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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

फिर उठी बात गीतों की --- सुषमा गुप्ता.----

                                 ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ... 

   -फिर उठी बात गीतों की --- सुषमा गुप्ता.----


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             -डा श्याम गुप्त के  -गीत संग्रह ---"तुम तुम और तुम "में लिखा गया प्राक्कथन ---

                

----------- काव्य में सदैव नवीनता व सत्य के आग्रही डा श्यामगुप्त द्वारा सृजित कृतियों में सर्वदा एक अपनी विशिष्टता होती है | कृति-विषय एक विशिष्ट तारतम्यता लिए हुए होते हैं एवं प्रत्येक बार एक नवीनता लिए हुए |
---------उनके कृति-विषय मूलतः लौकिक तथ्य से होते हुए आध्यात्मिक स्तर पर उठते हुए पारलौकिकता तक पहुँचते हैं| वे मूलतः प्रेम के कवि हैं, साहित्यकार हैं| प्रेम उनके लिए संसार है, जीवन है, स्वांस हैं, उच्छवास है, सामाजिकता है , ईश्वर है, उनका प्रेम-रथ लौकिकता से होते हुए दिव्यता, दर्शन व अध्यात्म तक प्रयाण करता है,
-------------यथा प्रथम कृति ---‘काव्यदूत----‘ बालमन की स्मृतियों से कैशोर्य, युवावस्था, गृहस्थ, प्रौढावस्था की जीवन भंगिमाओं की कविताओं-गीतों से होते हुए दर्शन, अध्यात्म, पारलौकिकता से मुक्ति, मोक्ष तक की ऊंचाई तक जाते है |
------काव्य की विभिन्न विधाओं में रचित महाकाव्य ---प्रेमकाव्य---- में प्रेम के सभी रूपों का सांगोपांग वर्णन करते हुए उनका काव्य, लोक से होकर जीवन, दर्शन, अध्यात्म से मोक्षदा एकादश तक प्रयाण करता हुआ वेदान्त के अनुसार प्रेम के मूल “ मा विदिष्वावहै” तक जाता है |
---सृष्टि-महाकाव्य---- तो दर्शन, आधुनिक विज्ञान, वैदिक ज्ञान-विज्ञान, जीवन मूल्य व आदर्शों की समन्वित गाथा ही है | ----शूर्पणखा काव्य-उपन्यास---- में खलनायिका को चारित्रिक बुराइयों से नारी चरित्र की मानसिक भावभूमि की ऊंचाइयों तक पहुंचाया गया है| -----उपन्यास इन्द्रधनुष में----- नायक-नायिका प्रेम व आदर्श एवं स्त्री-पुरुष मैत्री के आध्यात्मिक व दार्शनिकता एवं निष्कामता के उच्च स्तर तक पहुँचते हैं|
--------हम दोनों द्वारा सम्मिलित रूप से रचित प्रथम कृति, ब्रजभाषा काव्य, ‘-----ब्रजबांसुरी----’ के १८ अध्याय, गीता के १८ अध्याय व ईशोपनिषद के १८ मन्त्रों से तादाम्य करते हैं|
----‘कुछ शायरी की बात होजाये’---- में भी दिल की बात से लेकर शब्द-ब्रह्म होते हुए ग़ज़ल व शायरी के भाव ‘वो कौन है’ व ‘नाद-अनाहत’ तक जाते हैं|
--------------------- नवीनता की बात करें तो सृष्टि-महाकाव्य में दुष्टजनों एवं तमाम अमूर्त भावों, अपरामाया, चिदाकाश, त्रिदेव, शास्त्र आदि की वन्दना करते हुए दिखाई देते हैं| प्रेमकाव्य में अध्यायों को सुमनांजलि एवं ब्रजबांसुरी में भाव-अरपन एवं उप-विषयों को सुमन आदि नए नाम से संबोधित करते हैं| शूर्पणखा खंडकाव्य को काव्य-उपन्यास का नवीन नाम दिया गया है |
-----काव्यजगत में बहुचर्चित, नकारात्मक व सकारात्मक दोनों रूपों में ही बहु-आलोचित अगीत-कविता को स्थिरता प्रदान हेतु आपने अगीत महाकाव्य, खंडकाव्य सृजन के साथ साथ ‘अगीत साहित्य दर्पण’ नाम से अगीत छंद-विधान का शास्त्रीय ग्रन्थ ही लिख डाला जो हिन्दी कविता में एक मील का पत्थर है |
------- ड़ा श्याम गुप्त द्वारा रचित प्रेम व श्रृंगार गीतों का प्रस्तुत संग्रह ----‘तुम तुम और तुम’---- इसी श्रृंखला की अगली कड़ी है | प्रस्तुत कृति में प्रेम व श्रृंगार के संयोग, वियोग भावों के साथ-साथ प्रेम, प्रेमी व प्रेमिका की विभिन्न मनोदशाएँ, स्मृतियां, भावों के संगम, अंतर्मन की संवेदनाओं का गीतों द्वारा सांगोपांग वर्णन किया गया है |
----- मानव वय की विविध अवस्थाओं के विभिन्न सोपानों बालमन, कैशोर्य, युवा व प्रौढ़ मन के, जीवन की विभिन्न परिस्थितियों, स्थितियों, घटनाओं, गार्हस्थ्य भावनाओं आदि के सभी रूमानी, रूहानी भाव, तात्विक प्रेमभाव, मनोभावों की सरस, सरल अभिव्यक्ति है|
-----वस्तुतः यह जीवन का काव्य है जिसमें प्रेम व श्रृंगार गीत होते हुए भी सदैव की भाँति लौकिकता के साथ अध्यात्म, दर्शन व जीवन तत्व-दर्शन की गहनता भी सर्वत्र बिखरी हुई है|
------------- जहां तक गीतों की बात है, आधुनिक युग में पारंपरिक गीतों पर प्रश्न चिन्ह लगाए जाते रहे हैं परन्तु प्रश्न उठाने वाले भूल जाते हैं कि प्रेम, श्रृंगार, भक्ति, पीड़ा आदि भाव मानव की मूलवृत्ति हैं
----प्रकृति में जब तक सौंदर्य है, नदियों में प्रवाह है, पक्षियों, पशु, बादलों, झरनों व जीवन-जगत में संवेदना का प्रवाह है, तब तक पारंपरिक गीतों का अस्तित्व रहेगा। भक्त कवियों ने आम जनता के भावों को वाणी दी।
-----यही कारण है कि कबीर रैदास, सूर, मीरा एवं तुलसी के भक्तिपरक गीत, बुल्लेशाह, बिहारी , रहीम के श्रृंगारपरक काव्य जिनमे प्रेम व आत्मिक श्रृंगार की झलक सर्वत्र विद्यमान है आज भी लोक जनमानस में समादृत हैं।

---------------------------भारतवर्ष में कजरी, होली, चैती, बिरहा आदि हिन्दी भाषी क्षेत्रों के प्रमुख प्रेम व श्रृंगार के लोकगीत हैं। सदियों से ये ग्रामगीत श्रुति परम्परा से एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को अवदान के रूप में मिलते गए हैं।
-----आज भी न तो इन गीतों के शब्दों एवं भावों में कोई विशेष परिवर्तन हुआ है और न ही इनकी गायन शैली में। ये गीत पारम्परिक धरोहर हैं जो भारतीय समाज व मानव-मन के कण्ठहार हैं।
-----कल भी ये गीत अपने इसी सहज रूप में भी बने रहेंगे। इनकी लोकप्रियता का एक महत्वपूर्ण कारण प्रेम अभिव्यक्ति के साथ साथ इनका गीत-तत्व भी रहा है।
--------------------- मेरे विचार में जहाँ तक प्रेम व श्रृंगार की बात है तो साहित्य मर्यादित श्रृंगार का पोषक होना चाहिए | श्रृंगार केवल मांसलता नहीं है अपितु हृदयाकाश की गहराइयों में उत्पन्न भावनाएं व विहरित सौन्दर्यमय अनुभूतियाँ हैं |
---- श्रृंगारिक रचना में नायिका द्वारा घरेलू वर्णन, लरिका, बिटिया, टूटी छान-छप्पर- मढैया आदि संवेदना का गीत तो हो सकता है परन्तु रसमयता व श्रृंगार नहीं | अत्यधिक खुलापन भी मर्यादाविहीन व असाहित्यिक प्रतीत होता है एवं श्रृंगार का आनंद भी तिरोहित ही रहता है |
-----श्रृंगार में शब्दावली, तथ्य, कथ्य इस प्रकार प्रस्तुत हों कि श्रृंगार का आनंद भी मिले एवं खुलापन भी न हो, न इतनी क्लिष्ट शब्दावली कि श्रृंगार का पता ही न चले | प्रस्तुत कृति में रचनाकार द्वारा इस तथ्य का यथासंभव सर्वत्र ध्यान रखने का प्रयास किया गया है |

----------------------- तकनीकी दुनिया, कम्प्यूटर, इंटरनेट, टेलीफोन, मोबाइल आदि के व्यवहार में आनेवाली शब्दावलियों के प्रयोग से गीत की रागात्मक कोमलता और संगीतात्मक तरलता की काफी क्षति हुई है |
----आज नयी कविता में ग्राम्य-जीवन, मजदूर, किसान, शोषण, दमन, बाजारवाद, भूमंडलीकरण, आर्थिक उदारीकरण, उपभोक्तावाद, सांप्रदायिकता-विरोध, आतंकवाद-विरोध, दलित चेतना, स्त्री-विमर्श, शासन विरोध, दिन-प्रतिदिन के सामायिक घटना-तत्वों-समाचारों के वर्णन, व्यक्तिगत दुखानुभूतियाँ जैसी तमाम समस्याओं की जटिल अनुभूतियों की अत्याधिक अभिव्यक्ति के कारण कविता से आज भावुक मन की अभिव्यक्ति या गाने गुनगुनाने की सौन्दर्यमय भावना की तरलता अंतर्धान होगई है जो पारंपरिक प्रेमगीतों, श्रृंगार-गीतों के रूप में मानव के मानसिक विश्रांति, सामाजिक श्रान्ति का उपाख्यान रूप थीं |
----------मेरा विश्वास है कि प्रस्तुत कृति इस शाश्वत गीत भावों की कमी को पूरा करने हेतु एक सक्षम प्रयास सिद्ध होगी |
                                                                                                              ---सुषमा गुप्ता




 

सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

बात गीतों की----- भाग चार --अंतिम क़िस्त---डा श्याम गुप्त

                                ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


--------- बात गीतों की----- भाग चार --अंतिम क़िस्त ------




-------------- आज यदि हम किसी पत्रिका या पत्र या अंतरजाल पत्रिकाओं या अंतरजाल पर चिट्ठों ( ब्लोग्स-आदि ) को उठाकर देखें तो विविध रूप में कविताओं आदि के साथ-साथ गीत अपने विविध रूप रंगों यथा - प्राचीन गीत, आधुनिक गीत, वैयक्तिक गीत, राष्ट्रीय गीत, श्रृंगार गीत, प्रगतिवादी गीत, नवगीत, अगीत, प्रचार गीत, लोक शैली के गीत एवं ग़ज़ल गीत, गीतिका आदि में अपनी छटा विखेरता हुआ मिलता है |
-------------------अंतरिक्ष यात्रियों, वैज्ञानिकों द्वारा बादलों की रंगीनी, नक्षत्रों के सौन्दर्य का रागात्मक वर्णन इसी काव्यानंद, गीत-भाव को प्रदर्शित करता है जिसके बिना मानव जीवन अपंग है |
------अर्थात वैज्ञानिक बुद्धिवाद, गद्य का अपरम्पार प्रयोग भी उल्लास के भावनात्मक क्षणों को नहीं रोक पाता जब मानव मन में नभ में छिटके हुए तारों को, खिले हुए पुष्पों देखकर गीतात्मकता का भाव उत्पन्न होता है |
----- उल्लास का वही क्षण उसे पुष्प के तात्विक विवेचन की शक्ति देता है अन्यथा विश्लेष्य, विश्लेषण व विश्लेषक सभी इतने यांत्रिक होजायं कि मानव मन उसे समन्वित ही न कर पाय |
------गीत में भाव, शब्द, तन्मयता आदि विशेषताएं भिन्न भिन्न होते हुए भी एक लय से जुडी रहती हैं | गीत के प्रति आकर्षण के मूल में संभवतया यही सहज सम्प्रेषणीयता है |
------------------------यही कारण है कि अनेक अवरोधों के बाद भी गीत आज तक अपनी चमक दिखा रहा है| गीत का श्रृंगार है-शालीनता और संक्षिप्तता | लय आधारित होना अथवा संगीतमय लोकगीतों का ध्रुवपद पर आधारित होना गीत की विशेषता है जो इसे गीत बनाती है| गीत जो मृत्युंजय है, कालजयी है |

---------------------जहां तक पारंपरिक गीतों में एवं श्रृंगार व प्रेम की बात है| गीतों के मूल में पराविद्या की अपार्थिवता, वेदान्त के अद्वैत, लौकिक प्रेम की तीब्रता, कबीर का सांकेतिक द्वैत दाम्पत्य सूत्रभाव एवं निराला का स्नेह का सम्बन्ध समायोजित रहता है |
-------------- आदि-सृष्टि की रचना भी तो उस परमतत्व के आदि-प्रेम भाव, आदि-इच्छा, ईषत इच्छा का सौन्दर्यमय श्रृंगारसिक्त प्राकट्य से उद्भूत प्रकृति-गीत ही है| प्रेम से ही तो पृथ्वी पर जीवन-स्पंदन है, जीवन-क्रंदन है | प्रेम ही वह तत्व है जिससे मानव दिव्य होजाता है| इस दिव्यता का सरित-प्रवाह लोक से होकर ही जाता है जो सहज, सरल एवं ऋजु जीवन मार्ग है, छल कपट अहं का त्याग एवं सरल ह्रदय युत | घनानंद के शब्दों में ---
अति सूधो सनेह कौ मारग है, जहां नैकु सयानप बांक नहीं |
जहां सांचे चलें तजि आपुनपौ, झिझकें कपटी जो निसाँक नहीं ||

-------------------प्रेम व श्रृंगार जीवन का उत्स है सम्पूर्णता है जीवन का संगीत है, जीवन का जीवन है जिसकी आराधना हर गीतकार करता है|
----- प्रीति-स्मृतियाँ कोमलतम व सुन्दरतम अनुभूतियां होती हैं, चाहे बालमन की हों या कैशोर्य की या युवा मन की, सखा-सखी या प्रेमी-प्रेमिका या साथी-संगिनी की|
-----कवि मन तो कभी वृद्ध होता ही नहीं | स्मृतियाँ चाहे पल भर के संयोग की मिलन की हों या विरह की या सतत सान्निध्य की, कवि उनमे विविध विम्ब, कल्पनाएँ उकेर कर रंग भरता है, उन्हें घटनाक्रम देता है|
-------------------गीतों में प्रेम या श्रृंगार, मांसल-सौन्दर्य की व्याख्या नहीं अपितु आत्मिक सौदर्य के निर्मल सरोवर में खिलते हुए शतदल की शोभा को निरखते-परखते-सराहते काव्यानंद रूपी आत्मानंद से परमात्मानंद तक की यात्रा होती है, सत्य-शिव-सुन्दर रूप में काव्य-सृजन का पथ होता है |
------अतःगीतों में मर्यादित श्रृंगार ही श्रृंगार है अन्यथा वह अश्लीलता बन जाता है | प्रेम व श्रृंगारिक रचना सरल, सरस व अर्थ गाम्भीर्य के साथ गहन तत्वार्थ लिए हुए, क्लिष्ट शब्दों-भावों से दूर अभिधात्मक होनी चाहिए|
----- श्रृंगार गीत रचना नारी रूप-सौन्दर्य की भाँति है अर्थात शब्दावली, तथ्य, कथ्य इस प्रकार होने चाहिए कि श्रृंगार का आनंद भी मिले एवं खुलापन भी न रहे| ....यथा महाकवि बिहारी दास के शब्दों में ---
“कवि आखर अरु तिय सेकून, अध उघरे सुख देत,
अधिक ढके तो सुख नहीं, उघरे महा अहेत | “

---------------- उषा का युवती रूप सौन्दर्य, अगस्त्य–लोपामुद्रा, यम-यमी, उर्वशी-पुरुरवा के वैदिक गीतों से वाल्मीकि एवं कालिदास से होते हुए विद्यापति, केशव, विहारी दास, रहीम, तुलसी, सूर, मीरा, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद आदि से गुजरते हुये आधुनिक हिन्दी गीत में प्रेम के संयोग व वियोग के सभी भावों–पक्षों के गीतों एवं श्रृंगार रचनाओं-गीतों की लम्बी परम्परा है | ऋग्वेद में ऋषि वामदेव का कथ्य श्रृंगार का अनुपम उदाहरण है –
“कन्येव तन्वा शाश्दानां ऐषि देवि देवप्रिय क्षमांणम |
संस्मयमाना युवतिः पुरस्तादार्विवक्षांसि कृणुते विभाति |

---- वह (उषा देवि) कमनीय कन्या के समान सज्जित वेश में देवों के प्रिय देव, अभिमत फलदाता सूर्य के निकट जाती है और यह मंद मंद मुस्कुराती हुई युवती उसके समक्ष अपने वक्ष प्रदेश को अनावृत्त कर देती है |

---------------- प्रेम के दो अक्षर अथवा कबीर की भाषा में ढाई आखर अपने अन्दर से असीम प्रभा उद्भासित करते हैं और श्रृंगार उस प्रभा की लौकिक अभिव्यक्ति है जो सर्वाधिक प्रभावी ढंग से गीतों में उद्भूत होती है | प्रेमगीत- जिसे हर अणु, जड़, जंगम या जीव, हर मानव ह्रदय गुनुगुनाता है | बस कवि उन्हें कागज़ पर उतारने का प्रयत्न करता है |
                                            -------इति-------- बात गीतों की -----



 

रविवार, 26 फ़रवरी 2017

मेरी सद्यप्रकाशित प्रेम व श्रृंगार गीत संग्रह---डा श्याम गुप्त ---

                               ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ... 



                           मेरी सद्यप्रकाशित प्रेम व श्रृंगार गीत संग्रह ----प्रस्तुत कृति में जीवन के विविध भाव-क्षणों में प्रेम एवं श्रृंगार के विभिन्न पक्षों का विविध रूपों में काव्य-भावों के रूप में चित्रण प्रस्तुत किया गया है -----








 

मेरी सद्य प्रकाशित आध्यात्मिक कृति--"ईशोपनिषद का काव्य भावानुवाद---डा श्याम गुप्त

                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


मेरी सद्य प्रकाशित आध्यात्मिक कृति--"ईशोपनिषद का काव्य भावानुवाद---डा श्याम गुप्त -----

----------------मेरी सद्य प्रकाशित आध्यात्मिक कृति--"ईशोपनिषद का काव्य भावानुवाद ----इस कृति में ईशोपनिषद जो यजुर्वेद का चालीसवां अध्याय है जिसमें उपनिषदकार ने १८ मन्त्रों में , मानव आचरण व व्यवहार हेतु भारतीय, वैदिक ज्ञान एवं जीवन व्यवहार के सिद्धांतों का मूल प्रस्तुत कर दिया है, उसका सरल हिन्दी में काव्य भावानुवाद प्रस्तुत किया गया है -----


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 प्रस्तुत है----
ईशोपनिषद के प्रथम मन्त्र ..ईशावास्यम इदं सर्वं यद्किंचित जगत्याम जगत |”
                                                    तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध कस्यविद्धनम "
 के प्रथम भाग..ईशावास्यम इदं सर्वं यद्किंचित जगत्याम जगत |” का काव्य-भावानुवाद......
कुंजिका- इदं सर्वं =यह सब कुछ...यदकिंचित=जो कुछ भी ...जगत्याम= पृथ्वी पर, विश्व में ...जगत= चराचर वस्तु है ...ईशां =ईश्वर से ..वास्यम=आच्छादित है |
मूलार्थ- इस समस्त विश्व में जो कुछ भी चल अचल, जड़,चेतन वस्तु, जीव, प्राणी आदि है सभी ईश्वर के अनुशासन में हैं, उसी की इच्छा /माया से आच्छादित/ बंधे हुए हैं/ चलते हैं|
ईश्वर माया से आच्छादित,
इस जग में जो कुछ अग-जग है |
सब जग में छाया है वह ही,
उस इच्छा से ही यह सब है |
ईश्वर में सब जग की छाया,
यह जग ही है ईश्वर-माया |
प्रभु जग में और जग ही प्रभुता,
जो समझा सोई प्रभु पाया |
अंतर्मन में प्रभु को बसाए,
सबकुछ प्रभु का जान जो पाए |
मेरा कुछ भी नहीं यहाँ पर,
बस परमार्थ भाव मन भाये |
तेरी इच्छा के वश है नर,
दुनिया का यह जगत पसारा |
तेरी सद-इच्छा ईश्वर बन ,
रच जाती शुभ-शुचि जग सारा |
भक्तियोग का मार्ग यही है ,
श्रृद्धा भाक्ति आस्था भाये |
कुछ नहिं मेरा, सब सब जग का,
समष्टिहित निज कर्म सजाये |
अहंभाव सिर नहीं उठाये,
मन निर्मल दर्पण होजाता|
प्रभु इच्छा ही मेरी इच्छा,
सहज-भक्ति नर कर्म सजाता ||
 




 

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

बात गीतों की--आगे ---भाग तीन --डा श्याम गुप्त ---

                      ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

----------बात गीतों की--आगे ---भाग तीन --------

------------------लय साधने हेतु गीतों व छंदों में तुकांत का प्रयोग सनातन परम्परा से प्रारम्भ हुआ जो हिन्दी में तुकांत वर्णिक व मात्रिक छंदों युत गीतों का प्रयोग महाकाव्यों की लम्बी कवितायें एवं शास्त्रीय काव्य में ही रहा | लोकगीतों में तुकांत की अनिवार्यता कभी पूर्ण रूप से स्थापित नहीं हुई अपितु केवल लय ही गीतों का मूलतत्व बना रहा | जो महादेवी, प्रसाद, सुमित्रानंदन पन्त आदि तक गीतों के रूप में चलती रही |

----------------- वास्तव में छायावाद के पश्चात के युग में अर्थात सत्तर के दशक में समाज की भांति साहित्य भी ठिठका हुआ था | स्वतंत्रता के पश्चात साहित्य में अंग्रेज़ी साहित्य एवं अन्य विदेशी साहित्य के प्रभाववश एवं समाज में स्वतंत्र चेतना की उत्पत्ति हुई परन्तु विशिष्ट साहित्यिक दिशा के बिना साहित्य भी समाज की भांति दिशाहीन था ? 

------अतः महादेवी-प्रसाद-पन्त के संक्षिप्त भावसौन्दर्य प्रधान छायावादी गीतों के बाद, निराला के अतुकांत छंदों व गीतों की क्रान्ति के समय तक गीतों की महत्ता व उपादेयता स्पष्ट दिखाई देती रही | 

------छायावादोत्तर युग में बच्चन, नीरज आदि के विलंवित लम्बे लम्बे गीतों के काल में, खुले मंच पर कविता व कवि सम्मेलनों के प्रादुर्भाव के कारण जिनमें लम्बे गीतों को सुनने का किसी के पास समय नहीं था अपितु मंच हेतु हलके-फुल्के काव्य, हास्य-कविता आदि के प्रादुर्भाव के साथ ही विभिन्न सामयिक वस्तु-विषयों का कविता में प्रवेश के कारण गीतों का प्रभाव कम हुआ|

------गीतों का लंबा होना एक दुर्गुण है इसमें भाव एक नहीं रह पाते और श्रोता भावों की भूलभुलैया में खोजाता है और भूल जाता है की वह क्या सुन रहा था | यही कारण है कि रूढ़ गीत इस बिंदु पर जड़ीभूत हुआ

-----परन्तु यह गीत की गतिशीलता एवं मृत्युंजय रूप ही है कि वह पारंपरिक रूप बनाए रहते हुए --अतुकांत गीतविधा ‘अगीत’ एवं तुकांत गीतविधा नवगीत के नए रूप में प्रतिष्ठित होकर भी आज अपने मूल रूप में जीवित है |
-------------------------------- इन सभी कारणों से कविता जगत में विभिन्न प्रकार के आन्दोलनों का प्रवेश हुआ जो अकविता, नयी कविता, गद्यगीत, अतुकांत गीत एवं उसका संक्षिप्त रूप अगीत तथा तुकांत-गीत के संक्षिप्त रूप नवगीत का अवतरण हुआ |

-----ग़ज़ल विधा के लोकप्रिय होने से भी गीतों की चमक पर प्रभाव पड़ा और यहाँ तक कहा जाने लगा कि ‘गीत मर गया’ परन्तु इस सब के बाबजूद भी हिन्दी में लोक व पारंपरिक गीत परम्परा की अजस्र धारा निरंतर प्रवहमान रही और आज भी प्रवहमान है |

------परम्परा से हटकर तुकांत व अतुकांत गीतों की एवं कविता की नवीन धाराओं के रूप में अतुकांत गीत की धारा अगीत एवं तुकांत गीत की धारा नवगीत ही आज जीवित हैं | अन्य सभी धाराएं काल के गाल में समा चुकी हैं|
--------------अगीत - अतुकांत गीत का संक्षिप्त रूप है जो गीत की मुख्य शर्त लय पर ही आधारित सामायिक आवश्यकता – संक्षिप्तता एवं तीब्र भाव-सम्प्रेषण के आधार दोहे व शेर की तर्ज़ पर रचा गया है |
-----अगीत का एक सुनिश्चित छंद विधान “ अगीत साहित्य दर्पण “ ( लेखक- डा श्यामगुप्त, प्रकाशक-सुषमा प्रकाशन एवं अखिल भारतीय अगीत परिषद्, लखनऊ..प्रकाशन –जनवरी २०१२ ई.) प्रकाशित होचुका है
-----एवं तुकांत गीति विधा के भांति ही इसके विभिन्न प्रकार के विविध छंद भी सृजित किये जाचुके हैं | आज यह गीत की एक सुस्थापित विधा है |
--------------नवगीत - वास्तव में मूल रूप से गीत ही है गीत के पारंपरिक रूप का पुनर्नवीनीकरण | गीत और नवगीत में काव्यरूपात्मक अंतर नहीं है। यह कोई नवीन विधानात्मक तथ्य भी नहीं है अपितु पारंपरिक गीत को ही मोड़-तोड़ कर लिख दिया जाता है |
----इसमें मूलतः तो तुकांतता का ही निर्वाह होता है और मात्राएँ भी लगभग सम ही होती हैं, कभी-कभी मात्राएँ असमान व अतुकांत पद भी आजाता है |
----मेरे विचार से इसे गीत का सलाद या खिचडी भी कहा जा सकता है | इसका स्पष्ट तथ्य-विधान भी नहीं मिलता तथा प्रायः कवि अपने निजी (ज़्यादातर काल्पनिक) अवसाद-आल्हाद को ऐकान्तिक भाव में गाता दिखाई देता है |
-----वस्तुतः यह है पारंपरिक गीत ही जिसे टुकड़ों में बाँट कर लिख दिया जाता है | ----उदाहरणार्थ---- एक नवगीत का अंश है—
टुकड़े टुकड़े
टूट जाएँगे     १६
मन के मनके
दर्द हरा है      १६ = ३२
धीरे-धीरे
ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?     ३२ ---- पूर्णिमा वर्मन का नवगीत ..

----सीधा -सीधा ३२ मात्राओं का पारंपरिक गीत है ...

----इसे ऐसे लिखिए --
धीरे धीरे ढल जाएगा वक्त आज तक, कब ठहरा है , ३२
टुकड़े-टुकड़े टूट जायंगे मन के मनके , दर्द हरा है | ३२

--------------------कहने का अर्थ है कि गीत आज भी जीवित है, अपने पारंपरिक रूप में भी एवं विविध नवीन रूपों में भी | वर्तमान में अनेकों गीतकार अपने गीतों से सरस्वती का भण्डार भर रहे हैं|
------भविष्य में या साहित्य के इतिहास में जब कभी सुरुचिपूर्ण गेय साहित्य या कविता की बात होगी तो गीतों-लोकगीतों-प्रेमगीतों का नाम सर्वोपरि रहेगा एवं गीत के दोनों नवीन रूपों अगीत एवं नवगीत का भी महत्वपूर्ण उल्लेख अवश्य किया जाएगा |
-----सजग रचनाकार सदैव परिष्कार और नवता के प्रति आग्रहशील रहे हैं, अतः पारम्परिक गीतों से गीत के इन नये स्वरूपों की समन्वित पहचान बनी |
-----यही कारण है, कि गीत के मर जाने की घोषणा का गीत के नये प्रारूपों, अगीत व नवगीत, दोनों विधाओं ने न केवल प्रतिकार किया अपितु स्वयं को सक्षम व प्रभावशाली रूप में साहित्य व समाज के सम्मुख विस्तृत रूप में प्रस्तुत भी किया |

-----क्रमशः---भाग चार ( अंतिम किश्त )-----


 

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

बात गीतों की ----भाग दो-------डा श्याम गुप्त-----

                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ... 

बात गीतों की ----भाग दो-------डा श्याम गुप्त-----

                        वैदिक गीत स्वर-प्रधान थे| लौकिक संस्कृत में लयसाम्य और नाद-सौन्दर्य आधारित गीत परंपरा प्राप्त होती है | लौकिक काव्य परम्परा का श्रीगणेश आदिकवि बाल्मीकि से माना जाता है| यहीं से काव्य में वर्णानात्मकता के स्थान पर गीति-काव्यात्मकता का प्रवेश हुआ |विश्व की सर्वप्रथम मानवीय कथा उर्वशी-पुरुरवा की विरह कथा एवं क्रोंच-वध की घटना के कारण आदिकवि में पीड़ा-संवेदना द्वारा उत्पन्न काव्य के कारण ही परवर्ती काल में काव्य में कवियों में ‘वियोगी होगा पहला कवि ..’ जैसी एकल धारणा बनी, जो पूर्ण सत्य नहीं है |
                      वस्तुतः पूर्ण सत्य यही है कि प्रथम गीत/कविता प्रकृति के सुखद आश्चर्य मिश्रित रोमांच के कारण ही रची गयी| वैसे भी संयोग के बिना वियोग कहाँ, प्रेम के बिना विरह कहाँ, सुख के बिना दुःख कहाँ | अतः गीत में भावों व रसोद्द्वेगों की उत्सर्जना, विभिन्न संवेदनाओं, सुख-दुःख, प्रेम, श्रृंगार, सौन्दर्य, आश्चर्य, शौर्य सभी के द्वारा उद्भूत होती है | प्रेमी मन पहले प्रेमगीत गाता है तदुपरांत विरह दुःख होने पर विरह गीत |
                      प्रारंभिक लौकिक काव्य में गीत की अनिवार्य शर्त छंद एवं लयात्मकता रही है आदि कवि वाल्मीकि से लेकर अब तक गीत इसी रूप में पहचाना जाता रहा है। इसके पूर्व वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएं, जो गीत ही मानी जाती हैं लयबद्ध रचनाएँ ही हैं जो तुकांत आधारित नहीं हैं परवर्ती लौकिक काव्य में गीत की शर्तें छंद संतुलन और अंत्यानुप्रास (तुकान्त) मानी गयीं । परन्तु लोकगायकों के लोकगीतों व जनकाव्य में स्वर की महत्ता आरोह-अवरोह-स्वरित बनी रही तथा मात्रा व वर्णसंख्या व तुकांत की कठोर अनिवार्यता नहीं थी |
                       स्पष्ट है कि वैदिक साहित्य से लेकर अद्यतन अगीत / नवगीत तक लय ही एकमात्र ज़रूरी शर्त रही है गीत की | लम्बे गीतों में भाव-सौन्दर्य स्थिर नहीं रह पाता अतः गीत संक्षिप्त ही होने चाहिए | भावों एवं विचारों के सुन्दर समन्वय के साथ-साथ गीतात्मकता का सही सन्तुलन सफल गीत रचना की अनिवार्यता है। छंदशास्त्रों के नियमों को ध्यान में रखकर भी गीत लिखे जाते हैं और उन्मुक्त गायन के भाषा से भी गीतों की रचना होती है।
               जीवनगत भावों से गहरे संबंधित होने के कारण गीतों की रचना-प्रक्रिया जटिल होती है एवं भावुक क्षणों में छंदों के शास्त्रीय बंधन आवश्यक नहीं रह जाते तथापि लयात्मकता एवं संगीतात्मकता का तत्व सतत् बना रहता है।   खासकर लोकगीतों में तो यह धारा अविछिन्न बनी रहती है और छंद शास्त्र के अज्ञानी बने रहकर भी कवि मस्ती में, अपनी धुन में गाए जाता है, अमृत रस का संचार करते हुए |
              अन्तर्निहित भाव जब द्रव्यीभूत होकर तरलीकृत होते हैं तो गीत रूप में निसृत होते हैं | गीत जब व्यक्तिपरक उद्गार बन जाता है तब भी वह समाज के सामूहिक संवेग का ही प्रतिनिधित्व करता है|
                गीत की सबसे बड़ी अनिवार्यता उसकी लय है, उसमें विद्यमान गेयता है। निराला ने कविता को छन्दों के बन्धन से मुक्तहोने का जो कार्य किया है वह भी एक आवश्यकता थी। लेकिन निराला ने कविता में अन्त:संगीत की अनिवार्यता को भी नहीं नकारा।
              निराला-रचित मुक्तछंद की कविताओं में अन्त:गीत-संगीत सर्वथा विद्यमान है। इसी भाव पर डा रंगनाथ मिश्र सत्य द्वारा सातवें दशक में स्थापित अगीत कविता भी अपनी स्वर-लयबद्धता सहित अन्तः संगीत-गीत से आप्लावित है |

               गीत, प्रत्येक युग में मनुष्य के साथी रहे हैं। लोकजीवन अगर कहीं अपने नैसर्गिक रूप में आज भी सुरक्षित है तो वह है गीतों में। जब तक लोक रहेगा एवं लोक जीवन रहेगा तब तक गीतों में लोकजीवन का स्पन्दन विद्यमान रहेगा एवं भविष्य में जब कभी भी सरस कविताओं की बात होगी तो उसमें गीतों का स्थान सर्वोपरि रहेगा।
               आधुनिक युग में गीतों के भविष्य के बारे में प्रश्न चिन्ह लगाए जाते रहे हैं | परन्तु प्रश्न उठाने वाले भूल जाते हैं कि गीतों का संसार एक बहुरंगी संस्कृति है| प्रेम, श्रृंगार, पीड़ा आदि भाव मानव की मूलवृत्ति हैं, जब तक प्रकृति में सौंदर्य है, जगत में संवेदना का प्रवाह है, तब तक गीतों का अस्तित्व विद्यमान रहेगा। हाँ गीत युगानुसार अपना स्वरुप बदलते रहे हैं |
              सजग रचनाकार सदैव परिष्कार और नवता के प्रति आग्रहशील रहते हैं यह साहित्य व काव्य का धर्म भी है | सृजनशील व्यक्ति प्रयोगशील होता है, उसकी प्रतिभा एक पूर्व निश्चित ढाँचे में संतुष्टि नहीं पाती, वह नूतन आयामों को खोजकर अभिव्यक्ति के नवीन शिल्प, भाव, विधान व कथावस्तु में तृप्ति पाता है|
               सच्चे साहित्यकार परम्परा एवं नव-प्रयोग के सामंजस्य से आगे बढ़ते हैं | आदिकाल से अधुनातन युग तक काव्य में प्रवृत्यात्मक परिवर्तन निरन्तर होता रहा है, लोकप्रियता के आधार पर कभी किसी एक काव्यरूप को प्रमुखता मिली तो कभी दूसरे को|
              गीत और गीतेतर कविता का विवाद केवल अभी कुछ दशकों के उपज है | यह टकराव भी तथाकथित छांदसिक और अछांदसिक काव्य रूपों के बीच अधिक है जो केवल तुकांत छंदों को ही छंद समझने के भ्रम व सीमित ज्ञान के कारण है|
                        आचार्य भरत ने अत्यंत व्यापक रूप में वाक् तत्व को शब्द और काल तत्व को छन्द कहा है....
----. “छन्दहीनो न शब्दोSजस्त नच्छन्द शब्दवजजातम्। “-----अर्थात कोई शब्द या ध्वनि छन्द रहित नहीं और न ही कोई छन्द शब्द रहित है क्योंकि ध्वनि काल के बिना व्यक्त नहीं होती काल का ज्ञान ध्वनि के बिना संभव नहीं |  
                     आज मुक्तछंद कविता को कोई 'नई कविता` नहीं कहता।

--------क्रमशः बात गीतों की ..भाग तीन -----

 

वह यहीं है---डा श्याम गुप्त ----

....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



वह यहीं है ...ग़ज़ल...


वो कहते हैं कि ईश्वर कहीं नहीं है |
मैं कहता हूँ खोजने में कमी कहीं है |

उनका कहना है, वह बस कल्पना ही है,
है हर कहीं, जग उसकी अल्पना ही है |

उसने कहा किसी ने पाया भला कभी,
मैंने कहा, है, तू ढूंढ पाया नहीं है |

जग की गज़ब कारीगरी क्यों देखता नहीं,
जिसकी है बाजीगरी, बस वह वही है |

सदियों से ज्ञानी, विज्ञजन, तत्वज्ञ, साधु-संत,
क्यों खोज में लगे हैं, उसकी, जो नहीं है |

तत्वों के अंतर में, तारों के पार भी,
जो खोजते साइंसदां, क्या वही नहीं है |

मन में यदि बसाए, परमार्थ प्रीति -भाषा,
स्वारथ को भूलकर, तू देख, तू वही है |

तू ढूँढता फिरे है, जाने कहाँ कहाँ,
बस ढूंढ श्याम' दिल में,वह यहीं है यहीं है ||


पद---

मैं तो खोजि खोजि कें हारो |
ब्रह्म हू जान्यो, पुरानन खोजो, गीता बचन उचारो |
ज्ञान वार्ता, धरम-करम औ भक्ति-प्रीति मन धारो |
कथा रमायन, वेद-उपनिषद् ढूँढो अग-जग सारो |
पोथी पढ़ि पढ़ि भजन -कीरतन रत अति भयो सुखारो |
किधों रहै कित उठै औ बैठे कौन सो ठांव तिहारो |
कबहुं न काहू कतहु न पायो प्रभु का रूप संवारो |
थकि हारो अति आरत , राधे राधे नाम पुकारो |
कुञ्ज-कुटीर में लुकौ राधिका पाँव पलोटतु प्यारो |
सो लीला छवि निरखि श्याम' तन मन अति भयो सुखारो ||



 

रविवार, 19 फ़रवरी 2017

बात गीतों की******-भाग एक..... (डा श्याम गुप्त ).......

                                ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


  ******बात गीतों की****** (डा श्याम गुप्त ).......


-----भाग एक ------

-----------आज गीतों के ऊपर तमाम प्रश्न उठाये जा रहे हैं | गीत मर गए , अब तक प्रचलित सनातन गीत आज के समय के अनुकूल नहीं है, आदि आदि | उत्तर में नवगीत आदि विविध प्रकार की कविता विधाओं को खडा किया जा रहा है | काव्य एक गतिशील विधा है , समयानुसार उसमें प्रगति आना आवश्यक है, चाहे जितनी विधाओं की उत्पत्ति हो परन्तु उससे गीतों की मूल सनातन प्रकृति नहीं बदलती, वे प्रत्येक अवस्था में 'गीत' ही रहते हैं |
------------- ब्रह्म व प्रकृति के द्वैत-प्राकट्य पर अनाहतनाद से उद्भूत ओंकार की आदि ध्वनि से सृजित पुंजीभूत सृष्टि के साथ उत्पन्न स्वर-सप्तक के साथ ही प्रकृति में लयात्मकता युत प्रवाह से गीत का प्रादुर्भाव हुआ होगा |
-----आदि मानव ने जब उन्मुक्त प्रकृति के प्रांगण में प्रकृति की लयात्मकता, संगीतमयता युत विविध भावों, बादलों के गर्जन में एक भय-मिश्रित रोमांच, नदियों-झरनों के नाद घोष में, खगवृंदों के कल-कंठों के गायन में जीवन की पुकार को सुना होगा, चांद-तारों की रोशनी में, फूलों की हंसी में एक आकर्षण, एक सौंदर्य भावबोध का अनुभव किया होगा, गीत की वाणी तभी से थिरकने लगी होगी।
-----वैदिक ऋषियों का वचन है कि 'तेने ब्रह्म हृदा य आदि कवये'- अर्थात कल्प के प्रारंभ में आदि कवि ब्रह्मा के हृदय में वेद का प्राकट्य हुआ था।
---------------- स्वर के आविर्भाव के साथ सृष्टि के सर्वाधिक भावुक प्राणी मानव ने मूक इंगितों के स्थान पर शब्दहीन ध्वन्यात्मक इंगितों, अर्थहीन ध्वनियों द्वारा प्रकृति के दृश्यों-रूपों से उत्पन्न भय मिश्रित रोमांच, सुखद आश्चर्यप्रद अनुभूति की मुग्धावस्था एवं उससे उत्पन्न श्रद्धा के स्व-भावों का स्वयं में ही अथवा आपस में सम्प्रेषण करना प्रारम्भ किया होगा |
------शिव के डमरू से उत्पन्न स्वर-ताल व अक्षर एवं माँ सरस्वती की वीणा ध्वनि से उद्भूत वाणी के बैखरी रूप की उत्पत्ति पर उन्मुक्त प्रकृति के विभिन्न स्वर—संगीत, वायु के मर्मर स्वर, नदी की कल कल कल, झरने की झर झर झर, मेघ की घनन घनन घन, तडित की गर्ज़न, पशु पक्षियों के विवध कलरव के अनुकरण द्वारा विभिन्न स्वरों में ताल–लय बद्धता के साथ प्रसन्नता, रोमांच, आश्चर्य, श्रद्धा का प्रदर्शन करने लगा होगा | निश्चय ही यही संगीतमय उत्कंठित स्वर गीत के प्रथम स्वर थे|
------ मानव ने जब सर्वप्रथम बोलना प्रारम्भ किया होगा तो वह गद्य-कथन ही था, तदुपरांत गद्य में गाथा व गद्यगीत | अपने कथन को विशिष्ट, स्व व पर आनन्ददायी, अपनी व्यक्तिगत प्रभावी वक्तृता व शैली बनाने एवं दीर्घकालीन स्मृत्यांकन हेतु उसे सुर, लय, प्रवाह व गति देने के प्रयास में पद्य का, गीत का जन्म हुआ |
---------------माँ सरस्वती के कठोर तप स्वरुप ब्रह्मा द्वारा वरदान में प्राप्त पुत्र ‘काव्यपुरुष’ के अवतरण पर मानव मन में लयबद्ध एवं विषयानुरूप गीत का आविर्भाव हुआ जो पृथ्वी पर मानव जीवन के अस्तित्व के विविध भावों, कृतित्वों, कलापों, स्पंदनों के साथ लोकगीतों के रूप में हुआ |
-------इस प्रकार भौरों की गुंजार, कोयल की तान, मयूर के नृत्य, शिशुओं की मुस्कान, किसानों के श्रम, बादलों की गर्जन, दामिनी की चमक, पक्षियों की कलरव आदि प्रकृति के आदिम संगीत-गीत से जीवन में ऊर्जा एवं ताजगी का संचरण प्राप्त करते हुए, प्रकृति के हर क्रिया-व्यापार में स्थित लय से साम्य करते हुए विभिन्न भाव-स्वर लयबद्ध रूप में आविर्भूत हुए है और यह लय ही गीत है |
-------------- गीत, काव्य की सबसे पुरानी विधा है। सृष्टि की सबसे सुन्दर है कृति है मानव, और मानव की कृतियों में सबसे सुन्दर है- कविता | गीत--काव्य की सुन्दरतम प्रस्तुति है ।
-----गीत होते ही हैं मानव मन के सुख-दुख व अन्तर्द्वन्द्वों के अनुबन्धों की गाथा। जहां भावुक मन गीत सृष्टा हो तो वे मानव ह्रदय, जीवन, जगत, की सुखानुभूति, वेदना, संवेदना के द्वन्द्वों व अन्तर्संबंधों की संगीतमय यात्रा हो जाते हैं गीत के मूल में भावना व कल्पना दोनों का ही समत्व होता है |
-----यद्यपि कल्पना अनुरंजनशील वृत्ति की भांति है जिसमें संभाव्य एवं संभावित वस्तु का मानवीय अंकन किया जाता है| कल्पना पूर्ण अनुभूति का स्थान नहीं ले पाती | मनोवेगों के आरोह-अवरोह में उनके आधारों का संयोजन भावना करती है जो कल्पना से अधिक वास्तविक, स्थिर व कोमल वृत्ति है |
----- मन की एकाग्रता के लिए आतंरिक व वाह्य आधार का अवलंबन भावना द्वारा ही प्रस्तुत किये जाते हैं- कल्पना द्वारा नहीं | प्रेमी व भक्त अपने इष्ट की भावना करता है, कल्पना नहीं |
------------- भारतीय गीतिकाव्य की परम्परा विश्व साहित्य में सबसे पुरातन है | ऋग्वेद के पूर्व भी गीत पूर्ण-परिपक्व व सौन्दर्यमय रहा होगा | वैदिक मन्त्रों में स्वर संबंधी निर्देश मिलने से एवं स्थान स्थान पर पुरा-उक्थों के कथन से यह प्रतीत होता है कि मौखिक गीत-रचना परम्परा वेदों से पूर्व भी अवश्य रही होगी |
----- मानव इतिहास के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में मानव इतिहास के सर्वप्रथम गीत पाए जाते हैं | वे गीत प्रकृति व ईश्वर के प्रति सुखद आश्चर्य, रोमांच एवं श्रद्धा भाव के गीत ही हैं | ऋषियों ने प्रकृति की सुकुमारिता व सौन्दर्य का सजीव चित्रण किया है जो भावमयता व अर्थग्रहण के साथ मनोहारी कल्पनाएँ हैं | ऋग्वेद ७/७२ में वैदिककालीन एक प्रातः का वर्णन कितना सुन्दर व सजीव है ---

“विचेदुच्छंत्यश्विना उपासः प्र वां ब्रह्माणि कारवो भरन्ते |
उर्ध्व भानुं सविता देवो अश्रेद वृहदग्नयः समिधा जरन्ते ||”

----हे अश्वनी द्वय ! उषा द्वारा अन्धकार हटाने पर स्तोता आपकी प्रार्थना (स्वाध्याय, व्यायाम, योग आदि स्वास्थ्य वर्धक कृत्य की दैनिक चर्या ) करते हैं | सूर्य देवता ऊर्धगामी होते हुए तेजस्विता धारण कर रहे हैं | यज्ञ में समिधाओं द्वारा अग्नि प्रज्वलित हो रही है |
-----तथा …..
“एषा शुभ्रा न तन्वो विदार्नोहर्वेयस्नातो दृश्ये नो अस्थातु
अथ द्वेषो बाधमाना तमो स्युषा दिवो दुहिता ज्योतिषागात |
एषा प्रतीचि दुहिता दिवोन्हन पोषेव प्रदानिणते अणतः
व्युणतन्तो दाशुषे वार्याणि पुनः ज्योतिर्युवति पूर्वः पाक: ||”

----प्राची दिशा में उषा इस प्रकार आकर खड़ी होगई है जैसे सद्यस्नाता हो | वह अपने आंगिक सौन्दर्य से अनभिज्ञ है तथा उस सौन्दर्य के दर्शन हमें कराना चाहती है | संसार के समस्त द्वेष-अहंकार को दूर करती हुई दिवस-पुत्री यह उषा प्रकाश साथ लाई है, नतमस्तक होकर कल्याणी रमणी के सदृश्य पूर्व दिशि-पुत्री उषा मनुष्यों के सम्मुख खडी है | धार्मिक प्रवृत्ति के पुरुषों को ऐश्वर्य देती है | दिन का प्रकाश इसने पुनः सम्पूर्ण विश्व में फैला दिया है |
----------------- ऋग्वेद में प्रकृति के अतिरिक्त उर्वशी-पुरुरवा, यम-यमी, इंद्र-सरमा, अगस्त्य-लोपामुद्रा, इंद्र-इन्द्राणी के रूप में विभिन्न भावों की सूक्ष्म व्यंजनायें, नारी ह्रदय की कोमलता, दुर्बलता, काम-पिपासा, आशा, निराशा, विरह वेदना सभी के संगीत-गीत की अभिव्यक्ति हुई है |
---- यही सृष्टि के प्राचीनतम गीत हैं जिनकी पृष्ठभूमि पर परवर्ती काल में समस्त विश्व में काव्य का विकास हुआ, लोकगीतों-गीतों के विविध भाव-रूपों में | यजु, अथर्व एवं साम वेद में इनका पुनः विक्सित रूप प्राप्त होता है | साम तो स्वयं गीत का ही वेद है यथा- ऋषि कहता है......
”ओ3म् अग्न आ याहि वीतये ग्रृणानो हव्य दातये |
नि होता सत्सि बर्हिषि ||”
साम 1 ....
---- हे तेजस्वी अग्नि (ईश्वर) आप ही हमारे होता हो, समस्त कामना पूर्तिकारक स्त्रोता हो, हमारे ह्रदय रूपी अग्निकुंड ( यज्ञ ) हेतु आप ही गीत हो आप ही श्रोता हो |
-----------क्रमशः-----भाग दो-----

 

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

ग़ज़ल---विषमता के बीज----डा श्याम गुप्त

                                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ... 





 

बात ग़ज़ल की -----भाग चार ( अंतिम क़िस्त )---डा श्याम गुप्त----

....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


          बात ग़ज़ल की -----भाग चार ( अंतिम क़िस्त )----

----------त्रिलोचन, शमशेर, बलबीर सिंह ‘रंग’ ने भी हिन्दी ग़ज़लों को आयाम दिए | परन्तु आधुनिक खड़ी बोली में हिन्दी-गज़ल के प्रारम्भ का श्रेय दुष्यंत कुमार को दिया जाता है जिन्होंने हिन्दी भाषा में गज़लें लिख कर गज़ल के विषय भावों को राजनैतिक, संवेदना, व्यवस्था, सामाजिक चेतना आदि के नए नए आयाम दिए |... दुष्यंत कुमार की एक गज़ल देखिये.... 
 
"" कहाँ तो तय था चरागां हरेक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए । """

---------इस प्रकार फारसी ग़ज़ल, फारसी से हिन्दवी, दक्खिनी हिन्दी में आई तत्पश्चात उर्दू में आई एवं पुनः उर्दू से हिन्दी व हिन्दी की समस्त बोलियों के साथ खड़ी बोली एवं सभी भारतीय देशज भाषाओं में प्रचलित हुई |

-------- वस्तुतः हिन्दी भाषा ने अपने उदारचेता स्वभाववश उर्दू-फारसी के तमाम शब्दों को भी अपने में समाहित किया, अतः आज के अद्यतन समय में हिन्दी कवियों ने भी ग़ज़ल को अपनाया व समृद्ध किया है|
------हिन्दी गजल के पास अपनी विराट शब्द-संपदा है, मिथक हैं, मुहावरे, बिम्ब, प्रतीक, व रदीफ-काफिये हैं। आज हिन्दी-गजल में पारम्परिक गजल की काव्य-रूढ़ियों से मुक्त होने का प्रयास है तथा नए शिल्प और विषय के उत्तरोत्तर विकास का भी|
----फलस्वरूप आज गज़ल व हिन्दी-गज़ल में विषयों व ग़ज़लकारों का एक विराट रचना संसार है जो प्रकाशित पुस्तकों, पत्रिकाओं, रचनाओं एवं अंतर्जाल( इंटरनेट) पर प्रकाशन द्वारा समस्त विश्व में फैला हुआ है तथा जो उर्दू गज़ल, हिन्दी ग़ज़ल, शुद्ध खड़ी-बोली, हिन्दी एवं हिन्दी की सह-बोलियों के शुद्ध व मिश्रित रूपों से समस्त शायरी-विधा व ग़ज़ल को समर्थ व समृद्ध कर रहे है तथा दिन ब दिन ग़ज़ल में गीतिका, नई ग़ज़ल, त्रिपदा-अगीत ग़ज़ल आदि नाम से नए-नए प्रयोग भी होरहे हैं|
---------मेरे विचार से हिन्दी ग़ज़ल के लिए एक जरूरी बात यह है कि हिन्दी व्याकरण की परिधि में शब्दों का विभाजन हो और मात्रा की गणना भी, ताकि ग़ज़ल के शिल्प और कथ्य में तारतम्य रह सके |
-----उर्दू ज़बान का हिन्दी गज़ल पर हावी होना उसके स्वरूप के निखार में बाधक है। हिन्दी की अनेक गज़लें तो लगती हैं जैसे वे उर्दू की हैं उनमें हिन्दी की वह अपनी सोंधी-सोंधी सुगंध है ही नहीं एवं वह अरबी-फारसी के लफ्जों से दब कर रह गई है। हिन्दी की एक शुद्ध ग़ज़ल का हिस्सा देखिये...

छटा का कौन आकर्षण तिमिर में खींच लाया है
क्षितिज से व्योम में कोइ तरल तारा निकलता है | ...त्रिलोचन शास्त्री
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साहित्य सत्यं शिवं सुन्दर भाव होना चाहिए ,
साहित्य शुचि शुभ ज्ञान पारावार होना चाहिए |

ललित भाषा ललित कथ्य न सत्य तथ्य परे रहे ,
व्याकरण शुचि शुद्ध सौख्य समर्थ होना चाहिए |.. ...डा श्याम गुप्त

-------- यदि हिन्दुस्तानी भाषा के अनुरूप हिन्दी में घुलमिल गए उर्दू के लफ्ज़ों का इस्तेमाल हो जो सहज ही आजायें तो सौन्दर्य, प्रभाव व सम्प्रेषण की स्पष्टता बढ़ सकती है | यथा एक ग़ज़ल देखें ....

वो हारते ही कब हें जो सजदे में झुक लिए
यूं फख्र से जियो यूंही चलती रहे ये ज़िंदगी | ---डा श्याम गुप्त
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----------- चूँकि गज़ल मूलतः उर्दू से हिन्दी में आई है इसलिए यह मान लेना कि उसमें उर्दू के कुछ लफ्ज़ अवश्य हों उचित नहीं। अतः मेरे विचार में फ़ारसी, और उर्दू के क्लिष्ट शब्दों से परहेज़ करना ही उचित है | उदाहरणार्थ ऐसे उर्दू /फारसी शब्दों के प्रयोग का क्या लाभ जिसे हिन्दी वाले तो क्या उर्दू भाषी भी न समझ पायें.---..उदाहरणार्थ......

तहज़ीबो तमद्दुन है फ़कत नाम के लिए
गुम हो गई शाइस्तगी दुनिया की भीड़ में ---- कुँवर कुसुमेश

------------आजकल देखा जा रहा है कि हिन्दी ग़ज़ल में उर्दू शब्दों व व्याकरण का दबदवा बढाने व कायम रखने के प्रयास किये जारहे हैं, तर्क उस्ताद-परम्परा, ग़ज़ल-ज्ञान, उर्दू-परम्परा आदि के दिए जारहे हैं|
------वास्तव में आज के कुछ कवि शायर जिनका भाषा व वैयाकरण ज्ञान अल्प है, विषय आदि पर अपना कुछ मौलिक ज्ञान भी नहीं है उर्दू उस्तादों का तौर-तरीका व उन्हीं की नक़ल की लीक पर चलकर आगे बढ़ना चाहते हैं|
-----यह हिन्दी ग़ज़ल के लिए एवं स्वयं ग़ज़ल के विकास व निखार में बाधक है अतः हिन्दी ग़ज़ल के पैरोकार उर्दू-फारसी ग़ज़ल या उस्तादी परम्परा, या उर्दू भाषा व शब्दों आदि को अधिक तवज्जो न देकर आचार्य भामह के स्व-अनुभव के कथ्यांकन पर चलते हुए आगे बढ़ रहे हैं|
-----आखिर हिन्दी ग़ज़ल क्यों उर्दू के नियम कायदों पर ही चले | हिन्दी की अपनी स्वयं की मर्यादा है, मिजाज़ है, नीति-नियम है, विशिष्टता है, गति है, कला व भाव का अपना स्वरुप अर्थवत्ता व प्रभामंडल है |
------तुलसी ने जब संस्कृत की बजाय भाखा ( हिन्दी ) में रामचरित मानस रची तब भी काशी के पंडितों ने तमाम सवाल उठाये थे |

----------- शायर ज़हीर कुरैशी (डा आज़म की पुस्तक --आसान अरूज़ की समीक्षा में) का विचार है कि बुनियादी कायदे क़ानून आवश्यक हैं, आवश्यक नहीं आप अरूज़ के माहिर बन जाएँ | इल्मे अरूज़ अर्थात शेर की बाहरी संरचना का महत्त्व सिर्फ २५% है तथा शेरो की आतंरिक संरचना का ७५%..जिसमें शायर के कथ्यांकन, भाव, विचार, विषय, संवेदना, कल्पनाशीलता, ज्ञान आदि रहते हैं|
----------- नचिकेता का मानना है कि "हिन्दी ग़ज़ल, उर्दू ग़ज़लों की तरह न तो असंबद्ध कविता है और न इसका मुख्य स्वर पलायनवादी ही है, इसका मिजाज समर्पणवादी भी नही है !"
-------------- फैज़ अहमद फैज़ ने तो इतना तक कह डाला है कि "ग़ज़ल को अब हिन्दी वाले ही ज़िंदा रखेंगे, उर्दू वालों ने तो इसका गला घोंट दिया है !"

-------------- जब मैंने विभिन्न शायरों की शायरी—गज़लें व नज्में आदि सुनी-पढीं व देखीं विशेषतया गज़ल...जो विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया, बिना रदीफ, वज्न आदि का उठना गिरना आदि ...तो मुझे ख्याल आया कि बहरों-नियमों आदि के पीछे भागना व्यर्थ है, बस लय व गति से गाते चलिए, गुनगुनाते चलिए गज़ल बनती चली जायगी, जो कभी मुरद्दस गज़ल होगी या मुसल्सल या हम रदीफ, कभी मुकद्दस गज़ल होगी या कभी मुकफ्फा गज़ल, कुछ फिसलती गज़लें होंगी कुछ भटकती ग़ज़ल |
------ हाँ लय गति यति युक्त गेयता व भाव-सम्प्रेषणयुक्तता तथा सामाजिक-सरोकार युक्त होना चाहिए और आपके पास भाषा, भाव, विषय-ज्ञान व कथ्य-शक्ति होना चाहिए |
-----यह बात गणबद्ध छंदों के लिए भी सच है | जैसा कि स्वयं भामह ने दूसरों की रचना, देखकर-पढ़कर, काव्यज्ञान की उपासना करते हुए काव्य-निर्माण में प्रवृत्त होने का भी विधान किया है| ... तो कुछ शे’र आदि जेहन में यूं चले आये.....

“मतला बगैर हो गज़ल, हो रदीफ भी नहीं,
यह तो गज़ल नहीं, ये कोइ वाकया नहीं |
 
लय गति हो ताल सुर सुगम, आनंद रस बहे,
वह भी गज़ल है, चाहे कोई काफिया नहीं | “ -डा श्याम गुप्त



--------------समाप्त---बात ग़ज़ल की ---

 

बुधवार, 15 फ़रवरी 2017

बात ग़ज़ल की (क्रमशः)-----भाग तीन--- डा श्याम गुप्त....

....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



बात ग़ज़ल की (क्रमशः)-----भाग तीन---

------- वस्तुतः काव्य के मूल भाव के अनुरूप ग़ज़ल में भी तकनीक की अपेक्षा भाव, प्रभावोत्पादकता व प्रवाह ही अच्छी ग़ज़ल की पहचान है जिसमें मौलिकता हो, जिससे गीत व कविता की ही भांति पढ़ने वाला समझे कि यह उस की स्वयं की दिल की बातों का वर्णन है |

------प्रायः सुरूचिपूर्ण व जाने-पहचाने और सरल शब्दों का ही प्रयोग होना चाहिए | क्लिष्ट शब्द- प्रवाह, गति, सम्प्रेषणता एवं काव्यानंद में अवरोध उत्पन्न करते हैं |

-------भाव चाहे कितना भी उच्च हो, छंद चाहे कितना ही उपयुक्त व सुंदर हो लेकिन कथ्य की अस्पष्टता व तथ्य की अवास्तविकता एवं उचित शब्दचयन व भाषा व्याकरणीय शब्दक्रम आदि के न होने से ग़ज़ल या कविता प्रभावहीन हो जाती है। यह प्रायः काफिया या रदीफ़ को पूर्वोक्त से समान करने के क्रम में होता है, इसीलिये तो ग़ज़ल कहना आसान नहीं है | अस्पष्ट भाव, कथ्य एवं तथ्य के बारे में एक प्रसिद्द शेर है-

मगस को यूं बाग में जाने न दीजिये
महज़ परवाने बर्बाद होजाएंगे |


------- शेर लाजवाब है लेकिन उसका अर्थ समझ के परे है। व्याख्या है कि - ऐ माली तू मगस (मधुमक्खी) को बाग में न जाने दे| वह गुलों का रस चूस कर पेड़ पर शहद का छत्ता बनायेगी, उस से मोम निकलेगा, उससे शमा बनेगी | जब शमा जलेगी तो बेचारा परवाना उस पर मंडराएगा और बिना वजह जल कर राख हो जाएगा।

------- शब्द क्रम भी हिन्दी में अत्यंत महत्त्व रखता है | ग़ज़ल में शब्द क्रम का ख्याल न रहने से अर्थ-अनर्थ होजाता है देखिये ...

नर्म होकर रुई सी लगी
वो जो लड़की थी सख्त वारिश में
| ...सूर्यभानु गुप्त, दै. जा.

---------शायद कवि कहना चाहता है कि जो लड़की सख्त थी वो भी वारिश में भीग कर नर्म होगई, परन्तु असम्बद्ध स्थान पर वारिश शब्द रखने से लगता है कि लड़की वारिश में सख्त थी | तथा----

कहाँ खो गई उसकी चीखें हवा में
हुआ जो परिंदा ज़िबह ढूँढता है-
---संजय मासूम

----------शायद कवि कहना चाहता है कि 'ज़िबह' (कत्ल) हुआ पंछी हवा में खो गई अपनी 'चीखें' ढूँढ रहा है। लेकिन 'ज़िबह' ल़फ़्ज़ गलत जगह पर आने से अर्थ यही निकलता है कि वह ज़िबह की तलाश में है।

-------- भारत में शायरी व गज़ल फारसी के साथ सूफी-संतों के प्रभाववश प्रचलित हुई जिसके छंद संस्कृत छंदों के समनुरूप होते हैं | फारसी में गज़ल के विषय रूप में सूफी प्रभाव से शब्द इश्के-मजाज़ी के होते हुए भी अर्थ रूप में ‘इश्के हकीकी’ अर्थात ईश्वर-प्रेम, भक्ति, अध्यात्म, दर्शन आदि सम्मिलित होगये | प्रेमी को साधक और प्रेमिका को ब्रह्म का दर्जा मिल गया। सूफी साधना विरह प्रधान साधना है। इसलिए फ़ारसी ग़ज़लों में भी संयोग के बजाय वियोग पक्ष को ही प्रधानता मिली।

-------फारसी से भारत में उर्दू में आने पर सामयिक राजभाषा के कारण विविध सामयिक विषय व भारतीय प्रतीक व कथ्य आने लगे | प्रारंभिक दौर में उर्दू गज़ल में श्रंगार के दोनों पक्षों संयोग-वियोग का ही वर्णन रहता था लेकिन बाद में उसमें परिवर्तन आया। उसमें उपदेश, नीति, चिंतन और देश-प्रेम की बातों का ज़िक्र किया जाने लगा यथा---

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं
देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में हैं 


वक्त आने दे बताएंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है
। - क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल-

---------उर्दू से हिन्दुस्तानी व हिन्दी में आने पर गज़ल में वर्ण्य-विषयों का एक विराट संसार निर्मित हुआ और हर भारतीय भाषा में गज़ल कही जाने लगी | तदपि साकी, मीना ओ सागर व इश्के-मजाज़ी गजल का सदैव ही प्रिय विषय बना रहा | बकौल मिर्जा गालिव....

“बनती नहीं है वादा ओ सागर कहे बगैर “ | 

-------यूं तो हिन्दी में ग़ज़ल कबीरदास जी द्वारा भी कही गयी बताई जाती है जिसे कतिपय विद्वानों द्वारा हिन्दी की सर्वप्रथम ग़ज़ल कहा जाता है, यथा....

“ हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?


कबीरा इश्क का मारा, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सर बोझ भारी क्या ? “.


------- परन्तु मेरे विचार से इस ग़ज़ल की भाषा कबीर की भाषा से मेल नहीं खाती | हो सकता है यह प्रक्षिप्त हो एवं कबीर नाम के किसी और गज़लकार ने इसे कहा हो, एक शायर शाहिद कबीर भी हुए हैं |

------ वास्तव में तो हिन्दी में गज़ल का प्राम्म्भ आगरा में जन्मे व पले शायर ‘अमीर खुसरो’ (१२-१३ वीं शताब्दी) से हुआ जिसने सबसे पहले इस भाषा को ‘हिन्दवी’ कहा और वही आगे चलकर ‘हिन्दी’ कहलाई | खुसरो अपने ग़ज़लों के मिसरे का पहला भाग फारसी या उर्दू में व दूसरा भाग हिन्दवी में कहते थे | उदाहरणार्थ...

“जेहाले मिस्कीं मकुल तगाफुल,
दुराये नैना बनाए बतियाँ |


कि ताब-ए-हिजां, न दारम-ए-जाँ,
न लेहु काहे लगाय छतियाँ |” 


---------१७ वीं सदी में उर्दू के पहले शायर ‘वली’ ने भी हिन्दी को अपनाया व देवनागरी लिपि का प्रयोग किया | ..यथा....

“सजन सुख सेती खोलो नकाब आहिस्ता-आहिस्ता,
कि ज्यों गुल से निकलता है गुलाव आहिस्ता-आहिस्ता | 


--------भारत में आने पर फारसी ग़ज़ल में हिन्दी के शब्दों को आत्मसात किया जाने लगा एवं शमसुद्दीन वली औरन्गावादी, क़ुतुबशाह, चंद्रभान बरहमन आदि द्वारा दक्षिण भारत में लिखी –कही गयी जो दक्खिनी हिन्दी (१४-१५ वीं सदी) की ग़ज़ल थी, जिसमें मराठी, कन्नड़, तेलगू का मिश्रण भी था| वली ने दिल्ली आने पर दक्खिनी हिन्दी की बजाय जवान ए मोअल्ला -उर्दू में लिखना प्रारम्भ किया | इस प्रकार वली ( १६६३-१७४०) सर्वप्रथम उर्दू में ग़ज़ल लिखने वाले हुए उन्होंने हिन्दी को भी अपनाया और दरबारी भाषा होने के कारण उर्दू ग़ज़ल का प्रचलन हुआ |

---------सदियों तक गज़ल राजा-नबावों के दरबारों में सिर्फ इश्किया मानसिक विचार बनी रही जिसे उच्च कोटि की कला माना जाता रहा | परन्तु १८ वीं सदी में आगरा के नजीर अकबरावादी ने शायरी को सामान्य जन से जोड़ा और हिन्दी गज़लें लिखी एवं १९ वीं सदी के प्रारम्भ में मिर्ज़ा गालिव ने मानवीय जीवन के गीतों से | उदाहरणार्थ.....

”जब फागुन रंग झलकते हों, तब देख बहारें होली की |
परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की |”
--नज़ीर अकबरावादी..

--- तथा....
“गालिव बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे ,
ऐसा भी है कोई कि सब अच्छा कहें जिसे |....
...गालिव

---- १८ वीं सदी में गज़लकार इंसा अल्ला खां, के अलावा हिन्दी में गज़ल की पहल में भारतेंदु हरिश्चंद्र, निराला, जयशंकर प्रसाद आदि ने सरोकारों की अभिव्यक्ति व लोक-चेतना के स्वर दिए..यथा निराला ने कहा...

“लोक में बंट जाय जो पूंजी तुम्हारे दिल में है “ 

उन्हें अवकाश मिलता ही कहाँ है मुझसे मिलने का
किसी से पूछ लेते हैं यही उपकार करते हैं
| --जयशंकर प्रसाद

-----तत्पश्चात गालिव, जोक, मोमिन, दाग, अकबर इलाहाबादी, चकबस्त, इक़बाल. फिराक, जिगर मुरादाबादी आदि उर्दू ग़ज़लकारों के साथ साथ वाजिद अली शाह, बहादुरशाह ज़फर आदि ने भी हिन्दी का प्रयोग किया..

दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है |
---बहादुर शाह ज़फर

तुम मेरे पास होते हो
गोया कोइ दूसरा नहीं होता
| ...मोमिन

                                             ---क्रमशः----अंतिम किश्त -----भाग चार .....