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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

एक एतिहासिक भूल...... ड़ा श्याम गुप्त ...

                                      ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


                      आज से ७५ वर्ष पहले जो भूल की गयी थी उसके दुष्परिणाम आज भी देखने को मिल रहे हैं  | मतभेद भुलाने हेतु  खान अब्दुल गफ्फार खान  को वास्तव  में अपने भाषण में   'राम सेना'  व  'खुदाई खिदमतगार' बनने की सलाह की बजाय  सभी को  " राष्ट्र सेवक"   बनकर आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने का आव्हान करना चाहिए था |  जहां राष्ट्र की बात  होती है  वहाँ राम व खुदा के नाम का प्रयोग  क्यों |  धर्म का नाम ही  नहीं आना  चाहिए |

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

मेरी खुशियों का राज ...ड़ा श्याम गुप्त....

                                         ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                      काफी  पुराने समय की बात है ..सुना, देखा ,पढ़ा करते थे ...कभी कभी आजकल भी दिख जाते हैं ... गली-कूचों में  कुछ लोग... जो अपने को हकीम भी बताया करते थे ... बेचा करते थे.... मर्दाना ताकत की दवा...मुसली,शिलाजीत... सांडा का तेल, जिसे उसी समय किसी तेल में  छिपकली टाइप के जानवर को तल कर बनाया भी जाता था ... अखवारों आदि में विज्ञापन भी आया करते थे | उन्हें पढ़े-लिखे लोगों, वैज्ञानिक जगत के विज्ञान-विज्ञान  चिल्लाने वाले लोगों में  हिकारत की दृष्टि से देखा जाता था |



        आज के अखबारों को उठाकर जब देखते हैं तो ...हाईपावर, जापानी तेल, खुशी का होर्स-पावर , स्टे-ओन, मरदाना पावर ..आदि के विज्ञापन भरे रहते हैं |
    क्या हम ७०-८० साल में भी वहीं के वहीं हैं ....अथवा पुरातन ..को अंग्रेज़ी, पाश्चात्य या नयी बोतलों में ढाल कर वही माल बेचा जा रहा है |







                  
                     

बुधवार, 22 अगस्त 2012

ड़ा श्याम गुप्त की कहानी.....माँ और काजल पुराण.....

                                   ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 
                        
             पुस्तक पढते, कम्प्युटर पर काम करते, नोट्स बनाते जब आँखों में भारीपन व धूल-धूल से होने लगी तो मैं लेट गया और उँगलियों के पोरों से दोनों आँखों को हलके हलके दवाकर आराम देने का प्रयत्न करने लगा | लेटे-लेटे मैं सोचने लगा क्या कोई आई-ड्रॉप डाल ली जाय या लुब्रीकेंट आटीर्फिसियल टीयर्स-ड्रोप्स | तभी बगल के कमरे से मेरा मित्र रमाकांत, जो लखनऊ आया हुआ था, आकर कहने लगा, ’यार! बड़ा धाँसू उपन्यास लिखा है, एक सिटिंग में ही पढ गया, उठा ही नहीं गया बीच में | मज़ा आगया, कालिज का ज़माना याद आगया |’ मुझे लेटे हुए व आँखें मलते देख कर पूछने लगा,’ क्या हुआ ?’
             ‘कुछ नहीं, बस आँख थक गयी तो लेट गया, स्ट्रेन से हल्का-हल्का भारीपन है यूंही, मैंने हथेली से पलकें दबाते हुए कहा |
            तुम तो यार, काजल लगवा लेते थे, इस सिचुएशन में |’ रमाकांत बोला, फिर ठहाका मारकर हँसने लगा तो मैं भी मुस्कुराने लगा |
            मेरा ध्यान पत्नी की ओर चला जाता है जो बेटे के पास गयी हुई थी | जब कभी ऐसा होता है तो मैं श्रीमती जी से सरसों के तेल के दीपक का काज़ल लगवा लेता हूँ अन्यथा वह अपनी काज़ल की डब्बी से ही लगा देती है | आराम मिलता है | काज़ल के नाम से मैं हंसने लगा तो रमाकांत बोला, ’अब क्या हुआ, याद आगई क्या भाभीजी की ?’
           उसी समय टेलीफोन आगया | मैंने फोन उठाया तो पत्नी की आवाज़ सुनकर पुनः हंसने लगा |’
           क्या बात है, क्यों हंस रहे हो, पूछने पर जब काज़ल बाली बात बतायी गयी तो वह कहने लगी, ’वहीं डब्बी में होगा या बनाकर लगालो दो मिनट में |’ 
          ‘अरे, भई ! उन उँगलियों की बात और ही होती है|’ मैंने कहा तो वह भी हंसने लगी, बोली ‘दिन भर लेपटोप पर मत लगे रहा करो, ये नौबत ही क्यों आये |’
          पीछे से रमाकांत ने ..नमस्कार जी’ की आवाज़ लगाई तो अचानक चौंक कर पूछा, ’ कोई आया है क्या घर पर ?’
          हाँ, रमाकांत, मैंने कहा |
         अच्छा अच्छा, चलो अच्छा है, मन लगा रहेगा |  खाने आदि का ठीक चल रहा है न | दिन भर दोनों लोग घूमने में, बातों में, बहस में ही मत लगे रहना |
        विविध निर्देशों-अनुदेशों के पश्चात फोन तो बंद होगया परन्तु काज़ल अभी भी विचार में बना रहा | उँगलियों व काज़ल से स्मृतियों में माँ की तस्वीर उभर कर आने लगी जो बचपन में हम सब बच्चों को पकड़-पकड़ कर जबरदस्ती सरसों के तेल के दीपक की कालिख से बना सूखा काज़ल का पाउडर उँगलियों से लगाया करती थी | अपितु चुटकी से आँखों में भर भी दिया जाता था | कुछ देर तक आँखों में धूल-धूल सी लगने व पानी बहने से पश्चात आराम मिल जाता था| पिताजी भी अकाउंट का कार्य, लिखने-पढने का करते थे तो उन्हें भी अक्सर आना-कानी करने के बाद लगवाना पडता था, यद्यपि बाद में मिट्टी के तेल की लेंटर्न आजाने से तथा विद्युत आने पर काज़ल बनाना सिर्फ दीपावली के दीप तक ही सीमित रह गया| यह क्रम मेरे चिकित्सा-महाविद्यालय में चयन होने पर भी चलता रहा यहाँ तक कि कभी-कभी शादी के बाद भी | माँ का तर्क था कि पढते-लिखते-खेलते आँखों के कांच पर धूल आजाती है, काज़ल से कांच मंज जाता है अर्थात साफ़ होजाता है जैसे चश्मे के कांच को साफ़ करना पडता है |
        ‘तुम तो यार डाक्टर हो, रमाकांत की आवाज़ से मेरी विचार श्रृखला टूटती है | वह कह रहा था,  ‘डाक्टर लोग तो मना करते थे काज़ल-वाज़ल लगाने के लिए, फिर?’
        हाँ, यह तो है, मैंने कहा, ‘यद्यपि अधिकाँश हम डाक्टर लोग पाश्चात्य शिक्षा-प्रभाव वश, क्योंकि काज़ल एक भारतीय प्रथा थी, काज़ल व सुरमे की बुराई ही करते थे, न लगाने का परामर्श देते थे कि यह प्रथा आँखों के इन्फेक्शन व रोगों का कारण है | परन्तु यार, व्यक्तिगत रूप से मैंने काज़ल को कभी खलनायक नहीं माना अपितु सुरमा लगाने की सलाई, जो सुरमा प्रयोग करने वाले समाज व परिवारों में प्रयोग होती थी और एक ही सलाई से सारा परिवार लगाया करता था, को ही खलनायक मानता रहा |’
        ‘तो क्या तुम अब भी लगाते हो काज़ल ?’ उसने आश्चर्य से पूछा |
        हाँ, कभी-कभी, मैंने हँसते हुए कहा, ’काज़ल तो यार, बचपन में माँ लगाया करती थी जबरदस्ती | पर वह तो सदैव गर्म-गर्म बना हुआ काजल, उंगली को दिए पर गर्म करके और प्रत्येक आँख के लिए अलग-अलग उंगली से लगाया करती थी| हमारे यहाँ आँखों के इन्फेक्शन कम ही होते थे|’
       ‘कुछ होता भी है काज़ल-सुरमा से या यूंही आदतानुसार मन का भरम है| होता क्या है काज़ल? रमाकांत पूछने लगा |
           ऐसा नहीं है, मैंने कहा, ‘ काज़ल वास्तव में सूखा हो या गीला, एक प्रकार का ‘अधिशोषक’  (एड्जोर्बेंट) का कार्य करता है | आंसुओं की बहने की गति तीब्र करके वाह्य धूल व आतंरिक प्रक्रियाओं से बने अप-द्रव्यों, स्रावों को बहा देता है | आंसुओं की अधिकता से रेटिना व आँख की पुतली आदि पुनः नम होजाती हैं और आराम मिलता है| आज के लुब्रीकेंट, टीयर्स आदि ड्रोप्स की अपेक्षा आँखों की स्वाभाविक, सहज अश्रु-प्रक्षालन प्रक्रिया के प्रयोग द्वारा |
          विचार फिर श्रीमती जी की ओर मुड जाते हैं | शादी के पश्चात आधुनिक बहू ने कम से कम एक बात तो अपनी पुरातन सास से ज्यों की त्यों सीखी कि वह भी दीपक से काज़ल बनाकर सारे परिवार को लगाती रही वही उंगली से| और अभी भी कभी-कभी आवश्यकता अनुभव होने पर मैं स्वय ही कह कर काज़ल लगवा लेता हूँ, लाभ भी होता ही है| यद्यपि बच्चों के बड़े होने पर एवं स्कूल-कालिज जाने पर यह काज़ल-प्रथा सिर्फ दीपावली के रात भर जलने वाले सरसों के दीपक तक ही सीमित रह गयी |’
          यार, काज़ल तो महिलायें लगाती हैं, सुन्दर बड़ी-बड़ी आँखें दिखने हेतु; ‘कज़रारे नयना, मतवारे नयना..’ सुना नहीं है | भाभीजी भी तो मोटा-मोटा काज़ल लगाती हैं न, और वो पड़ोसन.....|
           हाँ, सही उपयोग तो वही है, मैंने हंसकर बात काटते हुए, हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा,  ‘महिलाओं में सौंदर्य प्रसाधन की भांति तो काज़ल का प्रयोग युगों से चला आरहा है एक प्रमुख कृत्य की भांति, नेत्रों के सौंदर्य के प्रतीक रूप में | क्या प्यारा गाना है.. ’हाय काज़ल भरे मदहोश ये प्यारे नैना ...’ हम दोनों सुर में सुर मिला कर गाने लगते हैं |
         अरे काज़ल का क्या कहते हो | रमाकांत बोला, ’कठोर अंग्-छिपाऊ वस्त्र नियमन प्रथा वाले समाज में भी सारा शरीर ढके सिर्फ आँख चमकाती हुई महिलाएं भी नकाब या लंबे घूंघट के अंदर कज़रारे नयना रखने से नहीं चूकतीं | आजकल तो आँखों के गड्ढे व कालिमा छिपाने के लिए आई-लाइनर और अब तो हरा, नीला, लाल, गुलाबी, सुनहरा आई-शेडो का ज़माना है जिसे लगा कर महिलायें जादूगरनी, लेडी-ड्रैक्यूला या कहानियों में पुरुषों को कैद करके रखने वाली खूसट रानियों-राजकुमारियों जैसी लगती हैं |
          और.... मैंने जोडते हुए कहा, ’ ये काज़ल तो सारे प्रोटोकोल- रिश्तों की दूरियां भी समेट देता है, लोग... ‘कजरारे कज़रारे तेरे कारे कारे नैना ‘...गाते हुए नाचने लगते हैं | हम दोनों हंसने लगते हैं |

          वाह ! आज तो सुबह-सुबह “काज़ल-पुराण” वाचन होगया | आँख तो स्वस्थ हो ही गयी होगी बिना काज़ल के ही | इस पर भी एक कहानी लिख देना, रमाकांत ठहाका लगाते हुए बोला |
         ‘अच्छा सुझाव है | चलो लंच का जुगाड किया जाय’, मैंने उठते हुए कहा | 

सोमवार, 20 अगस्त 2012

डा.श्याम गुप्त की कहानी : ....अब पोते को पालती...

                                ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


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अब पोते को पालती...

                                           
                     “अब पोते को पालती, पहले पाली पूत” ...वाह! क्या सच्चाई बयान करती कविता है।’ सत्यप्रकाश जी कविता पढ़कर भाव-विभोर होते हुए कहने लगे, ’आजकल यही तो हो रहा है, बच्चे माँ-बाप को आया बनाकर ले जाते हैं, रखते हैं, अपनी संतान के पालन हेतु। बेचारी माँ पहले ... पुत्र-पुत्रियों को पालती रही अब इस उम्र में पोतों को; स्वयं लिए कब समय मिलेगा।’ वे क्लब-हाउस में मित्रों के साथ बैठे पत्रिका पढ़ रहे थे।
                      ‘अरे ! क्या पोते–पोतियों को पालना स्वयं का कार्य नहीं है, ‘साथ में बैठे जोशी जी बोले, ‘वह भी तो स्वयं का कार्य ही है, अपनी संतान का। कवि भ्रमित-भाव है, अनुभव की कमी है अभी।’
                      पर ठीक तो है जी, इस प्रकार माँ को अपने स्वयं के लिए समय मिला ही कब। कवि तो वर्त्तमान का यथार्थ, भोगा हुआ, देखा हुआ यथार्थ लिखता है।’, सत्यप्रकाश जी ने कहा।
                       हाँ ... हाँ, वर्तमान का वर्णन तो कवि का सामयिक दायित्व है, परन्तु अनुचित भाव-कथ्य या बिना विषय की गंभीरता पर सोचे विचारे तथ्य कवि को नहीं रखने चाहिए, जैसे इस कविता में। भई, अपने लिए समय क्या ? क्या नाती-पोतों को पालना आयागीरी कहलायेगी। यह तो सदा से ही होता आया है, कोई नयी बात थोड़े ही है। पहले कभी तो यह प्रश्न नहीं उठा। सम्मिलित परिवारों में भी नाती-पोते सदा बावा-दादी ही तो पालते हैं। पुत्र- जो इस समय पिता है व घर का मुखिया रूप में है – को तो कार्य से समय ही कब मिल पाता है। तभी तो पोते में सदा दादा के संस्कार जाते हैं। कहावत भी है...”मूल से अधिक ब्याज प्रिय होती है।” पोते–पोतियों को पालना, खिलाना सबसे बड़ा सुख व मनोरंजन है।’ जोशी जी बोले।
                 ‘परन्तु एक सच बात को लिखने में क्या बुराई है ?’
                       हाँ..sss, पर एक बुराई को दृश्यमान करने हेतु क्या आप एक अन्य सामाजिक प्रथा को बुरी बनने में सहायक होंगे? जोशी जी बोले।
                      कैसे ?
                     ‘माँ-बाप’ को, जो स्वच्छंदता पसंद हैं, कुछ पैसा भी है या पाश्चात्य विचार-धारा से प्रभावित हैं, उनको यह सन्देश जाता है कि अरे! जब सब मौज कर रहे हैं तो हम भी क्यों न मौज मस्ती में गुजारें ये दिन। आजकल यूं भी हर बिंदु पर–चाहे टीवी सीरियल व विज्ञापन हो, या सिनेमा, समाचार-पात्र, ट्रेवल एजेंसी के विज्ञापन आदि...सभी मौज-मस्ती कराने के विज्ञापनों से भरे रहते हैं। वे अपने लिए तो कमाने का ज़रिया, धंधे का ज़रिया ढूँढते हैं और वरिष्ठ–जनों को ललचाते रहते हैं इस उम्र में भी मौज-मस्ती – मनोरंजन हेतु, घूमने हेतु। नाती-पोतों में फंसने से बचने हेतु। यह स्थिति समाज को विभक्त करती है। पीढ़ियों के मध्य दूरी, जेनेरेशन गैप, को अधिक चौड़ा करती है। समाज में और अधिकतम कमाने की प्रवृत्ति और आपसी वैमनस्यता, विषमता के बीज फैलाती है।’ जोशी जी ने अपना कथन स्पष्ट किया।
‘तो कवि क्या लिखे, पौराणिक कथाएं ?’ मेज के दूसरी ओर बैठे सुरेश जी ने वार्तालाप में भाग लेते हुए कहा तो सत्य प्रकाश जी व अन्य सब हंसने लगे।
                    ‘ हाँ, लिख सकते हैं, लिखना चाहिए’, जोशीजी भी हंस कर कहने लगे,’ परन्तु अद्यतन सन्दर्भ के साथ, आज की परिस्थितियों की विवेचना, पुरा से तुलना करके यथा-तथ्य बताना सार्थक साहित्य का दायित्व है।’
                      ‘क्या पुरा साहित्य सब सच होता है ?’ अस्थाना जी पूछने लगे।
                      ‘हो भी सकता है, परन्तु वही साहित्य इतने लंबे समय तक जीवित रहता है जो सत्य के निकट हो अथवा जो सत्य को एवं समाज हेतु आवश्यक तथ्यों को उद्घाटित करता है चाहे वह रचना में वास्तविक हो या कल्पित। साहित्य वास्तव में है क्या, साहित्य समाज का इतिहास होता है। साहित्यिक कथाओं के पात्र सदैव समाज में होते हैं भले ही कथा में वे कल्पित हों। जैसे ये कविता, जोशीजी सत्य प्रकाश जी की ओर उन्मुख होकर कहने लगे, जो अभी आपने पढ़ी, वह भी यह बताने में तो समर्थ है ही कि आज के समाज में ऐसा भी सोचा जाता था, होता भी था। यदि कविता दीर्घजीवी हुई तो।’
                        ‘तो क्या जो समाचार मिल रहे हैं या मिलते हैं कि माता-पिता के साथ बेटे दुर्व्यवहार कर रहे हैं....यह स्थिति उचित है या समाचार असत्य हैं।’ सत्य जी ने प्रश्न उठाया।
‘ उचित कैसे कहा जा सकता है ? समाचार सत्य हो या असत्य। देखिये, दुर्व्यवहार तो श्रवणकुमार के माता-पिता के साथ भी हुआ था सतयुग में। वास्तव में आज ये घटनाएँ मूलतः स्वार्थ, अति-भौतिकता वाली धन आधारित सोच व जीवन शैली व्यवस्था के कारण हैं। मुझे लगता है अधिकाँश बच्चे सामयिक वस्तु-स्थिति के दबाव व मज़बूरी वश ऐसा करते हैं, मन ही मन वे अवश्य ही आत्म-ग्लानि व पीड़ा से ग्रस्त रहते हैं। तभी तो वे प्राय: नर्वस, चिडचिडे हो जाते हैं और इससे पति-पत्नी झगड़े..व अन्य द्वंद्वों के कारक उत्पन्न होते हैं। क्या दया, प्रेम, सांत्वना व उचित सुझाव की अधिकारी नहीं है आज की पीढ़ी ?’            
                     ‘क्या आज की पीढ़ी हमारे सुझाव मानती है ?’ अस्थाना जी कहने लगे।
                    ‘हाँ, यह भी एक पृथक समस्या है परन्तु वे दया, प्रेम, सांत्वना व उचित सुझाव के अधिकारी तो हैं ही।’ सत्य प्रकाश जी ने कहा।
                      ‘माता-पिता भी यदि उन्हें अपने समय की दृष्टि से तौलते हुए चलाना चाहते हैं तो भी द्वंद्व बढ़ते हैं। जब तक नाती-पोते छोटे होते हैं तभी अधिक आवश्यकता होती है दादा-दादी की, परिवार की। यदि ऐसे समय पर आप उनके साथ नहीं होंगे, घूम-फिर रहे, मस्ती कर रहे होंगे, अपनी ज़िंदगी जी रहे होंगे तो और आपकी अधिक उम्र होने पर वे क्यों आपके काम आयेंगे। हाँ,आप काफी धनपति हैं तो अलग बात है|’ जोशी जी हंस कर बोले।
                      अरे ! तब तो वे आपके आगे-पीछे भी लगे रहेंगे परन्तु सिर्फ स्वार्थ हेतु ...या फिर एकदम किनारा कर लेंगे।’ सुरेश जी बोले।
                       ‘जहां तक विदेश में बसे भारतीयों के माँ-बाप की बात है। वहाँ न साथी, न समाज, न कोई अपना तो आराम भी बंधन हो जाता है और मशीन की भांति पोते-पोतियों को पालना-खिलाना भी बंधन लगने लगता है। उनके स्कूल जाते ही वे नितांत अकेले हो जाते हैं| किसके पास समय है उन्हें पूछने के लिए। वहाँ की कल्चर भी प्रभावित करती है व्यवहारों को, जिसे आधुनिक से आधुनिक भारतीय माँ-बाप नहीं झेल पाते। वही सब बंधन, उपेक्षा, शोषण, पीड़न लगने लगता है।’ जोशी जी ने कहा।
                       ‘यह सब तो अब यहाँ भी होता है।’, अस्थाना जी बोले।
                         ‘सही कहा’, यह सब साहित्यकारों, कवियों व समाज शास्त्रियों को सिर्फ कहने की अपेक्षा इसका युक्ति-युक्त समाधान भी प्रस्तुत करना चाहिए।’ जोशी जी कहते जा रहे थे।
                         तभी जोशी जी की पत्नी, कुसुम जी, आ जाती हैं, और कहने लगीं,’ मुझे भी कहाँ समय मिलता है अपने लिए, दिन भर राघव की देखभाल में लग जाता है। एक फुल-टाइम आया भी रखी हुई है उसके लिए फिर भी।’
                      ‘आपको किसलिए टाइम चाहिए ?’ जोशीजी मुस्कराते हुए पूछने लगे।
                       ‘कथा, सत्संग, भजन-कीर्तन मंडली में मन बहलाने के लिए। वहाँ अपने शहर में तो किटी, सहेलियों, पडौसी ...आना-जाना लगा ही रहता था, सब छूट गया।’  
                       वह भी एक महत्वपूर्ण काल-खंड था जीवन का, आप भोग चुके। वैसे पोते को पालने-खिलाने-बड़ा करने-पढाने-लिखाने से बड़ा कीर्तन क्या होगा। भविष्य की संतति, बाल-रूप भगवान की सेवा से बढकर क्या भजन, पूजा व दुनिया की सैर होगी ? अपने पुत्र-पुत्री पालते समय भी तो कभी-कभी एसा अनुभव हुआ होगा कि क्या-क्या छूटा जा रहा है जीवन में ...क्यों..| जोशी जी ने हंसते हुए पत्नी से पूछने लगे।
                        ‘हाँ.. लगता तो था, पर दायित्व-बोध था’, कुसुम जी बोलीं, ’ आजकल के बच्चे तो अपने बच्चों को समय देने की अपेक्षा नौकरी, पार्टी, मीटिंग को अधिक समय देते हैं। यदि वे बच्चों के प्रति अपना दायित्व ठीक से निभाएं, कुछ ऐसा रहे कि वे भी अपने बच्चों को और अधिक समय दें तो दादा-दादी को अखरेगा नहीं, दिन भर जुटना नहीं पड़ेगा| उन्हें भी स्पेस चाहिए। संयुक्त परिवार की भांति घर में ही दायित्व निर्वहन के साथ–साथ खेल-कूद, पार्टी, मनोरंजन सब करें।’
                    ‘पर वह तो संयुक्त परिवार की बात है। वहाँ तो दायित्व व कार्य का विभाजन हो जाता है। पर यहाँ आजकल तो पति-पत्नी दोनों ही काम पर जाते हैं अन्यथा परिवार की आय कैसे बढ़ेगी। पत्नियां भी व्यावसायिक व्यस्तता के चलते घर व बच्चों पर कम समय दे पाती हैं| ‘ जोशीजी ने कहा।
                  ‘हाँ, यही तो सच है आज का, अधिक और अधिक कमाई, अर्थ-युग की मेहरबानी।’ कुसुम जी कहने लगीं,’ जिन बच्चों के माँ-बाप नहीं है पोतों की देखभाल हेतु, या नहीं उपलब्ध हैं किसी कारण वश, वे आया रखते हैं बच्चों के लिए। आया पर जहां सिर्फ दस हज़ार खर्च होते हैं तो पत्नी पचास हज़ार कमाकर लाती है।’
                    हूँ, जोशी जी बोले, ’अर्थ लाभ तो है ही, परन्तु बच्चों का भाग्य...जो बच्चे पचास हज़ार की क्षमता वाली से पलने चाहिए व दस हज़ार वाली से पल रहे हैं।' सब हंसने लगे तो वे पुनः कहने लगे, ‘‘मैं समझता हूँ ऐसे में जो बावा-दादी अपने पोते-पोतियों को पाल रहे हैं वे बहुत बड़े सामाजिक, साथ ही साथ राष्ट्रीय व मानवीय दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं।’
                    ‘हाँ,बहुत से बच्चे बावा-दादी के होते हुए भी बच्चे के लिए आया रखते हैं ताकि उनके माता-पिता को अधिक कष्ट न हो|’ सुरेश जी ने कहा|
                     ‘पर आया, उन्हें लिफ्ट कहाँ देती है। स्वयं को मेम-साहब की अनुपस्थिति में मालकिन समझती है| वह तो बावा-दादी को ही बच्चे पालना सिखाने लगती है। कभी-कभी बच्चों की दुर्गति देखकर उन्हें और अधिक कष्ट होता है। शिशुगृहों (क्रेच) में भी बच्चे पलते हैं परन्तु वहाँ के हालात सब जानते हैं| भई ! असली-नकली में अंतर तो होता ही है।’ जोशी जी ने कहा।
                    ‘रोने गाने से क्या लाभ ?' सत्यप्रकाश जी कहने लगे, ’न आप कुछ कर पाते हैं न हम। यह युग चलन है। नाती-पोते खिलाते रहो, पुण्य कमाते रहो, समय मिले कविता पढ़ते रहो, गुनगुनाते-गाते रहो, मस्त रहो।’ सत्य प्रकाश जी ने जैसे अपना निर्णय सुनाया।
                     ‘ सच है, पर कवि को तो कविता में दुविधा-भाव वाले तथ्यों व अनुचित बात पर तूल देने की अपेक्षा समस्या का समाधान भी देना चाहिए न।’ कहकर जोशी जी हंसने लगे।
                                                

रविवार, 19 अगस्त 2012

यह प्रदर्शन है या अलविदा की नमाज़ या नमाज़ को अलविदा ....ड़ा श्याम गुप्त ..

                                      ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

यह  प्रदर्शन है या अलविदा की नमाज़  या नमाज़ को अलविदा ....

           क्या यह प्रदर्शन है......दुनिया भर में प्रदर्शन होते हैं परन्तु  डंडे व हथियारों से युक्त होकर कहीं नहीं  होते,  क्या ये नमाज़ी हैं ? .....नमाजियों पर हथियार कहाँ से आये  व क्यों आये ? क्या यह पूर्व-प्लांड था | क्यों आज भी संयुक्त नमाज़ के समय सदा सामान्य-जन में खौफ रहता है एवं दंगे होते  हैं |
                    धर्म, उपासना व प्रार्थना मनुष्य का व्यक्तिगत मामला है ...  वस्तुतः सामूहिक उपासना धर्म का भाग  नहीं  है, इनका कोई तात्विक अर्थ भी नहीं है  और यह बंद होजानी चाहिए |  धार्मिक प्रवचन जो खुले समाज एवं खुले स्थलों पर  होते हैं तथा  इस प्रकार की सामूहिक उपासना में अंतर है | इस प्रकार की सामूहिक उपासना अन्य धर्मों में नहीं देखी  जाती |
                    ये घटनाएँ निश्चय ही  सामाजिक सौहार्द को नष्ट करती हैं, नगर,देश-राष्ट्र को बदनाम करती हैं, साथ ही मुस्लिम समाज को भी | आखिर क्यों पश्चिमी देशों  द्वारा एवं अन्य विश्व में भी  आतंक का ठीकरा मुस्लिमों के सर ही फोड़ा जाता है| ऐसी घटनाएँ ही इस सबके लिए जिम्मेदार होती हैं |
     हमें  यह सब सोचना चाहिए ....कब सोचेंगे  ?
         

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

आज का छिद्रान्वेषण ...हम हिन्दुस्तानी .....ड़ा श्याम गुप्त .....

                                   ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
                      हम हिन्दुस्तानी






                             १.
मेरा जूता इंग्लिस्तानी, ये पतलून अमरीकानी,                                                
सर पे बाल,शैम्पू वाले, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी |

निकल पड़े हैं प्रगति के पथ पर,हाथ में लिए तिरंगा,
कोई  न  भारतवासी अब  रह पाए  भूखा  नंगा |
होगी दुनिया को हैरानी, हम दीवाने हिन्दुस्तानी ||




                               





                             
                  हम हिन्दुस्तानी
                           २.
          पता नहीं  इस समाचार में साँपों और पढ़ी गयी कविता का क्या अर्थ है .... यदि पुरुष के लिए कथन है तो वे सांप तो हैं ही चाहे जहरीले हों या सीधे ....
 ----और प्रेम में झूठा खाना जरूरी नहीं होता 
       झूठन खाना तो हरगिज़ नहीं |....... 
------ पर झूठा खाने के लिए प्रेम करना तो आवश्यक है ...
जब प्रीति चुम्बन, बिना मुख झूठा किये नहीं होता,
 तो झूठा खाने में क्या बुराई है |
.------- झूठा तो महिलायें स्वयं ही या तो खाना बेकार न जाय ..या प्रेम वश खाती-पीती  हैं ..... क्या आजकल की पीढ़ी ..प्रतिदिन एक ही  स्ट्रा से, एक ही गिलास से या आधा-आधा नहीं पी रहे हैं हर टीवी, सिनेमा और वास्तव में भी माल में, होटलों में .....स्वेच्छा से, स्मार्टनेस से,  प्रेम से?.....पति-पत्नी बनने से पहले ही ....
                                            तथा....
" प्रेम  डराता है  हमें डराता है कि जिसे हम चाहते हैं वह खो न जाए चला न जाए बदल न जाए ..."  
----तो वह प्रेम किस बात का ...वह तो आकांक्षा है....सिर्फ  चाह है...प्रेम नहीं .."जब प्यार किया तो डरना क्या "

 ------एसी व्यर्थ की, निरर्थक समाज को विच्छेदित करने वाली, अतार्किक, असाहित्यिक  कविताओं से हम समाज को क्या दिशा देना चाहते हैं .... अब हम क्या कहें साहित्यिक-सामाजिक दायित्व की बात  ...जबकि वरिष्ठ समाज सेवी लोग भी वहाँ उपस्थित हैं ...|  और कितना गिराएंगे हम समाज को, साहित्यिक स्तर को , व्यक्ति को ........|

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

स्वतन्त्रता दिवस ..पर एक पुराना ... बाल गीत....डा श्याम गुप्त

                                 ....कर्म की बाती,  ज्ञान का घृत हो, प्रीति के दीप जलाओ...

                   (मेरे द्वारा रचित एवं  मेरे अनुज द्वारा अपने स्कूल में गाया गया लगभग  ४५  वर्ष पुराना  एक  बाल-गीत)

हम  वीर देश के नौजवान वीरों का मान  बढायेंगे |
पथ में बाधाएं रहें खडीं, पग पीछे नहीं हटाएंगे ||

         काँटों से पूरित राहों को,
               कुचलेंगे हम हिम्मत वाले |
                        जो रक्त-धार से बने मार्ग ,
                                उस पर दौडेंगे मतवाले |

जो यज्ञ किया था बीरों ने,  हम  आगे  उसे  जलाएंगे |
जो ध्वजा उन्होंने फहरा दी, हम उस तक पहुँच दिखाएँगे||

            चाहे सम्मुख हो मृत्यु खड़ी,
                  पर हम क्या डरने वाले हैं |
                        'मरना तो वस्त्र बदलना है ',
                             हम  सदा समझने वाले हैं |

आयें  सारे दुश्मन मिलकर, सब शेखी  धूल मिलायेंगे |
आतंकी  या भ्रष्टाचारी,  हम सबको मज़ा चखाएंगे ||

प्यारे भारत के कर्णधार बन इसका मान बढायेंगे |
पथ में बाधाएं रहें अडी, पग पीछे नहीं हटाएंगे ||


                                      ------------- चित्र... दीपिका गुप्ता




सृजन साहित्यिक संस्था का चतुर्थ वार्षिक साहित्योत्सव एवं पुस्तक लोकार्पण समारोह .... डा श्याम गुप्त

                                              ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



लोकार्पित पुस्तक
                              लखनऊ की युवा साहित्यकारों की संस्था सृजन का वार्षिकोत्सव स्थानीय गांधी संग्रहालय के सभा-भवन में दि. १२-८-१२ को संपन्न हुआ |  जिसमें संस्था के संरक्षक हिन्दी कविता में अगीत-विधा के संस्थापक कविवर डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' को समर्पित पुस्तक  " साहित्य् मूर्ति  डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'"  का लोकार्पण हुआ तथा संस्था के वार्षिक सम्मान ---' सृजन साधना वरिष्ठ रचनाकार सम्मान'....लखनऊ के  कविवर  श्री सूर्य-प्रसाद  मिश्र  'हरिजन'  को  तथा  'सृजन साधना युवा रचनाकार सम्मान'.....गोंडा के  उदीयमान युवाकवि श्री जयदीप सिंह 'सरस' को प्रदान किया गया | इस अवसर पर डा रंगनाथ मिश्र सत्य का सारस्वत सम्मान भी किया गया
पुस्तक का लोकार्पण --श्री गधाधर नारायण, प्रोफ मौ.मुजम्मिल, विनोद चन्द्र पांडे ,महेश चन्द्र द्विवेदी , रामचंद्र शुक्ल, डा सत्य , डा योगेश व  देवेश द्विवेदी
                  समारोह की  अध्यक्षता  महाकवि श्री विनोद चन्द्र पांडे ने की, मुख्य अतिथि  रूहेल खंड विश्व-विद्यालय के कुलपति एवं देश के जाने-माने अर्थ शास्त्री व साहित्यकार श्री मोहम्मद मुजम्मिल थे | विशिष्ट अतिथि लखनऊ वि.वि के हिन्दी  विभाग की  पूर्व प्राचार्या प्रोफ. उषा सिन्हा, पूर्व पुलिस महानिदेशक श्री महेश चन्द्र द्विवेदी , श्री गदाधर नारायण सिन्हा, पूर्व न्यायाधीश श्री राम चन्द्र शुक्ल थे |

                  संस्था के अध्यक्ष डा योगेश गुप्त ने अथितियों का स्वागत करते हुए संस्था के कार्यों व उद्देश्यों का विवरण दिया | संचालन संस्था के महामंत्री श्री देवेश द्विवेदी 'देवेश' द्वारा किया गया |  वाणी  वन्दना सुप्रसिद्ध संगीतकार श्रीमती कमला श्रीवास्तव द्वारा की गयी |
समाम्नित साहित्यकार--साथ में  डॉ योगेश गुप्त , प्रोफ. उषा सिन्हा व प्रोफ मौ.मुजम्मिल
                         समारोह के  मुख्य वक्ता  के रूप में वैदिक विद्वान श्री धुरेन्द्र स्वरुप बिसरिया,  वरिष्ठ कवि व साहित्यकार  डा श्याम गुप्त,   श्रीमती स्नेहप्रभा  एवं  संघात्मक समीक्षा पद्धति  के समीक्षक श्री पार्थोसेन  ने  साहित्य-मूर्ति डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'  तथा  सम्मान प्राप्त साहित्यकारों की साहित्य साधना की चर्चा की  एवं लोकार्पित पुस्तक प्रति अपने विचार रखे  | 
                         डा श्याम गुप्त  ने संस्था की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह संस्था  वरिष्ठ व युवा रचनाकारों के मध्य एक सेतु का कार्य कर रही है  जो हिन्दी, हिन्दी साहित्य  व राष्ट्र की सेवा का एक महत्वपूर्ण आयाम है|   अपने वक्तव्य  "'अगीत के अलख निरंजन डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' "  पर बोलते हुए उन्होंने डा सत्य के विभिन्न नामों व उपाधि-नामों पर चर्चा करते हुए बताया कि डॉ सत्य के आज तक जितने नामकरण हुए हैं उतने शायद ही किसी साहित्यकार के हुए हों |
                     इस अवसर पर बोलते हुए प्रोफ. मोहम्मद मुजम्मिल ने बताया कि जिस प्रकार देश में आर्थिक उदारीकरण  हुआ उसी प्रकार साहित्य में भी  काव्य में  उदारीकरण  डा रंगनाथ मिश्र  द्वारा स्थापित विधा अगीत ने   किया है |
                     सम्मानित  कवियों व डा रंग नाथ मिश्र द्वारा काव्य-पाठ भी किया गया | धन्यवाद ज्ञापन संस्था के उपाध्यक्ष राजेश श्रीवास्तव  ने किया |



डा रंग नाथ मिश्र 'सत्य' - काव्य-पाठ


अन्ना व रामदेव का सत्याग्रह और राजनीति .....डा श्याम गुप्त

                               ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                          न जाने लोग (--अधिकतर मीडिया वाले एवं राजनेता ) राजनीति  को क्यों बुरा समझते हैं और इन दोनों के आंदोलन को राजनीति में आने से बुरा क्यों मानते हैं | क्या राजनीति कोई  अछूत वस्तु है जिसमें सिर्फ चोर-लुटेरों, भ्रष्ट, अनैतिक लोगों को ही आना चाहिए....या यह कोई व्यवसाय या खानदानी व्यवसाय है जो वही घिसे -पिटे, घाट-घाट का पानी पिए हुए, भ्रष्ट लोगों को....पिता -पुत्र -पत्नी  वाले  पीढ़ियों -परिवारों  ही आना चाहिए |
                         हम भूल जाते हैं कि प्रत्येक जन-आंदोलन ..अंतत: राजनीति की राह से ही गुजरता है .....और व्यवस्था परिवर्तन की प्रथम राह राजनैतिक सत्ता परिवर्तन ही होता है | इतिहास उदाहरण है कि परशुराम की क्रान्ति, राम का जन आंदोलन, कृष्ण का जन-नीति आंदोलन, महात्मा गांधी का सत्याग्रह, जेपी आंदोलन  जिन्होंने सामयिक सरकार की नींव हिलाकर रखदी , सत्ता  को  पदच्युत करके ही सफलता पाई |.....यदि राजनीति में अच्छे, सच्चे, पढ़े-लिखे, विद्वान, नीतिवान व्यक्ति  नहीं आयेंगे तो उसे सही दिशा कैसे प्राप्त होगी ?
                      आखिर देश की राजनीति को दिशा विद्वान, ईमानदार, विज्ञ व्यक्ति, सत्ता से बाहर वाले व्यक्तित्व ही तो देंगे न कि  सता-शासन  में बैठे हुए भ्रष्ट लोग और मीडिया के आधे-अधूरे जानकार अर्ध-ज्ञानी पत्रकार |

रविवार, 12 अगस्त 2012

यह बिजिनेस मेनेजमेंट है.... डा श्याम गुप्त ....

                                       ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                              आज  कल घर घर में एम् बी ए  के  स्कूल खुल रहे हैं और हर व्यक्ति मेनेजर बनने का ख्वाव देखता है .... सफाई प्रवंधन मेनेजर ही क्यों न हो .... मेनेजमेंट का ज़माना है ...छोले-पकौड़ी या कपडे , जूते, कुर्सी-मेज बेचने वाला हो या घर-घर पर  साबुन-सर्फ़ ...सब मेनेजर हैं | यह मेनेजमेंट है क्या .... किसी भी भांति से अपना सामान बेचना......देखिये ...चित्र में...
१---कीमत --४००००/-( और बेईमानी की इंतिहा है कीमत ..३९९९९ /- लिखना ..क्या हम इतने मूर्ख हैं ?)  जिसकी कीमत १०००० /- से अधिक् नहीं होगी ....फ्री में १४००० के आइटम ..जिनकी कीमत ४००० /- से अधिक नहीं होगी .....अर्थात १४००० का माल ४००००/- में |
२-- कीमत --३२०००/-( ३१९९९/-/)  जो १००००/- से अधिक की नहीं है ...फ्री में २१०००/- का आइटम जो ६००० /- से अधिक का नहीं होगा ....अर्थात ....आप  ही सोचें ...क्यों  बिजेंनेस-में वारे-न्यारे होते हैं.... कहाँ  से , कैसे कालाधन पैदा होता है ......यह बाजारवाद है...बाज़ार का धर्म....

--- क्या सिखा रहे हैं हम अपने नौनिहालों को ..शुरू से ही .झूठ, बेईमानी , टेक्स चोरी ..स्कूल-कालेजों से ही ...वे बड़े होकर क्या करेंगे .....
---- ऐसे  समाज, सरकार, वर्ग  से हम क्या आशा करें .....और क्यों करें ....
.................................................................. मस्त राम मस्ती में , आग लगे बस्ती  में ...........


झूठा  विज्ञापन करें , सबसे अच्छा माल |
देकर गिफ्ट, इनाम बस, ग्राहक करें हलाल |

झूठ काम की लूट है, लूट सके तो लूट |
तू पीछे रह जाय क्यों, सभी पड़े हैं टूट |

तेल-पाउडर बेचते, झूठ बोल इतरायं |
बड़े  महानायक बने, मिलें लोग हरषायं |

साबुन क्रीम औ तेल को, बेच रहीं इतराय |
झूठे  विज्ञापन करें , हीरोइन कहलायं |



शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

डा श्याम गुप्त के दोहे....श्रीकृष्ण दोहा अष्टमी ....

                                 ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



ललित  त्रिभंगी  रूप में, राधा संग गोपाल ,
निरखि निरखि सो भव्यता होते श्याम निहाल |

या  कदम्ब तरु छाँह के, भाग सराहें श्याम,
सेवे, चितवे युगल छवि, नित राधा घनश्याम |

श्याम शांत चित सौम्य शुचि , यमुना तट  की भोर,
अजहूँ  चिंतन चित चकित, चित चितवे चित चोर |

फूल  हिंडोला  पालना  नृत्य  गान श्रृंगार ,
पंचामृत  संग भोग-सुख,नित आनंद विचार |

लीला भूमि जो लाल की,  जो  ब्रजभूमि कहाय ,
परसि श्याम जेहि रज किये, सकल कलुष कटि जायं |

तिर्यक  भाव औ कर्म को, मन लावै नहिं कोय |
मन लावे तो मन बसे, श्याम त्रिभंगी सोय |


कृष्ण-मुरारी उर बसे, चित में लिए रमाय,
नित-नित दर्शन मैं करूं, नैनन  पलक झुकाय |

इन नैनन  में बस रहे, राधा,  नंद किशोर,
पलकों की चिक डाल कर,मन हो दर्श विभोर |

नित्य रूप-रस जो पिए, दर्शन कर घनश्याम ,
परमानंद प्रतीति हो, जीवन धन्य सकाम ||




 



                                --- चित्र गूगल साभार ...



गुरुवार, 9 अगस्त 2012

कृष्ण जन्माष्टमी ...डा श्याम गुप्त के पद .....

                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

ब्रज  की भूमि भई है निहाल |
आनंद  कंद  प्रकट भये ब्रज में विरज भये ब्रज ग्वाल |
सुर  गन्धर्व  अप्सरा गावहिं,  नाचहिं   दै- दै  ताल |
आशिस देंय विष्णु शिव ब्रह्मा, मुसुकावैं  गोपाल |
जसुमति द्वारे बजे बधायो, ढफ ढफली खडताल  |
पुरजन परिजन हर्ष मनावें, जनमु लियो नंदलाल |
बाजहिं  ढोल  मृदंग  मंजीरा, नाचहिं ब्रज के बाल |
गोप गोपिका करें आरती,  झूमि  बजावैं   थाल |
सुर दुर्लभ छवि निरखि निरखि छकि श्याम' हू होय निहाल ||


कैसो बानक धरयो  गुपाल |
पीताम्बर कटि, पग पैजनियाँ, मोर मुकुट लिए भाल |
मनहर मुद्रा  धरी  त्रिभंगी,  उर  वैजयंती-माल |
छवि सांवरी, नैन रतनारे , सुन्दर भाल विशाल |
ओठ मुरलिया शोभित छेड़े, पंचम राग धमाल |
सुर दुर्लभ छवि निरखि कन्हाई श्याम भये हैं निहाल ||






               ----चित्र--गूगल व ....निर्विकार ..साभार ...





शनिवार, 4 अगस्त 2012

व्यवस्था में सुधार तो तब हो जब ..व्यर्थ की बातों से हटा जाये .... डा श्याम गुप्त ..

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                      हम सभी चिल्लाते तो हैं ..व्यवस्था ..व्यवस्था ... व्यवस्था सड़-गल गयी है.. परन्तु क्या करें यह नहीं सोच पाते अपितु प्रतिदिन उन्हीं कार्यों में स्वयं को व्यस्त रखते हैं जो  कुछ बातें देश, समाज, संस्कृति, राजनीति व जन सामान्य के कृतित्व  में घुन की भांति लगी हुई हैं ... जो नेताओं, कर्मचारियों, शासकों एवं सभी जन सामान्य  को  इन व्यर्थ के अलाभकारी कार्यों में  लगाए रखती हैं ...इन से ध्यान हटे तो व्यवस्था की  ओर  ध्यान जाये .....
१. जिस्म...पूजा भट्ट .. फिल्म जैसे लोग व फ़िल्में जो कामुकता--अश्लीलता की नई-नई परिभाषायें गढ़ कर समाज में विकृति फैलाने का कार्य करके लोगों का ध्यान व्यर्थ की बातोंमें लगाए रखते हैं और स्त्रियों को चरित्र हीन करने में कोइ कसर नहीं छोडना चाहते ....जिनका परिणाम पोर्न-फिल्मों की बढोतरी में होता है |
२.फिल्मों व टीवी मैं व्यर्थ की वस्तुओं एवं नग्नता परक के विज्ञापनों की भरमार  जिनका परिणाम -- इनके हीरो-हीरोइनों को सेलीब्रिटी मानना और किशोर -किशोरियों द्वारा उन्हीं का अनुगमन करना होने लगता है ...
.मनोरंजन.... स्मार्ट फोन... ईमेल सर्च ...गूगल सर्फिंग ..दफ्तरों में कम्यूटर..टीवी आदि की सुविधाएँ ..आदि में अधिकाँश कर्मियों, छात्रों आदि का समय बर्वाद होता है . .....जो एक अलाभकारी कर्म है और कंपनियों...दफ्तरों ..जन-सुविधा की सेवाओं के कर्मचारियों की कार्य-क्षमता को बाधित करता है...एवं लडके-लडकियों, महिलाओं-पुरुषों को बेमतलब साथ-साथ रहने , मिलने जुलने एवं अधिक रात तक महिलाओं को बाहर रहने  की मज़बूरी व  अवसर प्रदान करता है|
४.स्कूली--कालिज छात्रों-बच्चों का सम्मान .... आजकल अपने व्यवसायी ध्येय हेतु जगह जगह मेधावी बच्चों का विविध मंचों -संस्थाओं द्वारा सम्मान का नाटक किया जाना एक प्रथा सी होगई है....सप्ताहों तक अखबारों में उनका नाम छापता रहता है .... पढना , अच्छे नंबर लाना व मेधावी होना बच्चों-छात्रों का सामान्य कर्तव्य है ..विशेष गुण नहीं ...अतः इस प्रकार सम्मान आदि उनको अहं की ओर लेजाते हैं और छात्र -असंतोष  व द्वंद्वों का कारण बनते हैं...
.खेल..... करोड़ों खर्च करके ..एक  तमगा हासिल कर लाना कहाँ की बुद्दिमानी है....तीरंदाजी, शूटिंग, गोलाफेंक, भारोत्तोलन आदि का वह भी महिलाओं द्वारा ..क्या अर्थ है ये सब पुरातन चीज़ें है आज के जमाने में किस काम आयेंगे .....इसे व्यर्थ के खेलों में समय ..धन बर्बाद करना निहायत मूर्खता है | महिलाओं-पुरुषों - नागरिकों को  अपने सामान्य कर्तव्यों से च्युत करने का साधन और ... भ्रष्टाचार ..अनाचार..अनैतिकता के मूल उत्पन्न करना है | हर बढे खेल के समय उस देश--नगर--स्थान में वैश्यावृत्ति व अन्य अनाचारों की बढोतरी होने लगती है |
               खेल बच्चे खेलते हैं ...बूढों का क्या खेलना, धंधा बन जाता है और फिर धंधे की अनाचारिता लागू होने लगती है |  कौन सा देश ऊपर उठाने में इनकी भूमिका होती है| खेल सिर्फ स्कूल-कालिज स्तर तक ही रहने चाहिए  ...बढे स्तर...ओलम्पिक..एशियन-गेम  आदि की कोइ आवश्यकता नहीं है...|
६. स्कूलों में अंग्रेज़ी माध्यम तथा विदेशी शिक्षा-पद्दतियों की नक़ल ...बच्चों को विदेश भेजना आदि से उनमें प्रारम्भ से ही देश के प्रति हीन भावना विक्सित होती है....
७.नेताओं..विधायकों ..सांसदों  को पारिश्रमिक व सुविधाएँ .......एक दम अनुचित हैं ...बंद होनी चाहिए ... यह देश- समाज सेवा है कोइ नौकरी नहीं .....यदि ये न हों तो देखते है कितने लोग नेता- मंत्री  बनने आते हैं और सरकारें गिराने बनाने का खेल कितना होता है...
८.धर्म की दुकानें .... हर एरा-गैरा ...जिसने  किसी भी ज्ञान का एक टुकड़ा सीख लिया वही सिखाने ..उपदेश देने बैठ जाता है ... एक संस्था खोल कर बैठ जाता है ...ये बंद होना चाहिए ....सरकार को एसी  संस्थाओं को कोइ लाभ..या छूट का प्रश्रय नहीं देना चाहिए ...अपितु टैक्स  लगा देना चाहिए ...सिर्फ व्यक्तिगत एवं विना मेम्बरशिप फीस के व्याख्यानों..प्रबचनों को ही होने देना चाहिए....सार्वजनिक पूजा स्थलों आदि का भी प्रतिवर्ष आकलन व वित्तीय जांच होनी चाहिए |  ईश्वर व धर्म व्यक्तिगत भावना है संस्थागत नहीं |
९-  स्त्रियों का हर पुरुषोचित कार्यों  में आगे बढ़ना... खेल....व्यबसाय...नौकरी...  पुरुषों के साथ दिन-रात  मेल-जोल.. देर रात तक घर से बाहर अकेले आना-जाना आदि   को प्रश्रय देता है और  अनाचार की  नयी-नयी  राहों को उत्पन्न करता है  समाज को  अनैतिकता की व व्यर्थ के कर्मों की राह पर धकेलता है | स्त्रियाँ सिर्फ स्त्रियोचित कार्यों एवं अपने स्वयं के कार्यों..व्यबसायों आदि को अपनाएं जहाँ वे स्वयं ही अपनी मालिक व बॉस हों |

बुधवार, 1 अगस्त 2012

संघात्मक समीक्षा पद्दति द्वारा पुस्तक समीक्षा ....पार्थो सेन...

                                        ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


संघात्मक समीक्षा पद्दति द्वारा पुस्तक समीक्षा ....पार्थो सेन...

                             (प्रचलित समीक्षा -पद्दति में  किसी पुस्तक या कहानी आदि की समीक्षा करने में केवल उस पुस्तक के विषय  वस्तु  की ही समीक्षा की जाती है परन्तु संघात्मक समीक्षा पद्दति द्वारा पुस्तक समीक्षा ....में पुस्तक की सम्पूर्ण समीक्षा की जाती है अर्थात विषय-वस्तु के साथ-साथ उसके लेखक/ कवि के बारे में, लेखक द्वारा आत्म-कथ्य , समर्पण व आभार , पुस्तक की छपाई, आवरण-पृष्ठ, उसपर चित्र , मूल्य, अन्य विद्वानों द्वारा लिखी गयीं भूमिकाओं के तथ्यांकन एवं प्रकाशक आदि  द्वारा दिए गए विवरण व कथ्य इत्यादि की भी सम्पूर्ण समीक्षा की जाती है | यह विधा  हिन्दी कविता में अगीत -विधा के संस्थापक  डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' द्वारा प्१९९५ से प्रचलित की गयी ...देखिये एक समीक्षा...)

समीक्ष्य कृति --- इन्द्रधनुष ( उपन्यास)....लेखक -डा श्याम गुप्त ....मूल्य ....७५/- रु.....पृष्ठ--१०४.
संपर्क-- सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ -२२६०१२ .
प्रकाशन वर्ष-- २०११. ई.... प्रकाशक.... सुषमा प्रकाशन , आशियाना, लखनऊ |
समीक्षक-- पार्थो सेन ..

                       डा श्याम गुप्त जी चिकित्सा जगत से सेवा-निवृत्त होने के पश्चात हिन्दी साहित्य जगत में पूर्णतया समर्पित हैं | मूलतः आप एक प्रसिद्ध कवि हैं एवं  अगीत विधा के  रचयिता हैं | उपन्यास क्रम में 'इन्द्रधनुष' आपका प्रथम प्रयास है | इसके पूर्व आप गीत व अगीत दोनों ही विधाओं में शूर्पणखा, सृष्टि, प्रेमकाव्य आदि  छ: काव्यों का सृजन कर चुके हैं | जो साहित्य जगत में सराहे गए | इस उपन्यास में इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह ही सात मुख्य बिंदु --स्त्री, पुरुष, अलौकिक-प्रेम, कविता, वेद-वेदान्त, चिकित्सा जगत व सामाजिक परिदृश्य हैं | अतः शीर्षक सार्थक है |
                        लेखक स्वयं एक शल्य-चिकित्सक भी है |अतः उपन्यास का प्रारम्भ मैडीकल कालेज के वातावरण से होता है | वे स्वयं एक कवि भी हैं तो यत्र-तत्र संवादों में कविता का का समावेश है | संवादों में चिकित्सा संबंधी चर्चाओं  के अतिरिक्त कई मूल्यवान परिचर्चाएं हैं | जैसे एक स्थान पर पात्र जयंत कृष्णा कहता है...
                  "...सदियों से भारत में दो प्रतिकूल विचार धाराएं चली आ रही हैं | 
                  एक ब्राह्मण वादी व  दूसरी   ब्राह्मण विरोधी , जो अम्बेडकरवादी  विचार धारा  है  |"
इसी चर्चा में भाग लेती हुई एक अन्य पात्र सुमि  कहती है....
                  " वास्तव में वे धाराएं देव-संस्कृति व असुर संस्कृतियाँ हैं | क्योंकि न तो राम ब्राह्मण                                     थे   न कृष्ण   ही जबकि रावण ब्राहमण था परन्तु ब्राह्मण-विरोधी |"

                          पूरा उपन्यास मैडीकल कालेज के छात्र कृष्ण गोपाल ...केजी  तथा  सुमित्रा ...सुमि ..के मध्य संवादों  पर आधारित है जिसका कुछ अंश अतीत है | दोनों सहपाठी हैं | एक आकर्षण दोनों के मध्य उत्पन्न होता है यद्यपि नायिका पहले से ही वाग्दत्ता है | दोनों का  पृथक-पृथक विवाह होता है और सफल भी  है | यद्यपि वे अलग अलग होजाते हैं व रहते हैं परन्तु एक आत्मिक  जुड़ाव व बौद्धिक-आत्मिक प्रेम सम्बन्ध जो सुमि  व केजी के मध्य था, सदा बना रहता है जो एक चर्चा में कवितामय संवाद  से परिलक्षित होता है... केजी का कहना है...
            "प्रियतम प्रिय का मिलना जीवन,
             साँसों का चलना है जीवन|
             मिलना और बिछुडना जीवन,
             जीवन हार भी जीत भी जीवन |"               
                                         सुमि  का कथन देखिये..... 
             प्यार है शाश्वत कब मारता है,
             रोम रोम में रहता है |
            अजर अमर है वह अविनाशी,
            मन में रच बस रहता है |"
                             उपन्यास का अंत दुखांत है | सुमि  की मौत एक हवाई दुर्घटना में हो जाती है , पाठक यहीं मर्माहत हो जाता है |  उपन्यास में शिक्षित वर्ग का परिवेश है, पात्र, संवाद तथा वातावरण उसी के अनुरूप है | यौन सम्बन्ध रहित अलौकिक प्रेम की महत्ता इस उपन्यास का सन्देश है |
                            भाषा मूलतः परिमार्जित हिन्दी है | आवश्यकतानुसार अन्य भाषाओं के शब्दों का समावेश है | शैली प्रभावशाली व संवाद सारगर्भित हैं |
                            कृति मनुष्य के आचार-विचार व समाज को शिक्षा देने वाली नारियों को समर्पित है |प्रोफ. बी . बै. ललिताम्बा ( बेंगलूरू ) , भू.पू अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, इंदौर वि.वि (म.प्र.)  व  कवि श्री मधुकर अष्ठाना ने अपना आशीर्वाद  इस पुस्तक को प्रदान किया है | लेखक ने अशरीरी प्रेम को महत्त्व देते हुए उपन्यास का सृजन किया है जैसा कि उपन्यास में उल्लेख है|
                           आवरण पर एक सुन्दर लेखक द्वारा ही स्वनिर्मित हस्त-चित्र है |  मूल्य सर्वथा उचित है | एक डाक्टर मनुष्य जीवन को बहुत करीब से देखता है अतः उसका अलग ही अनुभव है |इस कृति को एक प्रेरणादायी प्रसंग मानना अधिक उचित प्रतीत होता है | डा श्याम गुप्त जी की सारी कृतियाँ शालीनता लिए होती हैं | आज के शारीरिक संबंध पर आधारित प्रेम के युग में इस उपन्यास का स्वागत अवश्य होना चाहिए | हार्दिक बधाई , मैं अपने एक अगीत से यह समीक्षा पूरी करता हूँ--
           "निहारूंगा मैं तुझे अपलक
            जैसे एक अबोध तकता है
            इन्द्रधनुष  एक टक |"                          
                                                         ----- .समीक्षक .... पार्थोसेन ...