमारा सच्चा खुशहाल गणतंत्र दिवस
तब होगा, जब हमारा प्यारा भारत
भ्रष्टाचार, अनैतिकता से मुक्त होगा

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

देश के हित भाग्य की वर्षा मैं चाहूँ..