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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

सोमवार, 29 अप्रैल 2013

ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ ......अंक २ ....डा श्याम गुप्त ...

                                        ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                                            ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ-क्रमशः   - भाग दो

                       प्रथम भाग के तीन मन्त्रों में मानव के मूल कर्तव्यों को बताया गया था कि ...सबकुछ ईश्वर से नियमित है एवं वह सर्वव्यापक है ,अतः जगत के पदार्थों को अपना ही न मानकर , ममता को न जोड़कर सिर्फ प्रयोगाधिकार से भोगना चाहिए | कर्म  करना आवश्यक है परन्तु उसे अपना कर्त्तव्य व धर्म मानकर करना चाहिए , आत्मा के प्रतिकूल कर्म नहीं करना चाहिए एवं किसी की वस्तु एवं उसके स्वत्व का हनन नहीं करें |
                       इस द्वितीय भाग में मन्त्र 4 से 8 तक में ब्रह्म विद्या के मूल तत्वों एवं ब्रह्म के गुणों का वर्णन है ....

अनेजदेकं मनसो ज़वीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वंमर्षत|
तद्धावतोsन्यान्यत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति||..४
                    वह ब्रह्म अचल,एक ही एवं मन से भी अधिक वेगवान है तथा सर्वप्रथम है, प्रत्येक स्थान पर पहले से ही व्याप्त है | उसे  इन्द्रियों से प्राप्त (देखा, सुना,अनुभव आदि ) नहीं किया जा सकता क्योंकि वह इन्द्रियों को प्राप्त नहीं  है | वह अचल होते हुए भी अन्य सभी दौड़ने वालों से तीब्र गति से प्रत्येक स्थान पर पहुँच जाता है क्योंकि वह पहले से ही सर्वत्र व्याप्त है | वही समस्त वायु, जल आदि  विश्व को धारण करता है |

तदेज़ति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके |
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ||...५ ..
                         वह ब्रह्म गतिशील भी है अर्थात सब को गतिदेता परन्तु वह स्थिर भी है क्योंकि वह स्वयं गति में नहीं आता | वह दूर भी हैक्योंकि समस्त संसार में व्याप्त ..विभु है  और सबके समीप भी क्योंकि सबके अंतर में स्थित प्रभु भी है  | वह सबके अन्दर भी स्थित है एवं सबको आवृत्त भी किये हुए है , अर्थात सबकुछ उसके अन्दर स्थित है |

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति |
सर्वभूतेषु  चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ||...६...
                             जो कोई समस्त चल-अचल जगत को परमेश्वर में ( एवं आत्म-तत्व  में )  ही स्थित देखता समझता है तथा सम्पूर्ण जगत में  परमेश्वर को  ( एवं आत्म तत्व  को )  ही स्थित देखता समझता है वह भ्रमित नहीं होता , घृणा नहीं करता अतःआत्मानुरूप कर्मों के न करने से निंदा का पात्र नहीं बनता |

यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवा भू द्विजानतः |
तत्र  को मोहः  कः शोक एकत्वमनुपश्यत: ||...७....
                                जब  व्यक्ति यह उपरोक्त मर्म जाना लेता है कि आत्मतत्व ही समस्त  भूतों....चल-अचल संसार में व्याप्त है वह सबको आत्म में स्थित मानकर सबको स्वयं में ही मानकर अभूत .अर्थात एकत्व -भाव होजाता है | ऐसे सबको समत  संसार को एक सामान देखने समझाने वाले को न कोई मोह रहता है न शोक ...वह ममत्व से परे  परमात्म-रूप ही  होजाता है | उसका ध्येय ईश्वरार्पण |

स  पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-
मस्नाविरंशुद्धमपापविद्धम |
कविर्मनीषी परिभू स्वयन्भूर्याथातथ्यतो
sर्थान- व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्यः ||....८....
                            और वह ईश्वर परि अगात ,,,सर्वत्र व्यापक, शुक्रं....जगत का उत्पादक, अकायम...शरीर रहित,  अव्रणम ...विकार रहित ,अस्नाविरम ..बंधनों से मुक्त, पवित्र,पाप बंधन से रहित कविः...सूक्ष्मदर्शी , ज्ञानी, मनीषी, सर्वोपरि, सर्वव्याप्त ( परिभू). स्वयंभू ....स्वयंसिद्ध , अनादि है | उसने  प्रजा अर्थात जीव के लिए समाभ्य  अनादिकाल से  यातातथ्यतः  अर्थात यथायोग्य ..ठीक ठीक कर्मफल का विधान  कर रखा है, सदा ही सबके लिए उचित साधनों  व अनुशासन की व्यवस्था करता है |

                अर्थात...... आखिर कोई ब्रह्म के, उसके गुणों के, ब्रह्म विद्या के बारे में क्यों जाने ? ईश्वर को क्यों माने ,इसका वास्तविक जीवन में क्या कोई महत्व है ? वस्तुतः हमारा, व्यक्ति का, मानव मात्र का उद्देश्य ब्रह्म को जानना, वर्णन करना ज्ञान बघारना आदि ही नहीं अपितु वास्तव में तो ब्रह्म के गुण जानकर, समस्त संसार को ईश्वरमय एवं ईश्वर को संसार मय....आत्ममय ..समस्त विश्व को एकत्व जानकर मानकर , ईश्वर व आत्मतत्व का एकत्व जानकर विश्वबंधुत्व के पथ पर बढ़ना, समत्व से ,समता भाव से  कर्म करना एवं वर्णित ईश्वरीय गुणों को आत्म  में, स्वयं में समाविष्ट करके शारीरिक, मानसिक व आत्मिक उन्नति द्वारा ...व्यष्टि, समष्टि, राष्ट्र, विश्व  व मानवता की उन्नति ही इस विद्या का ध्येय है |


                                               ----------- क्रमशः.... भाग तीन...अगले अंक में ....
                      



रविवार, 28 अप्रैल 2013

ग़ज़ल ..अंदाज़े बयाँ ज़िंदगी का .....डा श्याम गुप्त

                              

                         ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



           अंदाज़े-वयां ज़िंदगी का....

जरूरी नहीं ज़िंदगी को घुट-घुट के जिया जाए |
चलो आज ज़िंदगी का अंदाज़े-वयां लिया जाए |

खुशी पाते हैं जो अपनी शर्तों पे जिया करते हैं ..
शर्त  यही  हो  कि  सदा परमार्थ  हित  जिया जाए ..|

यूं तो पीने के कितने बहाने  हैं  ज़माने में,
लुत्फ़ है जब जाम से जाम टकरा के पिया जाए |

मरते हैं हज़ारों लोग दुनिया में यूं तो लेकिन,
मौत वही यारो जब देश पे कुर्वां  हुआ जाए |

जन्म लेते हैं, औ जीते हैं प्रतिदिन जाने कितने,
जीना वही जब राष्ट्र का सिर गर्वोन्नत किया जाए |

लिखी जाती हैं कितनी किताबें, कविता-कहानियां,
साहित्य वही  कुछ सामाजिक सरोकार दिया जाए |

ग़ज़ल कह तो रहा है हर खासो-आम यहाँ, लेकिन 
ग़ज़ल वही  जब अंदाज़े-वयां श्याम का जिया जाए |

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ ......अंक १ ....डा श्याम गुप्त ...

                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


                                          ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ   

                     विश्व के प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ ज्ञान के भण्डार 'वेद' , जिनके बारे में कथन है कि जो कुछ भी कहीं है वह वेदों में है और जो वेदों में नहीं है वह कहीं नहीं , के ज्ञान ...परा व अपरा विद्या के आधार उपनिषद् हैं जो भारतीय मनीषा, ज्ञान, विद्या , संस्कृति  व आचरण-व्यवहार के आधार तत्व हैं | उपनिषद् भवन की आधार शिला  'ईशोपनिषद ' है जिसमें समस्त वेदों व उपनिषद् शिक्षा का सार है |  ईशोपनिषद यजुर्वेद का चालीसवां  अध्याय  है जो परा व अपरा ब्रह्म-विद्या का मूल है अन्य सभी  उपनिषद् उसी का विस्तार हैं |
                      वेदों के मन्त्रों का भाव  मूलतः दो रूपों  में प्राप्त होता है ...१. उपदेश रूप में --जहाँ मानव अपने कर्म में स्वतंत्र है वह उपदेश उस रूप में ग्रहण करे न करे...२. नियम रूप में -- जो प्राकृतिक नियम रूप हैं एवं अनुल्लंघनीय हैं |  ईशोपनिषद में ईश्वर, जीव, संसार, कर्म, कर्त्तव्य, धर्म , सत्य, व्यवहार एवं उनका तादाम्य 18 मन्त्रों में देदिया गया है, जो आज भी प्रासंगिक हैं , समीचीन हैं एवं अनुकरणीय व पालनीय  हैं |  इसकी सैकड़ों टीकाएँ --- विधर्मी दाराशिकोह, जिसे इसके अध्ययन के बाद ही शान्ति मिली  द्वारा फारसी में.... जर्मन विद्वान्  शोपेन्हावर को अपनी  प्रसिद्ध  फिलासफी त्याग कर इसी से संतुष्टि प्राप्त हुई|  शंकराचार्य की अद्वैतपरक...रामानुजाचार्य की विशिष्टाद्वेतपरक एवं माधवाचार्य की द्वैतपरक टीकाएँ इस उपनिषद् की  महत्ता का वर्णन करती हैं |
                       ईशोपनिषद के 18 मन्त्रों में चार भागों में सबकुछ कह दिया गया है |  ये हैं--
प्रथम भाग...मन्त्र १ से ३ .... मानव जीवन के मूल कर्त्तव्य ..
द्वितीय भाग....मन्त्र ४ से ८....ब्रह्म विद्या मूलक सिद्धांत व ईश्वर के गुण व ईश्वर क्यों ...
तृतीय भाग....मन्त्र ९ से १४ ....ज्ञान-अज्ञान, यम-नियम , मानव के कर्त्तव्य , विद्या-अविद्या, संसार             ब्रह्म-विद्या प्राप्ति, प्रकृति, कार्य-कारण , मृत्यु -अमरत्व ....आत्मा-शरीर,
चतुर्थ भाग ..... मन्त्र १५  से 18.....सत्य, धर्म, कर्म, ईश्वर -जीव का मिलन , आत्मा-शरीर का अंतिम परिणाम |

                                                        भाग एक

ईशावास्यं इदं सर्वं यत्किंच जगात्याम् जगत|
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधःकस्यस्विद्धनम || १....
                  इस जगत में अर्थात पृथ्वी पर, संसार में जो कुछ भी चल-अचल , स्थावर , जंगम , प्राणी आदि  वस्तु है वह ईश्वर की माया से आच्छादित है अर्थात उसके अनुशासन से नियमित है |  उन सभी पदार्थों को त्याग से अर्थात सिर्फ उपयोगार्थ दिए हुए समझकर उपयोग रूप में ही भोगना चाहिए , क्योंकि यह धन किसी का भी नहीं हुआ है अतः किसी प्रकार के भी  धन व अन्य के स्वत्व-स्वामित्व  का लालच व ग्रहण नहीं करना चाहिए |

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समाः |
एवंत्वयि नान्यथेतो sति न कर्म लिप्यते नरः ||..२..
                     यहाँ मानव कर्मों को करते हुए १०० वर्ष जीने की इच्छा करे, अर्थात कर्म के बिना, श्रम के बिना जीने की इच्छा व्यर्थ है |  कर्म करने से अन्य  जीने का कोई भी  उचित मार्ग नहीं है क्योंकि इस प्रकार उद्देश्यपूर्ण, ईश्वर का ही सबकुछ मानकर, इन्द्रियों को वश में रखकर आत्मा की आवाज़ के अनुसार   जीवन जीने से मनुष्य कर्मों में लिप्त नहीं होता.... अर्थात अनुचित कर्मों में,  ममत्व में लिप्त नहीं होता ,अपना-तेरा, सांसारिक द्वंद्व  दुष्कर्म, विकर्म आदि उससे लिप्त नहीं  होते |

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता |
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ||-३ ...
                     जो आत्मा के घातक अर्थात ईश्वर आधारित व आत्मा के विरुद्ध , केवल शरीर व इन्द्रियों आदि की शक्ति व इच्छानुसार  सद्विवेकआदि की उपेक्षा करके कर्म ( या अपकर्म आदि ) करते हैं वे अन्धकार मय लोकों में पड़ते हैं अर्थात विभिन्न कष्टों, मानसिक कष्टों, सांसारिक द्वेष-द्वंद्व रूपी यातनाओं में फंसते हैं |

                   निश्चय ही मानव का आत्म... स्वयं शक्ति का केंद्र है उस शक्ति के अनुसार चलना, मन वाणी शरीर से कर्म करना  ही उचित है यही आस्तिकता है, ईश्वर-भक्ति है ,अन्य  कोई मार्ग नहीं है|  इस ईश्वर .. श्रेष्ठ -इच्छा एवं  आत्म-शक्ति से ही समस्त विश्व संचालित है, आच्छादित है , अनुशासित है ..
                                          तू ही तू है , 
                                         सब कहीं है |
  सब वस्तु ईश्वर की न मानना अर्थात धन एवं अपने स्वत्व को ईश्वर से पृथक मानना.. मैं ,ममत्व..ममता, मैं -तू का द्वैत  ही समस्त दुखों, द्वंद्वों, घृणा आदि का मूल है| ...
                               सब कुछ ईश्वर के ऊपर  छोडो यारो ,
                              अच्छे कर्मों का फल है अच्छा  ही होता |


 कर्म- संसार का अटूट नियम है  ..जगत में कोई भी वस्तु क्रिया रहित नहीं होती , अतः कर्मनिष्ठ होना ही मानव की नियति है | परन्तु  जो लोग अपनी आत्मा( सेल्फ कोंशियस )  के विपरीत, मूल नियम के विरुद्ध, ईश्वरीय नियम के विरुद्ध अर्थात प्रतिकूल कर्म  करते हैं वे विविध कष्टों को प्राप्त होते हैं|
 
                              "" मिलता तुझको वही सदा जो तू बोता है |""
   यही आत्मप्रेरणा  से चरित्र निर्माण का मार्ग है |

                                                    क्रमश ......     भाग दो ...

                           

रविवार, 21 अप्रैल 2013

" कुछ शायरी की बात होजाए"....डा श्याम गुप्त .......

                                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


                मेरी शीघ्र प्रकाश्य शायरी संग्रह ......." कुछ शायरी की बात होजाए" ...से  प्रतिदिन प्रकाशित गज़ल, रुबाइयां, नज्में  आदि  ..मेरे ब्लॉग  " साहित्य श्याम -http://saahity shyam.blogspot.com ..पर पढ़ें .....  प्रस्तुत है प्रथम रचना ...ईश प्रार्थना .....

 ईश अपने भक्त पर, इतनी कृपा कर दीजिये |
रमे तन मन राष्ट्र हित में, प्रभो ! यह वर दीजिये |

प्रेम करुणा प्राणिसेवा, भाव नर के उर बसें ,
दया ममता सत्य से युत, भाव मन धर  दीजिये |

सहज भक्ति से  आपकी,  मानव करे नित वन्दना ,
हो प्रेममार्ग प्रशस्त जग में, प्रीति  लय सुर दीजिये |

मैं न मंदिर में गया, प्रतिमा तुम्हारी पूजने,
भाव हो पत्थर नहीं, यह भाव जग भर दीजिये |

पाप पंक में इस जगत के, डूबकर भूला तुम्हें ,
याद करके स्वयं  मुझको, भक्ति के स्वर दीजिये |

दूर से आया तुम्हारी शंख-ध्वनि का नाद सुन ,
नाद अनहद मधुर स्वर से, भर प्रभो! उर दीजिये |

राह आधी आगया हूँ, अब चला जाता नहीं ,
हो कृपासागर तो दर्शन यहीं आकर दीजिये |

हे दयामय! दयासागर! प्रभु दया के धाम हो ,
श्याम के ह्रदय में बस कर, पूर्ण व्रत कर दीजिये ||

 

बात शायरी की ... डा श्याम gup

                                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



                                                          


            शायरी  अरबी, फारसी उर्दू जुबान की काव्य-कला है | इसमें गज़ल, नज़्म, रुबाई, कते शे आदि विविध छंद काव्य-विधाएं प्रयोग होती हैं, जिनमें गज़ल सर्वाधिक लोकप्रिय हुई | गज़ल नज़्म में यही अंतर है कि नज़्म एक काव्य-विषय कथ्य पर आधारित काव्य-रचना है जो कितनी भी लंबी, छोटी अगीत की भांति लघु होसकती है एवं तुकांत या अतुकांत भी | गज़ल मूलतः शेरों (अशार या अशआर) की मालिका होती है और प्रायः इसका प्रत्येक शे विषयभाव में स्वतंत्र होता है |


              नज़्म  विषयानुसार तीन तरह की होती हैं ---मसनवी अर्थात प्रेम अध्यात्म, दर्शन अन्य जीवन के विषय, मर्सिया ..जिसमें दुःख, शोक, गम का वर्णन होता है और कसीदा यानी प्रशंसा जिसमें व्यक्ति विशेष का बढ़ा-चढा कर वर्णन किया जाता है | एक लघु अतुकांत नज्म पेश है...

             सच,

               यह तुलसी कैसी शांत है

               और कश्मीर की झीलें

              किस-किस तरह

              उथल-पुथल होजाती हैं

             और अल्लाह

             मैं !               ...........मीना कुमारी ...       


                 रुबाई  मूलतः अरबी फारसी का स्वतंत्र ..मुक्तक है जो चार पंक्तियों का होता है इनमें एक ही विषय ख्याल होता है और कथ्य चौथे मिसरे में ही मुकम्मिल स्पष्ट होता है | तीसरे मिसरे के अलावा बाकी तीनों मिसरों में काफिया रदीफ एक ही तुकांत में होते हैं तीसरा मिसरा इस बंदिश से आज़ाद होता है | परन्तु रुबाई में पहलातीसरा दूसराचौथा मिसरे के तुकांत भी सम होसकते हैं और चारों के भी | फारसी शायर ...उमर खय्याम की रुबाइयां विश्व-प्रसिद्द हैं |..उदाहरण- एक रुबाई....              

                इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं

                 अपने ज़ज्वात की हसीं तहरीर |

                 किस मौहब्बत से तक रही है मुझे,

                 दूर रक्खी हुई तेरी तस्वीर || “ .......... निसार अख्तर



          कतआ  भी हिन्दी के मुक्तक की भांति चार मिसरों का होता हैयह दो शेरों से मिलकर बनता है | इसमें एक मुकम्मिल शे होता है..मतला तथा एक अन्य शे होता जब शायर ..एक शेर में अपना पूरा ख्याल ज़ाहिर कर पाए तो वो उस ख्याल को दुसरे शेर से मुकम्मल करता है कतआ शायद उर्दू में अरबी-फारसी रुबाई का विकसित रूप है| अर्थात दो शेरों की गज़ल| एक उदाहरण पेश है....

        
           “दर्दे-दिल को जो जी पाये |

           जख्मे-दिल को जो सी पाए |

           दर्दे-ज़मां ही ख्वाव है जिसका-

           खुदा  भी उस दिल में ही समाये ||”....... डा श्याम गुप्त 



                  शे दो पंक्तियों की शायरी के नियमों में बंधी हुई वह रचना है जिसमें पूरा भाव या विचार व्यक्त कर दिया गया हो | 'शेर' का शाब्दिक अर्थ है --'जानना' अथवा किसी तथ्य से अवगत होना और शायर का अर्थ जानने वाला ...अर्थात कविर्मनीषी स्वयंभू परिभू ...क्रान्तिदर्शी ...कवि |  इन दो पंक्तियों में शायर या कवि अपने पूरे भाव व्यक्त कर देता है ये अपने आप में पूर्ण होने चाहिए उन पंक्तियों के भाव-अर्थ समझाने के लिए किन्हीं अन्य पंक्ति की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | गज़ल शेरों की मालिका ही होती है | अपनी सुन्दर तुकांत लय, गति प्रवाह तथा प्रत्येक शे स्वतंत्र मुक्त विषय-भाव होने के कारण के कारण साथ ही साथ प्रेम, दर्द, साकी-मीना कथ्यों वर्ण्य विषयों के कारण गज़ल विश्वभर के काव्य में प्रसिद्द हुई जन-जन में लोकप्रिय हुई |  ऐसा स्वतंत्र शे जो तन्हा हो यानी किसी नज़्म या ग़ज़ल या कसीदे या मसनवी का पार्ट हो ..उसे फर्द कहते हैं |


         गज़ल दर्दे-दिल की बात बयाँ करने का सबसे माकूल खुशनुमां अंदाज़ है | इसका शिल्प भी अनूठा है | नज़्म रुबाइयों से जुदा | इसीलिये विश्व भर में जन-सामान्य में प्रचलित हुई | हिन्दी काव्य-कला में इस प्रकार के शिल्प की विधा नहीं मिलती | हम लोग  हिन्दी फिल्मों के गीत सुनते हुए बड़े हुए हैं जिनमें वाद्य-इंस्ट्रूमेंटेशन की  सुविधा हेतु गज़ल नज़्म को भी गीत की भांति प्रस्तुत किया जाता रहा है | छंदों गीतों के साथ-साथ दोहा अगीत-छंद लिखते हुए गज़ल सुनते, पढते हुए मैंने यह अनुभव किया कि उर्दू शे भी संक्षिप्तता सटीक भाव-सम्प्रेषण में दोहे अगीत की भांति ही है और इसका शिल्प दोहे की भांति |


           गज़ल मूलतः अरबी भाषा का गीति-काव्य है जो काव्यात्मक अन्त्यानुप्रास युक्त छंद है और अरबी भाषा में कसीदा अर्थात प्रशस्ति-गान हेतु प्रयोग होता था जो राजा-महाराजाओं के लिए गाये जाते थे एवं असहनीय लंबे-लंबे वर्णन युक्त होते थे जिनमें औरतों औरतों के बारे में गुफ्तगू एक मूल विषय-भाग भी होता था | कसीदा के उसी भाग ताशिब को पृथक करके गज़ल का रूप नाम दिया गया |

           गज़ल शब्द अरबी रेगिस्तान में पाए जाने वाले एक छोटे, चंचल पशु हिरण ( या हिरणी, मृग-मृगी ) से लिया गया है जिसे अरबी मेंग़ज़ल (ghazal या guzal ) कहा जाता है | इसकी चमकदार, भोली-भाली नशीली आँखें, पतली लंबी टांगें, इधर-उधर उछल-उछल कर एक जगह टिकने वाली, नखरीली चाल के कारण उसकी तुलना अतिशय सौंदर्य के परकीया प्रतिमान वाली स्त्री से की जाती थी जैसे हिन्दी में मृगनयनी | अरबी लोग इसका शिकार बड़े शौक से करते थे | अतः अरब-कला प्रेम-काव्य में स्त्री-सौंदर्य, प्रेम, छलना, विरह-वियोगदर्द का प्रतिमान गज़ल के नाम से प्रचलित हुआ | यही गज़ल का अर्थ भी ..अर्थात इश्के-मजाज़ी - आशिक-माशूक वार्ता या प्रेम-गीत, जिनमें मूलतः विरह-वियोग की उच्चतर अभिव्यक्ति होती है | गज़ल ईरान होती हुई सारे विश्व में फ़ैली और जर्मन इंग्लिश में काफी लोक-प्रिय हुई | यथा.. अमेरिकी अंग्रेज़ी शायर ..आगा शाहिद अली कश्मीरी की  एक अंग्रेज़ी गज़ल का नमूना पेश है...
    
                    Where  are you  now? who lies  beneath  your spell  tonight ?

                          Whom   else   rapture’s   road  will   you  expel  to night ?

                          My   rivals   for  your love,  you  have  invited   them  all .

                          This  is  mere  insult ,  this   is  no  farewell   to night .


               गज़ल का मूल छंद शे या शेअर है | शेर वास्तव में दोहा का ही विकसित रूप है जो संक्षिप्तता में तीब्र सटीक भाव-सम्प्रेषण हेतु सर्वश्रेष्ठ छंद है | आजकल उसके अतुकांत रूप-भाव छंद ..अगीत, नव-अगीत त्रिपदा-अगीत भी प्रचलित हैं| अरबी, तुर्की फारसी में भी इसे दोहा ही कहा जाता है अंग्रेज़ी में कसीदा मोनो राइम( qasida mono rhyme)|  अतः जो दोहा में सिद्धहस्त है अगीत लिख सकता है वह शे भी लिख सकता है..गज़ल भी | शेरों की मालिका ही गज़ल है |


           भारत में शायरी गज़ल फारसी के साथ सूफी-संतों के प्रभाववश प्रचलित हुई जिसके छंद संस्कृत छंदों के समनुरूप होते हैं | फारसी में गज़ल के विषय रूप में सूफी प्रभाव से शब्द इश्के-मजाज़ी के होते हुए भी अर्थ रूप में इश्के हकीकी अर्थात ईश्वर-प्रेम, भक्ति, अध्यात्म, दर्शन आदि सम्मिलित होगये | फारसी से भारत में उर्दू में आने पर सामयिक राजभाषा के कारण विविध सामयिक विषय भारतीय प्रतीक कथ्य आने लगेउर्दू से हिन्दुस्तानी हिन्दी में आने पर गज़ल में वर्ण्य-विषयों का एक विराट संसार निर्मित हुआ और हर भारतीय भाषा में गज़ल कही जाने लगी | तदपि साकी, मीना सागर इश्के-मजाज़ी गजल का सदैव ही प्रिय विषय बना रहा | बकौल मिर्जा गालिव.... बनती नहीं है वादा सागर कहे बगैर


            यूं तो हिन्दी में ग़ज़ल कबीरदास जी द्वारा भी कही गयी बताई जाती है जिसे कतिपय विद्वानों द्वारा हिन्दी की सर्वप्रथम ग़ज़ल कहा जाता है, यथा....


             “ हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?

               रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?



               कबीरा इश्क का मारा, दुई को दूर कर दिल से,

               जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सर बोझ भारी क्या ?  “



परन्तु मेरे विचार से इस ग़ज़ल की भाषा कबीर की भाषा से मेल नहीं खाती | हो सकता है यह प्रक्षिप्त हो एवं कबीर नाम के किसी और गज़लकार ने इसे कहा हो|


         वास्तव में तो  हिन्दी में गज़ल का प्राम्म्भ आगरा में जन्मे पले शायर अमीर खुसरो (१२-१३ वीं शताब्दीसे हुआ जिसने सबसे पहले इस भाषा को हिन्दवी कहा और वही आगे चलकर हिन्दी कहलाई | खुसरो अपने ग़ज़लों के मिसरे का पहला भाग फारसी या उर्दू में दूसरा भाग हिन्दवी में कहते थे | उदाहरणार्थ... 



                     जेहाले  मिस्कीं  मकुल तगाफुल, दुराये नैना बनाए बतियाँ |

                       कि ताब--हिजां, दारम--जाँ, लेहु काहे लगाय छतियाँ |”   


१७ वीं सदी में उर्दू के पहले शायर वली ने भी हिन्दी को अपनाया देवनागरी लिपि का प्रयोग किया | ..यथा....                                    

                        सजन  सुख सेती  खोलो  नकाब आहिस्ता-आहिस्ता |

                         कि ज्यों गुल से निकलता है गुलाव आहिस्ता-आहिस्ता | “   


              सदियों तक गज़ल राजा-नबावों के दरबारों में सिर्फ इश्किया मानसिक विचार बनी रही जिसे उच्च कोटि की कला माना जाता रहा | परन्तु १८ वीं  सदी में आगरा के नजीर अकबरावादी  ने शायरी को सामान्य जन से जोड़ा और १९ वीं सदी के प्रारम्भ में मिर्ज़ा गालिव ने मानवीय जीवन के गीतों से | उदाहरणार्थ.....


           जब फागुन रंग झलकते हों, तब देख बहारें होली की |

            परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की |”  --नजीर अकबरावादी .

    तथा....  

             गालिव बुरा मान जो वाइज़ बुरा कहे ,

             ऐसा भी है कोई कि सब अच्छा कहें जिसे |”..... गालिव ...


                   १८ वीं सदी में हिन्दी में गज़ल की पहल में भारतेंदु हरिश्चंद्र, निराला, जयशंकर प्रसाद आदि ने सरोकारों की अभिव्यक्ति लोक-चेतना के स्वर दिए..यथा निराला ने कहा...


          लोक में बंट जाय जो पूंजी तुम्हारे दिल में है   


त्रिलोचन, शमशेर, बलबीर सिंह रंग ने भी हिन्दी ग़ज़लों को आयाम दिए | परन्तु आधुनिक खड़ी बोली में हिन्दी-गज़ल के प्रारम्भ का श्रेय दुष्यंत कुमार को दिया जाता है जिन्होंने हिन्दी भाषा में गज़लें लिख कर गज़ल के विषय भावों को राजनैतिक , संवेदना, व्यवस्था, सामाजिक चेतना आदि के नए नए आयाम दिए और आज गज़ल हिन्दी -गज़ल के विषयों का एक विराट रचना संसार है | दुष्यंत कुमार की एक गज़ल देखिये....


           दोस्तों अब मंच पर सुविधा नहीं है,

           आजकल  नेपथ्य में संभावना है |”



                जब मैंने विभिन्न शायरों की शायरीगज़लें नज्में आदि  सुनी-पढीं देखीं विशेषतया गज़ल...जो विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया, बिना रदीफ, वज्न आदि का उठना गिरना आदि ... विशेषतया गज़ल...जो विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया, बिना रदीफ, वज्न आदि का उठना गिरना आदि ...तो मुझे ख्याल आया कि बहरों-नियमों आदि के पीछे भागना व्यर्थ है, बस लय गति से गाते चलिए, गुनगुनाते चलिए गज़ल बनती चली जायगी, जो कभी मुरद्दस गज़ल होगी या मुसल्सल  या हम रदीफ,  कभी मुकद्दस गज़ल होगी या कभी मुकफ्फा गज़ल , कुछ फिसलती गज़लें होंगी कुछ भटकती ग़ज़ल, हाँ लय गति यति युक्त गेयता व भाव-सम्प्रेषण तथा सामाजिक-सरोकार युक्त होना चाहिए और आपके पास भाषा, भाव, विषय-ज्ञान कथ्य-शक्ति होना  चाहिएयह बात गणबद्ध छंदों के लिए भी सच है | तो कुछ शे आदि जेहन में यूं चले आये.....
             मतला बगैर हो गज़ल, हो रदीफ भी नहीं,

             यह तो गज़ल नहीं, ये कोइ वाकया नहीं |



             लय गति हो ताल सुर सुगम, आनंद रस बहे,

             वह भी गज़ल है, चाहे  कोई काफिया नहीं | “