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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ ......अंक १ ....डा श्याम गुप्त ...

                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


                                          ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ   

                     विश्व के प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ ज्ञान के भण्डार 'वेद' , जिनके बारे में कथन है कि जो कुछ भी कहीं है वह वेदों में है और जो वेदों में नहीं है वह कहीं नहीं , के ज्ञान ...परा व अपरा विद्या के आधार उपनिषद् हैं जो भारतीय मनीषा, ज्ञान, विद्या , संस्कृति  व आचरण-व्यवहार के आधार तत्व हैं | उपनिषद् भवन की आधार शिला  'ईशोपनिषद ' है जिसमें समस्त वेदों व उपनिषद् शिक्षा का सार है |  ईशोपनिषद यजुर्वेद का चालीसवां  अध्याय  है जो परा व अपरा ब्रह्म-विद्या का मूल है अन्य सभी  उपनिषद् उसी का विस्तार हैं |
                      वेदों के मन्त्रों का भाव  मूलतः दो रूपों  में प्राप्त होता है ...१. उपदेश रूप में --जहाँ मानव अपने कर्म में स्वतंत्र है वह उपदेश उस रूप में ग्रहण करे न करे...२. नियम रूप में -- जो प्राकृतिक नियम रूप हैं एवं अनुल्लंघनीय हैं |  ईशोपनिषद में ईश्वर, जीव, संसार, कर्म, कर्त्तव्य, धर्म , सत्य, व्यवहार एवं उनका तादाम्य 18 मन्त्रों में देदिया गया है, जो आज भी प्रासंगिक हैं , समीचीन हैं एवं अनुकरणीय व पालनीय  हैं |  इसकी सैकड़ों टीकाएँ --- विधर्मी दाराशिकोह, जिसे इसके अध्ययन के बाद ही शान्ति मिली  द्वारा फारसी में.... जर्मन विद्वान्  शोपेन्हावर को अपनी  प्रसिद्ध  फिलासफी त्याग कर इसी से संतुष्टि प्राप्त हुई|  शंकराचार्य की अद्वैतपरक...रामानुजाचार्य की विशिष्टाद्वेतपरक एवं माधवाचार्य की द्वैतपरक टीकाएँ इस उपनिषद् की  महत्ता का वर्णन करती हैं |
                       ईशोपनिषद के 18 मन्त्रों में चार भागों में सबकुछ कह दिया गया है |  ये हैं--
प्रथम भाग...मन्त्र १ से ३ .... मानव जीवन के मूल कर्त्तव्य ..
द्वितीय भाग....मन्त्र ४ से ८....ब्रह्म विद्या मूलक सिद्धांत व ईश्वर के गुण व ईश्वर क्यों ...
तृतीय भाग....मन्त्र ९ से १४ ....ज्ञान-अज्ञान, यम-नियम , मानव के कर्त्तव्य , विद्या-अविद्या, संसार             ब्रह्म-विद्या प्राप्ति, प्रकृति, कार्य-कारण , मृत्यु -अमरत्व ....आत्मा-शरीर,
चतुर्थ भाग ..... मन्त्र १५  से 18.....सत्य, धर्म, कर्म, ईश्वर -जीव का मिलन , आत्मा-शरीर का अंतिम परिणाम |

                                                        भाग एक

ईशावास्यं इदं सर्वं यत्किंच जगात्याम् जगत|
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधःकस्यस्विद्धनम || १....
                  इस जगत में अर्थात पृथ्वी पर, संसार में जो कुछ भी चल-अचल , स्थावर , जंगम , प्राणी आदि  वस्तु है वह ईश्वर की माया से आच्छादित है अर्थात उसके अनुशासन से नियमित है |  उन सभी पदार्थों को त्याग से अर्थात सिर्फ उपयोगार्थ दिए हुए समझकर उपयोग रूप में ही भोगना चाहिए , क्योंकि यह धन किसी का भी नहीं हुआ है अतः किसी प्रकार के भी  धन व अन्य के स्वत्व-स्वामित्व  का लालच व ग्रहण नहीं करना चाहिए |

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समाः |
एवंत्वयि नान्यथेतो sति न कर्म लिप्यते नरः ||..२..
                     यहाँ मानव कर्मों को करते हुए १०० वर्ष जीने की इच्छा करे, अर्थात कर्म के बिना, श्रम के बिना जीने की इच्छा व्यर्थ है |  कर्म करने से अन्य  जीने का कोई भी  उचित मार्ग नहीं है क्योंकि इस प्रकार उद्देश्यपूर्ण, ईश्वर का ही सबकुछ मानकर, इन्द्रियों को वश में रखकर आत्मा की आवाज़ के अनुसार   जीवन जीने से मनुष्य कर्मों में लिप्त नहीं होता.... अर्थात अनुचित कर्मों में,  ममत्व में लिप्त नहीं होता ,अपना-तेरा, सांसारिक द्वंद्व  दुष्कर्म, विकर्म आदि उससे लिप्त नहीं  होते |

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता |
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ||-३ ...
                     जो आत्मा के घातक अर्थात ईश्वर आधारित व आत्मा के विरुद्ध , केवल शरीर व इन्द्रियों आदि की शक्ति व इच्छानुसार  सद्विवेकआदि की उपेक्षा करके कर्म ( या अपकर्म आदि ) करते हैं वे अन्धकार मय लोकों में पड़ते हैं अर्थात विभिन्न कष्टों, मानसिक कष्टों, सांसारिक द्वेष-द्वंद्व रूपी यातनाओं में फंसते हैं |

                   निश्चय ही मानव का आत्म... स्वयं शक्ति का केंद्र है उस शक्ति के अनुसार चलना, मन वाणी शरीर से कर्म करना  ही उचित है यही आस्तिकता है, ईश्वर-भक्ति है ,अन्य  कोई मार्ग नहीं है|  इस ईश्वर .. श्रेष्ठ -इच्छा एवं  आत्म-शक्ति से ही समस्त विश्व संचालित है, आच्छादित है , अनुशासित है ..
                                          तू ही तू है , 
                                         सब कहीं है |
  सब वस्तु ईश्वर की न मानना अर्थात धन एवं अपने स्वत्व को ईश्वर से पृथक मानना.. मैं ,ममत्व..ममता, मैं -तू का द्वैत  ही समस्त दुखों, द्वंद्वों, घृणा आदि का मूल है| ...
                               सब कुछ ईश्वर के ऊपर  छोडो यारो ,
                              अच्छे कर्मों का फल है अच्छा  ही होता |


 कर्म- संसार का अटूट नियम है  ..जगत में कोई भी वस्तु क्रिया रहित नहीं होती , अतः कर्मनिष्ठ होना ही मानव की नियति है | परन्तु  जो लोग अपनी आत्मा( सेल्फ कोंशियस )  के विपरीत, मूल नियम के विरुद्ध, ईश्वरीय नियम के विरुद्ध अर्थात प्रतिकूल कर्म  करते हैं वे विविध कष्टों को प्राप्त होते हैं|
 
                              "" मिलता तुझको वही सदा जो तू बोता है |""
   यही आत्मप्रेरणा  से चरित्र निर्माण का मार्ग है |

                                                    क्रमश ......     भाग दो ...