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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 4 मार्च 2017

नर-नारी द्वंद्व व संतुलन, समस्यायें व कठिनाइयाँ.


                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ... 

                                              
    महिला दिवस --८ मार्च की पूर्व संध्या पर प्रस्तुत -----आलेख --१ . .----

****नर-नारी द्वंद्व व संतुलन, समस्यायें व कठिनाइयाँ.. ****

-------------समस्यायें व कठिनाइयाँ सर्वत्र एवं सदैव विद्यमान हैं, चाहे युद्ध हो, प्रेम हो, आतंरिक राजनीति या सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक या व्यवसायिक द्वंद्व हों या व्यक्तिगत कठिनाइयां |
--------------वैदिक-पौराणिक युग में तात्कालीन सामजिक स्थितियों, ब्राह्मणों, ऋषि व मुनियों के तप बल एवं राजाओं के शक्ति बल एवं स्त्री-लोलुपता के मध्य स्त्रियों की दशा पर पौराणिक कथाओं (सुकन्या का च्यवन से मज़बूरी अथवा नारी सुकोमल भाव या मानवीय –सामाजिक कर्त्तव्य भाव में विवाह करना, नहुष का इन्द्राणी पर आसक्त होना, कच-देवयानी प्रकरण, ययाति-शर्मिष्ठा प्रकरण आदि ) में ......
------देवी सुकन्या विचार करती हैं कि नर-नारी के बीच सन्तुलन कैसे लाया जाए तो अनायास ही स्वतः कह उठती हैं कि
-----यह सृष्टि, वास्तव में पुरुष की रचना है। इसीलिए, रचयिता ने पुरुषों के साथ पक्षपात किया, उन्हें स्वत्व-हरण की प्रवृत्तियों से पूर्ण कर दिया। किन्तु पुरुषों की रचना यदि नारियाँ करने लगें, तो पुरुष की कठोरता जाती रहेगी और वह अधिक भावप्रणव एवं मृदुलता से युक्त हो जाएगा।
------------------- इस पर आयु, उर्वशी-पुरुरवा पुत्र, यह दावा करता है कि मैं वह पुरुष हूँ जिसका निर्माण नारियों ने किया है। { पुरुरवा स्वयं इला, (जो इल व इला नाम से पुरुष व स्त्री दोनों रूप था, का बुध से पुत्र था ) एल कहलाता था| अतः आयु स्वयं को नारियों द्वारा निर्मित कहता था ..}
-----आयु का कहना ठीक था, वह प्रसिद्ध वैदिक राजा हुआ, किन्तु युवक नागराजा सुश्रवा ने आयु को जीतकर उसे अपने अधीन कर लिया था।
----------------देवी सुकन्या सोचती हैं कि फिर वही बात ! पुरुष की रचना पुरुष करे तो वह त्रासक होता है और पुरुष की रचना नारी करे तो लड़ाई में वह हार जाता है।
 
------------------आज नारी के उत्थान के युग में हमें सोचना चाहिए कि "अति सर्वत्र वर्ज्ययेत" ....जोश व भावों के अतिरेक में बह कर हमें आज नारियों की अति-स्वाधीनता को अनर्गल निरंकुशता की और नहीं बढ़ने देना चाहिए |
---- चित्रपट, कला, साहित्य व सांस्कृतिक क्षेत्र की बहुत सी पाश्चात्य-मुखापेक्षी नारियों बढ़-चढ़ कर, अति-स्वाभिमानी, अतिरेकता, अतिरंजिता पूर्ण रवैये पर एवं तत्प्रभावित कुछ पुरुषों के रवैये पर भी समुचित विचार करना होगा |
---------------- अतिरंजिता पूर्ण स्वच्छंदता का दुष्परिणाम सामने है ...समाज में स्त्री-पुरुष स्वच्छंदता, वैचारिक शून्यता, अति-भौतिकता, द्वंद्व, अत्यधिक कमाने के लिए चूहा-दौड़, बढ़ती हुई अश्लीलता ...के परिणामी तत्व---अमर्यादाशील पुरुष, संतति, जो हम प्रतिदिन समाचारों में देखते रहते हैं...यौन अपराध, नहीं कम हुआ अपराधों का ग्राफ, आदि |

""क्यों नर एसा होगया यह भी तो तू सोच ,
क्यों है एसी होगयी उसकी गर्हित सोच |
उसकी गर्हित सोच, भटक क्यों गया दिशा से |
पुरुष सीखता राह, सखी, भगिनी, माता से |
नारी विविध लालसाओं में खुद भटकी यों |
मिलकर सोचें आज होगया एसा नर क्यों |""


--------------समुचित तथ्य वही है जो सनातन सामजिक व्यवस्था में वर्णित है, स्त्री-पुरुष एक रथ के दो पहियों के अनुसार संतति पालन करें व समाज को धारण करें .......

रिग्वेद के अन्तिम मन्त्र (१०-१९१-२/४) में क्या सुन्दर कथन है---

"" समानी व अकूतिःसमाना ह्रदयानि वः ।
समामस्तु वो मनो यथा वः सुसहामतिः ॥"""-
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--------------- पुरुष की सहयोगी शक्ति-भगिनी, मित्र, पुत्री, सखी, पत्नी, माता के रूप में सत्य ही स्नेह, संवेदनाओं एवं पवित्र भावनाओं को सींचने में युक्त नारी, पुरुष व संतति के निर्माण व विकास की एवं समाज के सृजन, अभिवर्धन व श्रेष्ठ व्यक्तित्व निर्माण की धुरी है। 

----- अतः आज की विषम स्थिति से उबरने क़ा एकमात्र उपाय यही है कि नारी अन्धानुकरण त्याग कर भोगवादी संस्कृति से अपने को मुक्त करे।

---------------- हम स्त्री विमर्श, पुरुष विमर्श, स्त्री या पुरुष प्रधान समाज़ नहीं, मानव प्रधान समाज़, मानव-मानव विमर्श की बात करें। समता, समानता नहीं है | अतः बराबरी की नहीं, युक्त-युक्त उपयुक्तता के आदर की बात हो तो बात बने।
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