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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

सोमवार, 26 नवंबर 2012

विज्ञान कथा – भुज्यु-राज की सागर में डूबने से रक्षा ... डा श्याम गुप्त .

                                       ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


  .                     ( अश्विनीकुमार बंधुओं का एक  और सफल आपात-चिकित्सकीय अभियान )
 
                  श्रीकांत जी घूमते हुए महेश जी के घर पहुंचे तो वे लिखने में व्यस्त थे | क्या होरहा है महेश जी ? श्रीकांत जी ने पूछा तो महेश जी ने बताया, ‘ एक कथा लिखी है, लो पढ़ो’, महेश जी ने श्रीमती जी को- ‘अरे भई, चाय बनाइये, श्रीकांत जी आये हैं’- आवाज लगाते हुए कहा | श्रीकांत जी पढने लगे | 
                   विश्व-शासन व्यवस्था के अधिपति श्री मन्नारायण की केन्द्रीय राजधानी के “क्षीर-सागर” स्थित महा-मुख्यालय से स्वर्गाधिपति इंद्र के माध्यम से विश्व-चिकित्सा महामुख्यालय के प्रभारी अश्विनी-बंधुओं को आकाशवाणी द्वारा एक आपातकालीन सन्देश प्राप्त हुआ कि श्रीमन्नारायण के सुदूर-उत्तरवर्ती महासागर स्थित मित्र-देश “नार-वेश” के भुज्यु-राज को सागर में डूबने से बचाना है | अश्विनी-बंधु अपने तीब्रगति से आकाशगामी त्रिकोणीय रथ द्वारा तुरंत घटनास्थल के लिए रवाना हो गए |
                   भुज्यु-राज पृथ्वी के सुदूर उत्तरवर्ती महासागर स्थित तटीय राज्य ‘नारवेश’ के तटीय अन्न-उत्पादक क्षेत्रों एवं सागरीय भोज्य-पदार्थों के उत्पादक एवं विश्व की खाद्य-पदार्थ सामग्री आपूर्ति की एक प्रमुख श्रृंखला थे | तीब्रगति से अकाश-गमनीय त्रिकोण-रथ वाले भ्राता-द्वय, वैद्यराज अश्विनीकुमार ही सर्व-शस्त्र-शास्त्र संपन्न, सचल-चिकित्सावाहन के एकमात्र नियामक, संचालक व विशेषज्ञ थे | देव, असुर, दानव, मानव सभी के द्वारा स्वास्थ्य, चिकित्सा व आपातकालीन उपायों हेतु उन्हीं से अभ्यर्थना की जाती थी| वे विश्व भर में अपने सफल चिकित्सकीय व आपातकालीन अभियानों के लिए प्रसिद्द थे |
                    अपने रथ पर गमन करते हुए अश्विनी-कुमारों ने ज्ञात कर लिया कि भुज्यु-राज का भोज्य-सामग्री वितरक एक वाणिज्यिक जलयान हिम-सागर के मध्य किसी हिम-शैल से टकराकर क्षतिग्रस्त हुआ है और डूबने जारहा है | वे जिस समय ‘नार-वेश’ पहुंचे वहाँ रात्रि थी | प्रातः के नाम पर सूर्यदेव सिर्फ कुछ समय के लिए दर्शन देकर अस्ताचल को चले जाया करते थे |  वे पहले भी एक बार इस प्रदेश में एक सफल अभियान कर चुके थे, जब देव-गुरु बृहस्पति की गायों को असुरों ने अपहरण करके इस अंधकारमय प्रदेश की गुफाओं में छुपा दिया था | उन्होंने बृहस्पति, सरमा व देवराज इंद्र के साथ सफल अभियान में गौओं को पुनः खोजकर मुक्त कराया था | यद्यपि उस समय उन्हें लंबी रात के समाप्त होने की प्रतीक्षा करनी पडी थी और दिन होने पर ही गायों की खोज हो सकी थी | परन्तु यह आपात-स्थिति थी अतः दिन होने की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती थी |
                       अश्विनी-बंधुओं ने तुरंत ही यान में स्थित सामान्य सूर्य व चन्द्रमा के ‘प्रकाश-सकेन्द्रण व एकत्रण’ यंत्रों के सहायता से दुर्घटना-स्थल का स्थान खोजना का प्रयत्न किया परन्तु सुनिश्चित स्थल का निर्धारण नहीं हो पारहा था | अतः उन्होंने तुरंत ही अपने विशिष्ट सूर्यदेव व चंद्रदेव के स्तुति-मन्त्रों द्वारा तीब्र प्रकाश उत्पन्न करने के यंत्रों का आवाहन किया | उनके अवतरित होते ही संचालन कुशलता से समस्त क्षेत्र की खोज की गयी| नार-वेश के तटीय समुद्र से और सुदूरवर्ती उत्तरी सागर-भाग में उन्हें भुज्यु-राज का डूबता हुआ जलयान दिखाई दिया, जो एक बहुत बड़े हिम-शैल  से टकराकर उसकी ओर झुकता हुआ धीरे-धीरे डूब रहा था |  त्वरित कार्यवाही करते हुए यान से स्वचालित रज्जु-मार्ग को लटकाते हुए भुज्यु-राज एवं उनके समस्त साथियों को बचाकर त्रिकोणीय--आकाश-रथ पर चढाया गया जो आवश्यकतानुसार छोटा व विस्तारित किया जा सकता था एवं चिकित्सकीय व जीवनोपयोगी सर्व-साधन संपन्न था |
                         शीत-लहरों के थपेडों व मौसम से आक्रान्त व भयाक्रांत भुज्यु-दल को उचित सर्वांग- चिकित्सा सहायता से जीवनदान व स्वास्थ्य प्रदान किया गया एवं उन्हें उनके आवास पर पहुंचाया गया |                            
                        इस प्रकार अश्विनी-बंधुओं का एक और कठिन, साहसिक, चिकित्सकीय आपात-सेवा अभियान संपन्न हुआ| विश्व शासन व्यवस्था के महालेखाकार ‘व्यास’ द्वारा इस अभियान का पूर्ण-विवरण विश्व-शासन के शास्त्रीय अभिलेखों के संचयन-कोष ‘वेदों’ के स्मृति-खंड में लिखकर संचित व संरक्षित किया गया |
                    ‘ये क्या कपोल-कल्पित गप्प लिख मारी है|’  श्रीकांत जी बोले, ’कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा जोड़-जाड कर |’
                    ‘हाँ यार ! कहानी है तो गल्प तो होगी ही | और गल्प में इधर-उधर से जोड़-तोड़ कर ही लिखा जाता है|’, महेश जी हंसकर बोले, ’परन्तु जो कुछ इधर-उधर से जोड़ा जाता है वह उसमें तथ्य होगा तभी तो वह इधर-उधर भ्रमण कर रहा होगा | कहीं से लेखक की पकड़ में आया और उस पर कथा का भवन खडा हुआ |’
                 ‘ तो क्या इसमें कुछ तथ्य भी है ?’, श्रीकांत जी ने आश्चर्य से पूछा |
                  ‘कुछ तो है, सोचो |’ महेश जी ने कहा |
                 ‘यार ! जैसा स्थान-समय, दिन-रात आदि का वर्णन है इससे तो...’ वे सोचते हुए बोले, ‘जितना मैं जानता हूँ उत्तरी-ध्रुवीय प्रदेशों ...नार्वे आदि से मिलता जुलता है, और कुछ तो मेरी समझ से बाहर है |’
                 ‘सही पहुंचे | शेष तो पहचान सकते ही हो कि वैदिक -पौराणिक नामों, स्थानों का काल्पनिक सामंजस्य ही है |’ महेश जी ने बताया |
                ‘क्या बात है ! तुम कवि-लेखक लोग भी खूब हो | कहाँ-कहाँ से दूर की कौड़ी समेट लाते हो |’ श्रीकांत जी चाय पीते हुए कहने लगे |     

रविवार, 25 नवंबर 2012

श्याम स्मृति ...कृष्ण की आवश्यकता है. -

                                   ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...






कृष्ण की आवश्यकता है. ----         
                           कृष्ण---- जो नेतृत्व को मोहमुक्त कराकर उसे स्वधर्म का भान कराये, उसके अंतर्मन मैं इच्छा व संकल्प शक्ति को जगाये और कहे-- नपुंसक मत बन पार्थ, दुर्वलता त्याग, उठ खडा हो, युद्ध कर।

                 
                        "उत्तिष्ठ कौन्तेय ......"
 


मंगलवार, 20 नवंबर 2012

नेति...नेति....... तर्क, बहस, टिप्पणी-धर्म, सोदाहरण-तात्विक विवेचना ....अथवा जो हम कहें ....

                             ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 
                    साहित्य में ---शब्दों व अर्थों एवं उनके तात्विक भावों एवं निहितार्थों की अनदेखी  एवं हमने जो लिख दिया वही ठीक है ....के कारण काफी अर्थ-अनर्थ होते रहते हैं.... प्रायः मूल साहित्य जगत की  भाँति ब्लॉग जगत में भी साहित्यिक  ठेकेदारी  गुटवाजी , जो हम कहें वही ठीक है की भावना चल रही है....तथाकथित साहित्यिक ठेकेदार बने लोग अपनी अपनी कहन, बचन को ही सत्य मानने में लगे हैं  कोई तर्क व बहस की आवश्यकता नहीं , आलोचना नहीं चाहिए  आपकी टिप्पणियों की आपकी भी आवश्यकता नहीं है,  हटा दी जायेंगीं,    .........अन्यथा....उनका कथन होता है कि ...
प्रकाशित सामग्री पर प्रतिक्रिया लगभग बंद कर दी है अब रचना भेजने पर भी सोचना होगा ।
तर्क से  भी क्यों  डरे हैं लोग |
बस हमीं है  क्यों  करे हैं लोग |

प्रश्न  निम्नांकित दो दोहों पर विवेचना का  है .....

तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
 आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस..

किसिम-किसिम उद्गार हैं, संयत भाषा रूप
पद प्रस्तुति अद्भुत छटा, अहा, भाव अपरूप !



                                                                         वर्तिका

Dr. shyam gupta said...
और एक जानकारी ----
तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस

---क्या बाती और वर्तिका ...समानार्थक हैं या भिन्न भिन्न ....मेरे विचार से समानार्थक हैं...अतः पिष्ट-पेषण दोष है...

उत्तर में कहा गया --- At 6:19pm on November 17, 2012,

तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस..

यहाँ पिष्टपेषण दोष नहीं है। पिष्टपेषण - पुल्लिंग, पिसे हुए को पीसना, एक ही कार्य को बार-बार करना, निरर्थक श्रम करना। - उक्त, पृष्ठ 690.
यथा: दृश्य मनोरम मंजुल सुन्दर अथवा सुध न रही, बेहोश थे, कर न रहे थे बात।
उक्त दोहे में बाती के घटने-बढ़ने और श्वास के तेज-मंद होने तथा आत्मा और वर्तिका के ऊपर उठने को इंगित किया गया है।

दोष तो अन्य प्रविष्टियों में अनेक हैं किन्तु हमारा लक्ष्य छिद्रान्वेषण अथवा परदोष दर्शन नहीं होना चाहिए। (???)   रचनाकार को गलत कहने के स्थान पर शालीनतापूर्वक उसका मत पूछा जाना चाहिए। एक ओर तो भाषा या छन्द के नियमों की बात करने पर पिछले आयोजन में रचनाकार के स्वातंत्र्य और यथावत प्रस्तुतीकरण की दुहाई दी गयी दूसरी ओर अब जहाँ त्रुटि न हो वहाँ भी त्रुटि दिखाने और फिर उस को सही कहने की हठधर्मी... मैंने इसीलिये इस मंच में प्रकाशित सामग्री पर प्रतिक्रिया लगभग बंद कर दी है। अब रचना भेजने पर भी सोचना होगा।
       अर्थात हमारी ही मान लें अन्यथा हम नहीं मानेंगे, आप कहते रहिये , तर्क व उदाहरण भी नहीं मानेंगे .....

अब आप देखें ... जानें .....

वर्ण-वर्तिका     स्त्री० [ष० त०] १. चित्रकला में अलग-अलग तरह के रंगों से बनी हुई बत्ती या पेसिल की तरह का एक प्राचीन उपकरण। २. पेंसिल। ३. तूलिका।

वर्तिका     स्त्री० [अ०वर्तिक+टाप्] १. बत्ती। २. बटेर पक्षी। ३. मेढ़ासिंगी। ३. सलाई। ४. पेंसिल की तरह का एक उपकरण जो रेखाचित्र बनाने के काम आता था।
          --भारतीय साहित्य संग्रह
   
हिन्दी - हिन्दी शब्दकोश से हिन्दी शब्द "वर्तिका" के लिए हिन्दी अर्थ
  सलाई,   पेंसिल की तरह का एक उपकरण जो रेखाचित्र बनाने के काम आता था।
   "वर्तिका" के लिये पर्यायवाची शब्द
      बीडी - सिगरेट,   दीपक बाती,  सलेट पैंसिल,  बत्ती,  तूलिका,  बटेर
  
                                                                  
                                                                     अपरूप
डा श्याम गुप्त  ने कहा....
किसिम-किसिम उद्गार हैं, संयत भाषा रूप
पद प्रस्तुति अद्भुत छटा, अहा, भाव अपरूप !

---ये भाव अपरूप ! का यहाँ क्या अर्थ निकलता है मेरे विचार में तो अपरूप = सभी दोहों के रूप भाव में त्रुटि है ....एसा भाव लगता है ....जैसे अप-संस्कृति...अप-भाव

Sun Nov 11, 02:09:00 PM 2012
उत्तर में ...कहा गया ...

             आदरणीय डॉ. श्याम गुप्तजी, मैं मूलतः विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ. इस संज्ञा को मैं अपनी धमनियों में आज भी जीवित, प्रवाहित महसूस करता हूँ. आप भी सनदानुकूल चिकित्सक हैं. इस आलोक में ’अपरूप’ को पुनः देखें का मेरा सादर आग्रह है.
’वि’ का ही उपसर्ग लें. यह ’विशिष्टि’ या ’प्रकृष्टि’ का धारक तो होता ही है, ’शून्य’ या ’न होने’ का भी. हम यदि किसी एक ही मंतव्य का परावर्तन देखने का हठ कर लें तो उलझ नहीं जायेंगे, आदरणीय ?
Mon Nov 12, 03:22:00 PM 2012

डा. श्याम गुप्त said...
--तो विरूप में ...वि उपसर्ग= बिना होगा या विशिष्ट ...जैसे विकृति .....क्या विशिष्ट को अपशिष्ट या विशेष को अपशेष कहाजा सकता है ...

-- भाई ..विज्ञान में भी भाषा साहित्य से ही तो आती है...
---विज्ञान में ..वह अपर-रूप = अन्य रूप ( तत्वों आदि  के) .. होता है.....
---- जब शब्दों के अर्थ-भावों को ठीक प्रकार से जाना नहीं जाता तभी भाव-सम्प्रेषण की उलझन होती है ...उलझन को सुलझाना ही तो विज्ञान है....
Tue Nov 13, 12:47:00 PM 2012

             

डा. श्याम गुप्त said...  जैसे ....

वि - without, apart, away, opposite, intensive, different

अप-(खालीं ) अपकर्ष, अपमान;
अप-(विरुद्ध ) अपकार, अपजय.

वि-(विशेष) विख्यात, विनंती, विवाद
वि-(अभाव) विफल, विसंगति
Tue Nov 13, 12:56:00 PM 2012


निश्चयात्मक मत दिया गया .....................
वन्दे मातरम।
आपके चाहे अनुसार दो बिन्दुओं पर कुछ जानकारी प्रस्तुत है।
1.
किसिम-किसिम उद्गार हैं, संयत भाषा रूप
पद प्रस्तुति अद्भुत छटा, अहा, भाव अपरूप !

अपरूप- स्त्रीलिंग, (एलोट्रोपी अंगरेजी) जब एक ही तत्व के दो या अधिक रूप इस प्रका रपये जाते हैं की उनके भौतिक गुण भिन्न हों किन्तु रासायनिक गुणों में कोइ अंतर न हो तब वे एक दूसरे के अपरूप कहलाते हैं तथा इस विशेषता को अपरूपता कहते हैं। जैसे कार्बन तत्व के अपरूप हैं लकड़ी का कोयला (चारकोल) तथा हीरा। इनके भौतिक गुणों में अत्यधिक अंतर है किन्तु दोनों ही वायु में प्रज्वलन के उपरांत कार्बन डाई ओक्साइड का निर्माण करते हैं।
- बृहत् हिंदी कोष, संपादक लिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दी लाला श्रीवास्तव, प्रकाशक ज्ञानमंडल वाराणसी, पृष्ठ 63.

 उक्त के प्रकाश में आपके द्वारा किया गया प्रयोग मुझे बिलकुल सही प्रतीत हुआ है।

२-तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस..

          यहाँ पिष्टपेषण दोष नहीं है। पिष्टपेषण - पुल्लिंग, पिसे हुए को पीसना, एक ही कार्य को बार-बार करना, निरर्थक श्रम करना। - उक्त, पृष्ठ 690.
यथा: दृश्य मनोरम मंजुल सुन्दर अथवा सुध न रही, बेहोश थे, कर न रहे थे बात।
उक्त दोहे में बाती के घटने-बढ़ने और श्वास के तेज-मंद होने तथा आत्मा और वर्तिका के ऊपर उठने को इंगित किया गया है।

दोष तो अन्य प्रविष्टियों में अनेक हैं किन्तु हमारा लक्ष्य छिद्रान्वेषण अथवा परदोष दर्शन नहीं होना चाहिए। रचनाकार को गलत कहने के स्थान पर शालीनतापूर्वक उसका मत पूछा जाना चाहिए। एक ओर तो भाषा या छन्द के नियमों की बात करने पर पिछले आयोजन में रचनाकार के स्वातंत्र्य और यथावत प्रस्तुतीकरण की दुहाई दी गयी दूसरी ओर अब जहाँ त्रुटि न हो वहाँ भी त्रुटि दिखाने और फिर उस को सही कहने की हठधर्मी...                  मैंने इसीलिये इस मंच में प्रकाशित सामग्री पर प्रतिक्रिया लगभग बंद कर दी है। अब रचना भेजने पर भी सोचना होगा।

-

                 At 6:47pm on November 17, 2012,
 
आदरणीय आचार्यवर, आपके सहर्ष और उदार (???) अनुमोदन पर हृदय से धन्यवाद.
आपने ’अपरूप’ की वैज्ञानिक परिभाषा उद्धृत कर मेरे कहे को स्वर और मेरी टिप्पणी-रचना को मान दिया है. इसी तथ्य को में संकेतों में कह चुका था. किन्तु, इशारे तो किन्हीं और के लिये मान्य हुआ करते हैं.
-------( साहित्यिक परिभाषा का क्या ?)

------अब आप देखिये.......

__________________________------___________________________
अपररूपता - भारतकोश, ज्ञान का हिन्दी महासागर
hi.bharatdiscovery.org/india/अपररूपता
(अंग्रेज़ी:Allotropy) जब एक ही तत्त्व भिन्न-भिन्न रूपों में पाया जाता है तो ये रूप उस तत्त्व के अपररूप कहलाते हैं तथा इस गुण को अपररूपता कहते हैं। हीरा व ग्रेफाइट कार्बन के दो अपररूप हैं। अपररूपों के भौतिक व रासायनिक गुण एक दूसरे से भिन्न होते हैं ...

भास्वर - Encyklopedia
hi.efactory.pl/भास्वर
 अपररूप. भास्वर के कोई 5 अपररूप हैं -. श्वेत या पीला भास्वर; लाल भास्वर; सिंदूरी भास्वर; काला भास्वर; बैंगनी भास्वर. श्वेत भास्वर मोम जैसा मुलायम रवेदार पदार्थ होता है । इसमें लहसुन जैसी गंध होती है तथा प्रकाश में छोड़ देने पर यह ...


Largest Hindi to Hindi Dictionary - Current Hindi Word: अपररूप
pustak.org/home.php?mean=4842

     शब्द का अर्थ खोजें. अपररूप, पुं० [कर्म० स०] [भाव० अपर-रूपता] रसायन शास्त्र में किसी तत्त्व का कोई ऐसा दूसरा रूप जो कुछ दूसरे विशिष्ट गुणों से युक्त हो या कुछ भिन्न प्रकार का हो। (एल्लोट्रोप) जैसे—कार्बन नामक तत्त्व काजल, कोयले, सीसे और हीरे ...

_____________________________________________________________________________________________
         

  और .................
                    अपरूप" के लिए हिंदी-अंग्रेज़ी अनुवाद

अपरूप {विशेषण}
अपरूप [aparoop] {पु./स्त्री. वि.} (और: लहरी, सनकी, झक्की, तरङ्गी)
fantastic {वि.}
समानार्थक शब्द
अपरित्याज्य · अपरिपक्व · अपरिमित · अपरिवर्तनशील · अपरिवर्तनीय · अपरिहार्य · अपरिहास · अपरिहासशील · अपरिहासी · अपरीक्षित · अपरूप · अपर्याप्त · अपर्याप्तता · अपवर्त्य · अपवाद · अपवादक · अपविघ्नता · अपवित्र · अपवित्रता · अपवित्रीकरण · अपव्ययी


                


Largest Hindi to Hindi Dictionary - Current Hindi Word: अपरूप

 शब्द का अर्थ खोजें     
अपरूप    वि० [सं ब० स०] १. बुरे रूपवाला। कुरूप। बदशकल। २. भद्दा। वि० [सं० आत्म-रूप] परम सुंदर। (बँगला से गृहीत) उदा०—मनु निरखने लगे ज्यों ज्यों कामिनी का रूप, वह अनंत प्रगाढ़ छाया फैलती अपरूप—प्रसाद।            
Google Maps सहयत
www.google.co.in/intl/hi/help/terms_maps.html
         अन्य लोगों के कानूनी अधिकारों की हानि, दुर्व्यवहार, उत्पीड़न, अनुसरण या अन्यथा उल्लंघन (जैसे गोपनीयता और प्रचार के अधिकार);; किसी अनुपयुक्त, निंदात्मक, अतिक्रामक, अपरूप, या ग़ैर-कानूनी सामग्री को अपलोड, पोस्ट, ई-मेल या प्रेषित करना या ...
 
अपरूपित - ArvindLexicon
lexicon.arvindlexicon.com/.../ArvindLexiconHTML....

          विद्रूपक - disfigurer - vidrUpaka ​. अपरूप करना ​. तोड़ना मरोड़ना - distort - tod.anA marod.anA ​. अपरूपता ​. कुरूपता - ugliness - kurUpatA ​ · फूहड़पन - sloppiness - phUhad.apana ​ · भँडैती - bhandaitee - bhanDaetI ​. अपरूपित ​. विद्रूपित - disfigured - vidrUpita ​. Hindi. विद्रूपित ​वि ​ ...
-------sea monster  समुद्री अपरूप प्राणी, समुद्री दानव...

    
Vidyapati - Google पुस्‍तकें परिणाम
books.google.co.in/books?id=0eWvGQAn7NwC

               इसीलिए उन्होंने प्राय: 'अपरूप' या सौंदर्य की अब की एक सजीव पदार्थ के रूप में ग्रहण किया है । जब वे राधा या कृष्ण के रूप का वर्णन करने लगते हैं तो सचेष्ट रूप से इतना कहना नहीं भूला कि इस 'अपस ने सम्पूर्ण त्रिभुवन को विजित कर लिया है, यह अपरूप ...

बोली, बानी और भाषा की बात हो तो स्वभाविक है कि मैथिली की चर्चा होगी. हाल ही में
दिल्ली में संपन्न हुए भारतीय भाषा उत्सव, समन्वय की मूल अवधारणा इसी के
इर्द-गिर्द थी. एक सत्र ‘प्रेम की अपरूप भाषा: भाषा का अपरूप प्रेम’ के ऊपर था.
अपरूप शब्द विद्यापति की कविताओं में बार-बार आता है
‘रसप्रिय
  ’ में फणीश्वरनाथ रेणु
भी चरवाहे मोहना को देख कर अपरूप रूप की बात करते हैं.
...
कहे माधव, “यह अपरूप भाषा,
·नदिया में नित्य ऐसे विलासा ।“

bhardwaj'sblog: अकेलापन न देना
bhardwajsblog.blogspot.com/2010/.../blog-post_22.h...

             22 अक्तू 2010 – पर अकेलापन न देना आग सा जलता रहेगा प्रिय बिना यौवन न देना भीख माँगे मृत्यु से जो वह विवश जीवन न देना एक पत्थर के ह्रदय में प्यार की धड़कन न देना रूप को अपरूप कर दे धुंध में दर्पण न देना माँग में सिन्दूर के बिन चूड़ियाँ कंगन न देना ...
 

रस अजस्र - Jagran Yahoo! India
in.jagran.yahoo.com/news/.../8_14_8364208.html

16 अक्तू 2010 – वेणुनाद-संकेत समझती अपने अपार 'अपरूप' सौंदर्य का भार( यह सौन्दर्य भार है क्योंकि वह अपरूप है सामान्य से बहुत अधिक ...मानव मन---स्वयं व अन्य -- को विकृत कारी भाव का हेतु  है ) लिये कृष्ण समीप राधिका का आगमन। मैथिल कोकिल की इस कल्पना में वय:संधि को पार करती राधा सद्य:स्नाता रूप में कृष्ण के साथ आ खड़ी होती है और तभी पदावली का सृजन होता है।



 अन्य उदाहरण ---साहित्यिक---

...Innerself..अंतस..—blog

Gaurav
India
    
तो अनादि अनंत,
अपने अपररूप,
लेखनी से कहता है.....
..

देख मैं तू बन कर,
खुद को रच रहा हूँ........     == अन्य रूप = अपर रूप

शाश्वत शिल्प
हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित verma mahendra55@gmail.com

नवगीत
पल-पल छिन-छिन बीत रहा है,
जीवन से कुछ रीत रहा है।

                    सहमे-सहमे से सपने हैं,
                    आशा के अपरूप,                    ----- अर्थात विपरीत अर्थात्मक
                    वक्र क्षितिज से सूरज झाँके,
                    धुँधली-धुँधली धूप।

तरस न खाओ मेरे हाल पर,
मेरा भव्य अतीत रहा है।
पल-पल छिन-छिन बीत रहा है,
जीवन से कुछ रीत रहा है।
        कामायनी -----
मनु निखरने लगे
ज्यों-ज्यों यामिनी का रूप,
वह अनंत प्रगाढ
--छाया फैलती अपरूप,  -------  छाया विचित्र रूप में फैलती हुई...

 

---शिव बारात -----
सब विरूपित ,विकृत सब आधे अधूरे ,
चल दिए पाकर कृपा का हाथ ,
अंध कोढी विकल-अंग विवस्त्र विचलित वेश
कुछ निरे कंकाल कुछ अपरूप
विकृत और विचित्र देही विविध रूप अशेष

अंग-हत कंकाल ज्यों हों भूत -प्रेत-पिशाच !
नाचते आनंद स्वर भर भर गान परम विचित्र,
बन बराती चल दिए संग .
*
चतुर्वेदी इतिहास 10 - ब्रज डिस्कवरी
hi.brajdiscovery.org/index.php?title=चतुर्वेदी..
.
5 जुलाई 2010 – ... (यूनानी अरवी विलोची) यवन और पल्लव (पहलवियों) का निर्मूल करना चाहा तब महाकृपालु वशिष्ठ ने इन्हें केवल अपरूप बनाकर शिखा हीन दाढी युक्त करके क्षमा कर दिया, तभी से वे वशिष्ठ मुनि के शिष्य हो गये और विश्वमित्र के वशिष्ठ आश्रम ...
 
Samresh Basu - Google पुस्‍तकें परिणाम
books.google.co.in/books?isbn=8180311376
Samaresh Basu - 2007

लेकिन हीरेन ने उसमें पंखारपन नहीं देखना चाहा है यह तो रूप नहीं अपरूप है । यह तो बीभत्स और भयानक है । तभी वह नौजवान झाड़-शर पता नहीं कहाँ से आ गया है उसने खामोशी को तोड़ते हुए कहा, "बाबू जी, आप लम कीजिए, मैं रसिया से शादी करूँगा ।'' शादी ।


दिनकर -----

कौंतेय भूमि पर खड़े मात्र हैं तन से ,
हैं चढ़े हुये अपरूप लोक में मन से ।
वह लोक , जहां विद्वेष पिघल जाता है

कर्कश , कठोर कालायस गल जाता है ;--dinkar


यह अपरिमित रूप-श्री ,बुझती नहीं मेरी पिपासा ,
हृदय लोभी ,देख यह सुषमा ,रहा जाता ठगा सा !
झलमलाती ऊर्मियाँ या स्वयं विधि की चित्र रेखा ,
किस नयन ने आज तक भी रूप वह अपरूप देखा !

* प्रेम-3
प्रेम के डेरे नही होते,
प्रेम
प्रायः अपरिभाषित,अनिर्वाचित
और अननुभूत रह जाता है
क्यूँकि प्रेम अपरूप होता है!

       
झरोख़ा: नीति ,नीयत और नियति
nivedita-myspace.blogspot.com/.../blog-post_16.html

        16 जून 2012 – ... थोड़ी गति पकड़ता है ,हमारी नीयत बदलने लगती है | हम चाहने लगते हैं कि सबसे सुंदर पौधे ,हमारे घर की तरफ लगें ,बेशक उससे पार्क का प्रारूप ही अपरूप लगने लगे | अब हमारी इस नीयत से पार्क के सौन्दर्यीकरण की नियति तो प्रभावित होनी ही है !
 
GHAZAL - 14
Posted by Abhay Kant Jha Deepraaj on December 18, 2010 at 2:00am
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                               ग़ज़ल

बहुत  विषैला  है  विष  यारो,  दुनिया   की  सच्चाई  का |
आखिर,   कैसे  दर्द  सहें  हम,  दिल  में  फटी बिवाई का ||

बनकर  इन्सां  जीते - जीते  खुद  को  हमने  लुटा  दिया,
फिर  भी  तमगा मिला न हमको एक अदद अच्छाई का ||

वे  रिश्ते  जो  कल तक हमको, अपना सब कुछ कहते थे,
आज  वही  हमको  कहते  हैं -  एक  अपरूप  बुराई   का ||
 
कहानी  थैंक यू अंकल
raviwar.com/.../89_story-thankyou-satishjayaswal.sht...

1 अक्तू 2008 – और वही समझ पाया कि कोई क दुर्घटना जीवन को इतना अपरूप नहीं कर सकती जितना कि मदालसा भयभीत हो उठी. मदालसा ने बेटे को मामा के पास से उठाया. और अपनी छाती के साथ लगाकर खूब दुलराया. ऐसा लगा जैसे कई सदियों से दूर रहा, उससे उसका ...



अर्थात मेरे  विचार से  ---मूलतः यह निष्कर्ष  निकलकर आता है------

.बाती  एवं वर्तिका ...समानार्थक हैं .....कहीं-कहीं   साहित्य में वर्तिका शिखाग्र  या दीप-शिखा, ज्योति   के लिए भी प्रयोग होता है ...परन्तु यह उचित नहीं कहा जा सकता ....


२- अपरूप --का निश्चित ही अर्थ विकृत रूप ही है .......
   (अ )---- सभी साहित्यिक उदाहरणों में  इसका अर्थ विकृत रूप ही स्पष्ट होता है |
    (ब)------मैथिली , मराठी आदि भाषाओं में ...अपरूप को विचित्र के तात्पर्य के साथ ...असामान्य के सहितार्थ लेते हुए अपार सौन्दर्य , सौन्दर्य से परे ( जो सौन्दर्य की मूल प्रकृति से विलग, सामान्य से अलग ...स-विकार  --उच्चतम वि-कृत ) परम सुंदर (बँगला से ), अपूर्व , अपरिभाषित, कल्पना से परे  सौन्दर्य, अवर्णनीय, अनिर्वचनीय, मानवीय से परे   ...हेतु प्रयोग किया गया है ......मूलतः विद्यापति दारा (.हो सकता है उन भाषाओं में यही शब्द होता हो परन्तुमेरे विचार से  हिन्दी में एसा नहीं ,यदि कहीं  प्रयोग है  तो सही नहीं है ).......परन्तु निश्चय ही विद्यापति द्वारा  वह सिर्फ राधा  या कृष्ण या राधा-कृष्ण के ईश्वरीय , मानवीय सौन्दर्य से परे सौन्दर्य के लिए प्रयोग किया गया है ...किया जा सकता है ... अर्थात सौन्दर्य से  परे, अपरिभाषित  जो आदि-शक्ति...अनादि-माया का , ईश्वरी का ही हो सकता है मानवीय सौन्दर्य नहीं .....  इसे साधारण मानवीय कथ्यों में प्रयोग नहीं  होना चाहिए ....


३-विज्ञान में .... यह अपर रूप है ..अपरूप नहीं ..... कहीं कहीं जैसा उदाहरण दिया गया है, कुछ ग्रंथों में  हीरा, कार्बन आदि के अपरूप कहा गया है .....जो मूलतः विज्ञान के साहित्यिक ...आलेखों में  इसका साहित्यिक अर्थ न जानने के कारण त्रुटिपूर्ण है.... क्योंकि अपर का अर्थ अन्य एवं अतिरिक्त  होता है...... विज्ञान में तत्वों /यौगिकों के मूल से अन्य, अतिरिक्त  विविध रूपों को विकृत रूप नहीं कहा जा सकता , यदि विकृत रूप मानें तो अपरूप शब्द ठीक कहलायेगा, ...अन्यथा वे अन्य रूप  हैं ...अपररूप ....


                    नेति...नेति.....अभी और भी बहुत स्थान  है टिप्पणी, विवेचना, बहस व तर्कों के लिए .....

सोमवार, 19 नवंबर 2012

सृष्टि महाकाव्य--पंचम सर्ग--अशान्ति खन्ड ( भाग तीन ) --डा श्याम गुप्त

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
   

सृष्टि महाकाव्य ..पंचम सर्ग...तृतीय भाग...
             सृष्टि महाकाव्य-(ईषत- इच्छा या बिगबेंग--एक अनुत्तरित उत्तर )--
       

                 
पंचम सर्ग अशांति खंड में अब तक-अणु, परमाणु, पदार्थ के त्रिआयामी कण , मूल-पदार्थ , समय अंतरिक्ष कैसे बने इसका वैदिक विज्ञान सम्मत व्याख्या का वर्णन किया गया था इस तृतीय अंतिम भाग -छंद २७ से ३७ तक--में आधुनिक विज्ञान के अनुसार , बिग बेंग के पश्चात परमाणु, अणु, पदार्थ आदि कैसे बने इसका वर्णन किया गया है----
२७-
कहता है विज्ञान , आदि में ,
कहीं नहीं था कुछ भी स्थित।
एक महाविष्फोट1 हुआ था,
अंतरिक्ष में और बन गए ;
सारे कण-प्रतिकण,प्रकाश कण,
फिर सारा ब्रह्माण्ड बन गया॥
२८-
एक महा विष्फोट हुआ जब,
अंतरिक्ष, उस महाकाश में;
एक हजारवें भाग में पल के,
तापमान अतिप्रबल होगया।
और आदि ऊर्जा-कण सारे,
लगे फैलने अंतरिक्ष में॥
२९-
ऊर्जा कण, उस प्रबल ताप से,
विकिरण ऊर्जा भाव हुए थे।
क्रमश: तापमान घटने से,
प्रारम्भिक कण-रूप बन गए।
हलके, भारी,भार रहित कुछ-
विद्युतमय,कुछ उदासीन थे॥
३०-
तापमान गिरते जाने से,
हलके- कण, संयुक्त होगये
ऋणकण,धनकण,उदासीनकण
और प्रकाशकण-रूप बन गए।
प्रति सहस्र हलके उपकण से ,
बना एक परमाणु-पूर्व कण
३१-
तापमान अति न्यून हुआ जब,
धनकण, उदासीन कण सारे,
जो परमाणु पूर्व के कण थे;
हो संयुक्त परमाणु बन गए।
हाइड्रोजन, हीलियम गैस थे,
दृव्य-प्रकृति के प्रथम रूप कण
३२-
हाइड्रोजन, हीलियम गैस कण,
शेष रहे परमाणु प्रतिकण ;
और प्रकाश कण , शेष ऊर्जा,
मिलकर बने, विविध तारागण-
तारामंडल,ग्रह, नीहारिका ;
इस प्रकार ब्रह्माण्ड बन गया॥
३३-
लेकिन यह विष्फोट क्यों हुआ,
कहाँ और किस शक्ति के द्वारा।
आदि -ऊर्जा स्रोत कहाँ था,
अंतरिक्ष भी कहाँ था स्थित।
इन सारे प्रश्नों के उत्तर,
अभी नहीं विज्ञान दे सका॥
३४-
स्थित-प्रज्ञ सिद्दांत अन्य है,
जैसा है ब्रह्माण्ड आज यह,
सदा, सर्वदा वैसा रहता
नव-प्रसार से, रिक्त खंड में,
नव-पदार्थ है बनता जाता;
यह ब्रह्मांड वही रहता है॥
३५-
लेकिन वह पदार्थ बनता है,
भला कहाँ से, कैसे बनता;
और प्रथम ब्रह्माण्ड कहाँ था,
कहाँ और कैसे बन पाया।
इन सारे प्रश्नों के उत्तर,
अभी नहीं विज्ञान दे सका॥
३६-
क्या भविष्य है,सृष्टि लय का,
कहता है विज्ञान, अनिश्चित
अति शीतल हो अंतरिक्ष जब ,
लगे सिकुड़ने यह ब्रह्माण्ड।
पुनः बिखरकर बन जाता है,
अणु, परमाणु, आदि-कण, ऊर्जा॥
३७-
इस बिखरे समूह से बनता ,
एक ठोस अति सघन पिंड,उस-
महाशीत और अन्धकार में।
बन जाती है पुनः भूमिका ,
एक नए विष्फोट की फिर से,
रचने पुनः नया ब्रह्माण्ड॥                  ----क्रमश : सर्ग ..........

{
कुंजिका---=बिगबेंग -सृष्टि उत्पत्ति का आधुनिक विज्ञान का सिद्धांत ; = अत्यंत उच्च- ताप , १०० बिलियन से-; =इलेक्ट्रोन , न्यूट्रोन, प्रोटोन स्वतंत्र ऊर्जा ; = परमाणु पूर्व के कण, = एक प्रोटोन वाले हीलियम हाइड्रोजन गैस के आदि कण जो द्रव्य जगत के प्रथम कण हुए, जिनसे बाद में समस्त पदार्थ बने। ; = सृष्टि का सम-स्थिति सिद्धांत ( बिग बेंग के अलावा आधुनिक विज्ञान का एक अन्य सिद्धांत )}
    
                           ---सृष्टि महाकाव्य---पंचम सर्ग---समाप्त- षष्ठ सर्ग---अगले अंक में ..