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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

आखिर कौन हैं हम....डा श्याम गुप्त

                                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...




                                                                                                                   
                       आखिर कौन हैं हम....
               जब भी मैं हरप्पा, सिन्धु/सरस्वती सभ्यता के विवरण पढ़ता हूँ | उस सभ्यता की रहन-सहन, विकासात्मक विवरण, प्राप्त वर्तन, आभूषण, नगरों के स्थापत्य पर विचार करता हूँ तो मुझे लगता है कि यह सब तो भारत में आज भी हैं| बचपन में हम भी मिट्टी –पत्थर के वर्तन प्रयोग में लाते थे, मिट्टी की गाड़ी, खेल खिलौने | कुल्ल्हड़, सकोरे तो अभी तक प्रयोग में हैं,  दीप दिवाली के, लक्ष्मी-गणेश मिट्टी के आदि |  देश में उत्तर से दक्षिण तक, पूर्व से पश्चिम तक आचरण, व्यवहार, रीति-रिवाज़, रहन-सहन, रंग-रूप, वेद-पुराण-शास्त्र, देवी-देवता, पूजा-अर्चना, राम, कृष्ण, शिव, देवी, दुर्गा आदि के एकत्व पर गहराई से विचार करता हूँ तो मुझे संदेह होता है कि हम सब भारतीय सुर हैं या असुर, आर्य हैं या अनार्य ?
         सारे भारत में आचार व्यवहार, आचरण, उठना-बैठना, ओढ़ना पहनना, विविध रीति-रिवाज़  आज भी मौजूद वैदिक कालीन झौंपडियों से लेकर पक्के मकान, अट्टालिकाओं तक, पौराणिक सुर-इन्द्रलोक, देवलोक अधिभौतिक व अध्यात्मिक उपस्थिति एवं उच्चतर भौतिक आसुरी प्रवृत्ति ....सभी कुछ गद्दमड्ड ....आखिर कौन हैं हम सब ? तुलसीदास कह गए हैं कि --
“हरित भूमि तृण संकुलि समुझि परहि नहिं पंथ |
जिमि पाखण्ड विवाद तें लुप्त होंहि सदग्रंथ | “
       पुरस्कार लौटाना, पूजा अर्चना पर विवाद, असहिष्णुता विवाद, धार्मिक, पूजा-पाठ मत-मतान्तर विवाद, राजनैतिक विवाद, उत्तर-दक्षिण, आर्य-अनार्य, सुर-असुर विवाद आदि सब यही तो पाखण्ड विवाद है जिनके कारण यह भ्रमात्मक स्थितियां उत्पन्न होती हैं |
       आदितम साहित्य ऋग्वेद में यम-यमी प्रकरण में यमी द्वारा यम से सान्निध्य निवेदन पर यम का कथन---न ते सखा सख्यं वष्टयेतत्सलक्ष्माय द्वि पुरुषा भवेत् |
                 महिष्णुमासो असुरस्य वीरा दिविध्वरि उर्विया परिख्यनि ||(१०/१०/८८६७)
   --हे यमी हम भाई-बहन हैं अतः आप असुरों के वीर पुत्रों( अन्य शक्ति संपन्न व्यक्तियों ) से जो सर्वत्र विचरण करते है संपर्क करें |..अर्थात सुर-असुरों में व्यवहारगत कोइ अंतर नहीं था| सभी एक ही समाज के लोग थे|
अनाचरण रत सरयू पार के आर्य राजाओं को भी इंद्र ने तत्काल मार दिया | सुदास का दस वर्षीय युद्ध भी आर्यों-आर्यों में ही था | यहाँ तक कि कृष्ण को भी ऋग्वेद में कृष्णासुर कहा गया है ...अव दृप्शो अन्शुमतीस तिष्ठ: दियान: कृष्णो दशभि सहस्त्रै |
    आवत्तमिन्द्र: शच्याध्मंतमय स्नेह्तीर्णनृमणा अघंत || (५/३३ ) 
---त्वरित, गतिशील व अन्शुमती ( यमुना) के तट पर विद्यमान मनुष्यों को आकर्षित करने में सक्षम दश सहस्र सेना सहित, कृष्णासुर को इन्द्रदेव ने प्रत्याक्रमण करके पराजित किया | हो सकता है कि कृष्ण व इंद्र, कृषक एवं अन्य श्रेष्ठ-देवीय समाज के पदेन नेतृत्वकर्ता हों | महर्षि कश्यप पुत्र देव-दनुज, ऋषिपुत्र राक्षसराज रावण, हिरण्यकश्यपु पुत्र विष्णु भक्त प्रहलाद व इंद्र पदवी धारक दानवाधिपति राजा बलि—जिसका नाम आज भी कथा-पूजन आदि में..’येन बद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो महावली ...’ कह कर समस्त भारत में लिया जाता है जो सुर-असुरों के अंतिम समन्वय के साक्षी बने | बलि का पाताल भेजना, अमेरिका को निष्क्रमण ही है, जिसके प्रपोत्र वाणासुर की पुत्री उषा का विवाह श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध से जगविदित घटनाक्रम है | अर्जुन पत्नी नागकन्या उलूपी, भीम पत्नी राक्षसी हिडिम्बा, कैकयकुमारी अयोध्या की रानी, सुदूर कूचबिहार की पुत्री जयपुर की महारानी |
        यहाँ तक कि पाश्चात्य जगत में, विश्व भर में, अफ्रीका में, पाताल लोक अमेरिका में सभी स्थानों, देशों संस्कृतियों में शिव एवं शिवलिंग की उपस्थिति, अमेरिका एवं अफ्रीका व चीन, अरब में शिवलिंग की उपष्थिति, शक्ति व योनि पूजा, विभिन्न नामांतरों से मनु- नूह-नोआ, जलप्रलय जैसी एतिहासिक घटनाएँ, ऋषियों, मुनियों, देवों,स्थानों के भारतीय पौराणिक नाम, पुरा साहित्य व भाषाओं की आदि-भाषा संस्कृत से समानता आदि पर गहनता से विचार करने पर सर्वविश्वीय एकात्मकता का बोध होता है |
     
       वस्तुतः हम सब भारतीय एक ही मूल मानव समाज की इकाइयां हैं | भारत में नर्मदा घाटी में एवं मानसरोवर क्षेत्र में उत्पन्न व सप्तसिंधु- सरस्वती क्षेत्र में विक्सित व उन्नत मानव, दक्षिण के देवता शिव जो महासमन्वयक की भूमिका में थे और देवाधिदेव कहलाये एवं उत्तर के इंद्र-विष्णु आदि देवों द्वारा समन्वय करके एक अनन्यतम व श्रेष्ठतम संस्कृति का निर्माण किया जो सनातन संस्कृति कहलाई | जिसके साथ मानव सुदूर भागों में समस्त विश्व में फैले एवं अपने मूल स्थान से दूर होते हुए देश, काल, जलवायु, परिष्थिति के अनुसार आचार व्यवहार में परिवर्तन होते गए | तदुपरांत राजनीतिक विकास, जन्संख्यावर्धन, विचारगत भिन्नताओं, कौटुम्बिक-कबीलाई मतभेद व श्रेष्ठता मापदंड, विवेक- आचरणगत शुचिता के अनुसार सुर-असुर, आर्य-अनार्य आदि श्रेणियां बनी एवं बाद में वर्ग व जातियां |  
       आखिर कौन हैं हम ...हम क्या समस्त विश्व ही –
‘हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा  एवं ...
‘हमारी जन्म भूमि है यहीं, कहीं से हम थे आये नहीं |’ ..तो क्या मतभिन्नता, क्या मत-मतान्तर, धर्मान्तर, क्या सुर-असुर, क्या आर्य-अनार्य, क्या उत्तर-दक्षिण क्या जाति-प्रजाति ...
हम एक थे, एक हैं एक ही रहेंगे |
मध्य अमेरिका के द लॉस्ट सिटी ऑफ़ मंकी गॉड में गदा सहित हनुमान एवं नीचे उनकी गदा


६००० वर्ष प्राचीन शिवलिंग--अफ्रीका 
अफगान शासक द्वारा पूजित विष्णु

1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (19-12-2015) को "सुबह का इंतज़ार" (चर्चा अंक-2195) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'