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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

रविवार, 15 अप्रैल 2012

आयुर्वेद एक सारभूत वर्णन--- भाग- चार ......डा श्याम गुप्त ...

                              

                                                      
                             ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
               

        ( अन्य भारतीय ज्ञान व विद्याओं की भाँति भारतीय चिकित्सा विज्ञान भी अत्यंत विकसित था । गुलामी के काल में अन्य ज्ञान व विध्याओं की भाँति सुनियोजित षडयंत्र व क्रमिक प्रकार से इसका भी प्रसार व विकास भी रोका गया ताकि एलोपेथिक आदि पाश्चात्य चिकित्सा को प्रश्रय दिया जा सके । अतः भारत के इतिहास के अन्धकार काल में आयुर्वेद का कोई उत्थान नहीं हुआ अपितु निरंतर गिरावट होती रही । हर्ष का विषय है की आज भारत के  नए भोर के साथ आयुर्वेद भी नए नए आयाम छू रहा है।  आयुर्वेद के नाम से जाना जाने वाला यह आदि चिकित्सा विज्ञान है, जिसके सारभूत सिद्धांतों से विश्व के सभी चिकित्सा-विज्ञान प्रादुर्भूत हुए हैं । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लगभग सभी अंग-उपांग आयुर्वेद में पहले ही निहित हैं। यद्यपि आजकल आयुर्वेद "प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति' के संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होता है।  इस क्रमिक पोस्ट द्वारा हम आयुर्वेद के इस विशद ज्ञान को संक्षिप्त में वर्णन करेंगे । )  प्रस्तुत है ------  भाग चार----
                    


     आयुर्वेद में रोगी की परीक्षा ( पेशेन्ट-एक्ज़ामिनेशन) --   
                ---रोगी परीक्षा के चार साधन हैं आप्तोपदेश,  प्रत्यक्ष,  अनुमान और  युक्ति।
१-आप्तोपदेश (शास्त्र, मूल चिकित्सा-ग्रन्थ, रेफ़्रेन्स बुक्स, आर्टिक्ल्स, जर्नल्स-बाई लेर्नेड मेडीकल औथोरिेटीज़, अनुभवी डाक्टर्स - चिकित्सा टीचर्स, स्कूल्स, क्लिनिक्स-होस्पीटल्स, यूनिवर्सिटीज़  ) …योग्य अधिकारी, तप और ज्ञान से संपन्न होने के कारण, शास्त्रतत्वों को राग-द्वेष-शून्य बुद्धि से असंदिग्ध और यथार्थ रूप से जानते और कहते हैं। ऐसे विद्वान्‌, अनुसंधानशील, अनुभवी, पक्षपातहीन और यथार्थ वक्ता महापुरुषों को आप्त (अथॉरिटी) और उनके वचनों या लेखों, पुस्तकों  को आप्तोपदेश( शास्त्र-बचन) कहते हैं।          
                    आप्तजनों ने पूर्ण परीक्षा के बाद शास्त्रों का निर्माण कर उनमें एक-एक के संबंध में लिखा है कि अमुक कारण से, इस दोष के प्रकुपित होने और इस धातु के दूषित होने तथा इस अंग में आश्रित होने से, अमुक लक्षणोंवाला अमुक रोग उत्पन्न होता है, उसमें अमुक-अमुक परिवर्तन होते हैं तथा उसकी चिकित्सा के लिए इन आहार विहार और अमुक औषधियों के इस प्रकार उपयोग करने से तथा चिकित्सा करने से शांति होती है। इसलिए सर्व-प्रथम योग्य और अनुभवी गुरुजनों से शास्त्र का अध्ययन करने पर रोग के हेतु, लिंग और औषधज्ञान में प्रवृत्ति  होती है। शास्त्रवचनों  (स्तरीय लिखित/ परम्परागत मौखिक चिकित्सा-साहित्य…. मेडीकल-लिटरेचर) के अनुसार ही लक्षणों की परीक्षा -प्रत्यक्ष, अनुमान और युक्ति से की जाती है।
२-प्रत्यक्ष परीक्षा—( फ़िज़िकल एक्सामिनेशन)---मनोयोगपूर्वक इंद्रियों द्वारा विषयों का अनुभव प्राप्त करने को प्रत्यक्ष कहते हैं। इसके द्वारा रोगी के शरीर के अंग प्रत्यंग में होनेवाले विभिन्न शब्दों (ध्वनियों) की परीक्षा कर उनके स्वाभाविक या अस्वाभाविक होने का ज्ञान श्रोत्रेंद्रिय द्वारा( सुनकर-हीयरिन्ग) करना चाहिए। वर्ण, आकृति, लंबाई, चौड़ाई आदि प्रमाण तथा छाया आदि का ज्ञान नेत्रों द्वारा (विज़ुअल एक्ज़ामिनेशन.), गंधों का ज्ञान घ्राणेंद्रिय( सून्घकर- स्मेलिन्ग) तथा शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध एवं नाड़ी आदि के स्पंदन आदि भावों का ज्ञान स्पर्शेंद्रिय( छू कर- फ़ीलिन्ग) द्वारा प्राप्त करना चाहिए। रोगी के शरीरगत रस की परीक्षा स्वयं अपनी जीभ से करना उचित होने के कारण, उसके शरीर या उससे निकले स्वेद, मूत्र, रक्त, पूय आदि में चींटी लगना या लगना, मक्खियों का आना और आना, कौए या कुत्ते आदि द्वारा खाना या खाना, प्रत्यक्ष देखकर उनके स्वरूप का अनुमान किया जा सकता है।
३-अनुमान ( इन्फ़्रेन्स )---युक्ति-युक्त तर्क के द्वारा प्राप्त ज्ञान अनुमान (इन्फ़्रेन्स) है। जिन विषयों का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता या प्रत्यक्ष होने पर भी उनके संबंध में संदेह होता है वहाँ अनुमान द्वारा परीक्षा करनी चाहिए; यथा, पाचनशक्ति के आधार पर अग्निबल(डाइजेस्टेबिलिटी का, इसी प्रकार भोजन में रुचि, अरुचि तथा प्यास एवं भय, शोक, क्रोध, इच्छा, द्वेष आदि मानसिक भावों के द्वारा विभिन्न शारीरिक और मानसिक विषयों का अनुमान करना चाहिए।
४-युक्ति- तर्क व लोजिक - (फ़िज़िकल-यान्त्रिक व अन्य टैस्ट्स  आदि )..-इसका अर्थ है योजना  अनेक कारणों के सामुदायिक प्रभाव से किसी विशिष्ट कार्य की उत्पत्ति को देखकर, तदनुकूल विचारों से जो कल्पना की जाती है उसे युक्ति कहते हैं।  जैसे--जहाँ धुआँ होगा वहाँ आग भी होगी। इसी को व्याप्तिज्ञान  भी कहते हैं और इसी के आधार पर तर्क कर अनुमान किया जाता है।
           योजना का दूसरी दृष्टि से भी रोगी की परीक्षा में प्रयोग कर सकते हैं। जैसे किसी इंद्रिय में यदि कोई विषय सरलता से ग्राह्य हो तो अन्य यंत्रादि उपकरणों की सहायता  से उस विषय का ग्रहण करना भी युक्ति में ही अंतर्भूत है।
    परीक्षण विषय---
            पूर्वोक्त लिंगों के ज्ञान के लिए तथा रोगनिर्णय के साथ साध्यता या असाध्यता के भी ज्ञान के लिए आप्तोपदेश के अनुसार प्रत्यक्ष आदि परीक्षाओं द्वारा  रोगी के सार तत्व  (शारीरिक व मानसिक बनावट व बुनावट—डिसपोज़िशन,हैबिट्स--)--- आयु ,वर्ण, भक्ति (रुचि), , शील, आचार, स्मृति, आकृति, रोग और उसके पूर्वरूप आदि का प्रमाण, उपद्रव (कांप्लिकेशंस),  स्वप्न (ड्रीम्स), रोगी को देखने को बुलाने के लिए आए दूत तथा रास्ते और रोगी के घर में प्रवेश के समय के शकुन और अपशकुन, ग्रहयोग आदि सभी विषयों का( सिर्कम्स्टेन्शियल एवीडेन्सेज़) ---प्रकृति (स्वाभाविकता) तथा विकृति (अस्वाभाविकता) की दृष्टि से विचार करते हुए परीक्षा की जाती है।
              रोगी की  नाड़ी, मल, मूत्र, जिह्वा, ध्वनि,, स्पर्श, नेत्र और आकृति  की परीक्षा महत्वपूर्ण है। आयुर्वेद में नाड़ी की परीक्षा अति महत्व का विषय है। केवल नाड़ी-परीक्षा से ही दोषों एवं दूषणों के साथ रोगों के स्वरूप आदि का ज्ञान एक अनुभवी वैद्य द्वरा प्राप्त कर लिया जाता है।
    औषध ( मेडीकेशन )--
           जिन साधनों के द्वारा रोगों के कारणभूत दोषों एवं शारीरिक विकृतियों का शमन किया जाता है  उन्हें औषध कहते हैं। ये प्रधानत: दो प्रकार की होती है : -अपद्रव्यभूत और द्रव्यभूत।
१-अद्रव्यभूत --औषध वह है जिसमें किसी द्रव्य  ( भौतिक-पदार्थ-दवा-मेटीरियल-ड्रग्स) आदि ) का उपयोग नहीं  होता, जैसे उपवास, विश्राम, सोना, जागना, टहलना, व्यायाम आदि।
२-द्रव्यभूत-- बाह्य या आभ्यंतर प्रयोगों द्वारा शरीर में जिन बाह्य द्रव्यों (ड्रग्स) का प्रयोग होता है वे     द्रव्यभूत औषध हैं। ये द्रव्य संक्षेप में तीन प्रकार के होते हैं ----
      () जांगम (ऐनिमल ड्रग्स)-- जो विभिन्न प्राणियों के शरीर से प्राप्त  होते हैं, जैसे मधु, दूध, दही, घी, मक्खन, मठ्ठा, पित्त, वसा, मज्जा, रक्त, मांस, विष्ठा, मूत्र, शुक्र, चर्म, अस्थि, श्रृंग, खुर, नख, लोम आदि;
     () औद्भिद (हर्बल ड्रग्स) :  शाक, पौधे, ब्रक्ष, मूल (जड़), फल आदि-- वनस्पतियों से प्राप्त होते हैं।
     () पार्थिव (खनिज, मिनरल ड्रग्स), जैसे सोना, चांदी, सीसा, रांगा, तांबा, लोहा, चूना, खड़िया, अभ्रक, संखिया, हरताल, मैनसिल, अंजन (एंटीमनी), गेरू, नमक आदि।
      शरीर की भांति ये सभी द्रव्य भी पंच-भौतिक होते हैं, इनके भी वे ही संघटक होते हैं जो शरीर के हैं। अत:- संसार में कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं है जिसका किसी किसी रूप में किसी किसी रोग के किसी किसी अवस्था विशेष में औषधरूप में प्रयोग किया जा सके
           किंतु इनके प्रयोग के पूर्व इनके स्वाभाविक गुणधर्म,  संस्कारजन्य गुणधर्म,  प्रयोगविधि तथा प्रयोगमार्ग का ज्ञान आवश्यक है। इनमें कुछ द्रव्य दोषों का शमन (हेल्पिन्ग बोडी अगेन्स्ट डिज़ीज़ेज़) करते हैं, कुछ दोष और धातु को दूषित ( डेमेजिन्ग फ़ोर बोडी ) करते हैं और कुछ स्वस्थवृत्त में अर्थात्धातुसाम्य को स्थिर  (हैल्पफ़ुल टू मेन्टेन मिल्यू-इन्टीरियर) रखने में उपयोगी होते हैं, इनकी उपयोगिता के समुचित ज्ञान के लिए द्रव्यों के पांचभौतिक संघटकों में तारतम्य के अनुसार स्वरूप (कंपोज़िशन ), गुरुता, लघुता, रूक्षता, स्निग्धता आदि गुण, (करेक्टर्स ) रस (टेस्ट एंड लोकल ऐक्शन ), पाक (मेटाबोलिक चेंजेज़-पेथोफ़िज़िओलोजी ), वीर्य (फिज़िओलॉजिकल ऐक्शन ), प्रभाव (स्पेसिफ़िक ऐक्शन) तथा मात्रा (रिक्वायर्ड डोज़) का ज्ञान आवश्यक होता है।
     भैषज्य-कल्पना ( फ़ार्मास्यूटिकल, फ़ार्मेसी, फ़ार्माकोलोजी )
           सभी द्रव्य ( मैटर) सदैव अपने प्राकृतिक रूपों में शरीर में उपयोगी नहीं होते। रोग और रोगी की आवश्यकता के विचार से शरीर की धातुओं के लिए उपयोगी ( बेनेफ़ीसियल) एवं सात्म्यीकरण ( एकोर्डिन्ग टू बोडी--तादाम्यीकरण ) के अनुकूल बनाने के लिए; इन द्रव्यों के स्वाभाविक स्वरूप और गुणों में परिवर्तन के लिए, विभिन्न भौतिक एवं रासायनिक संस्कारों द्वारा जो उपाय किए जाते हैं उन्हें "कल्पना' (फ़ार्मेसी या फ़ार्मास्युटिकल प्रोसेस) कहते हैं। जैसे-स्वरस (जूस), चूर्ण (पेस्ट या पाउडर), शीत क्वाथ (इनफ़्यूज़न), क्वाथ (डिकॉक्शन), आसव( सत्व, सीरप ) तथा अरिष्ट (टिंक्सचर ), तैल, घृत, अवलेह आदि तथा खनिज द्रव्यों के शोधन(प्योरीफिकेशन), जारण(केमिकली-शोधन), मारण(रिमूविंग हार्मफुल कम्पोनेंट्स), अमृतीकरण( मेकिंग मेक्सीमल बेनीफीशियल ), सत्वपातन (एक्सट्रेक्टिंग बेसिक एलीमेंट  ) आदि ।  

           ------क्रमश:-- भाग पांच ( समापन भाग ) चिकित्सा .....